आदिवासियों को समान नागरिक संहिता से बाहर रखना चाहिए: सुशील मोदी

सोमवार के दिन भाजपा सहित तमाम राष्ट्रीय दलों के प्रतिनिधियों के साथ संसदीय पैनल ने प्रस्तावित समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के विभिन्न पहलुओं पर अपनी-अपनी राय रखी। भाजपा सांसद एवं क़ानूनी मामलों पर संसदीय पैनल के अध्यक्ष सुशील मोदी खुद यूसीसी को देश में सभी लोगों और क्षेत्रों पर लागू किये जाने के पक्ष में नहीं दिखे।

सुशील मोदी ने पूर्वोत्तर के राज्यों सहित देश में मौजूद आदिवासियों को किसी भी संभावित ‘समान नागरिक संहिता’ (यूसीसी) के दायरे से बाहर रखने के पक्ष में अपनी बात रखी। भाजपा नेता सुशील मोदी आदिवासियों को यूसीसी के दायरे से बाहर रखने की वकालत की। उनका तर्क था कि सभी कानूनों में कुछ अपवाद होते हैं, ऐसे में आदिवासियों को यूसीसी के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए।

बैठक में शामिल विपक्षी दलों के सदस्यों ने इस विवादास्पद मुद्दे पर लॉ कमीशन द्वारा विचार-विमर्श की शुरुआत की टाइमिंग को लेकर सवाल खड़े किये हैं। कांग्रेस एवं डीएमके सहित अधिकांश विपक्षी सदस्यों का मानना था कि आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर यूसीसी पर जोर दिया जा रहा है। लॉ पैनल की ओर से पहली बार इस विषय पर पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी की बैठक बुलाई गई है, जिसमें कानून मंत्रालय के विधाई विभागों एवं क़ानूनी मामलों के प्रतिनिधियों के विचारों को सुनने के लिए यह आयोजन किया गया था। पिछले माह विधि आयोग द्वारा “पर्सनल लॉ की समीक्षा” विषय के तहत यूसीसी पर विभिन्न हितधारकों से अपने विचार रखने हेतु एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया था।

बैठक में इस बात की ओर भी इशारा किया गया कि कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में वहां के लोगों की सहमति के बिना केंद्रीय कानून लागू नहीं किये जा सकते हैं। अब सवाल है कि विधि आयोग, पीएम मोदी सहित भाजपा को क्या इस बारे में आजतक कोई जानकारी नहीं थी?

बैठक में शिवसेना(उद्धव) नेता संजय राउत ने यूसीसी पर परामर्श की टाइमिंग को लेकर सवाल खड़े किये, जबकि कांग्रेस सांसद विवेक तन्खा और डीएमके सांसद पी.विल्सन ने अलग से अपने लिखित बयान देकर साफ़ कहा है कि अब नए सिरे से इस विषय में परामर्श की कोई आवश्यकता नहीं है।

अपने पत्र में विवेक तन्खा ने पिछले विधि आयोग द्वारा मौजूदा दौर में ‘समान नागरिक संहिता’ (यूसीसी) को लागू करने की जरूरत को “न ही जरुरी और न ही वांछनीय” बताये जाने पर अपनी सहमति व्यक्त की है। इसके पीछे के मंतव्य पर सवाल उठाते हुए कांग्रेस के नेता ने लॉ पैनल के फैसले को आगामी चुनावों से जोड़ा। विपक्षी दलों ने यूसीसी पर पीएम मोदी की टिप्पणियों पर हमला बोला। कांग्रेस का कहना था कि पीएम मोदी का मकसद बढ़ती बेरोजगारी और मणिपुर हिंसा जैसे वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने का प्रयास था। 

बैठक में भाजपा नेता महेश जेठमलानी ने यूसीसी को लागू किये जाने का जोरदार बचाव किया और दावा किया कि संविधान सभा में हुई बहसों में भारत के नीति-निर्माताओं ने हमेशा इसे अनिवार्य माना था। बैठक में विधि आयोग के सचिव के. बिस्वाल भी शामिल थे। विधि आयोग की ओर से जानकारी दी गई कि इस संबंध में आयोग के 14 जून के सार्वजनिक नोटिस के जवाब में 19 लाख सुझाव प्राप्त हुए हैं और यह प्रक्रिया 13 जुलाई तक जारी रहेगी।

सूत्रों के मुताबिक हाउस पैनल के कुल 31 सदस्यों में से 17 लोगों ने बैठक में हिस्सा लिया। यूसीसी का मकसद विभिन्न धर्मों, रीति-रिवाजों और परंपराओं पर आधारित व्यक्तिगत कानूनों को धर्म, जाति, पंथ, यौन अभिविन्यास और लिंग के बावजूद सभी के लिए एक समान कानून से बदलना है। व्यक्तिगत कानून और विरासत, गोद लेने और उत्तराधिकार से संबंधित कानूनों को एक सामान्य कोड द्वारा कवर किए जाने की संभावना है।

उधर झारखंड के आदिवासी संगठनों ने ऐलान किया है कि वे यूसीसी का विरोध करेंगे। उनका तर्क है कि एक बार इसके कानून के रूप में आ जाने पर उनके परंपरागत कानून पंगु हो जाएंगे। इन संगठनों का तर्क है कि ‘समान नागरिकता कानून’ (यूसीसी) संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची के प्रावधानों तक को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

पांचवीं अनुसूची का संबंध देश के आदिवासी राज्यों के अनुसूचित क्षेत्रों एवं इन क्षेत्रों में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण से सम्बद्ध है। जबकि छठी अनुसूची के तहत असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित प्रावधान हैं।

भाजपा सांसद सुशील मोदी का बयान भाजपा की दुविधा को स्पष्ट करता है। पूर्वोत्तर के राज्यों से यूसीसी को लेकर सबसे मुखर विरोध आने लगा है। झारखंड सहित आदिवासी क्षेत्रों से भी यूसीसी के खिलाफ विरोध की आवाजें तेज होने लगी हैं। पंजाब में अकाली दल ने अपना विरोध साफ़ व्यक्त कर दिया है। ऐसा जान पड़ता है कि भाजपा ने इसे चुनाव पूर्व दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी शक्तियों को अपने पक्ष में गोलबंदी करने के उद्येश्य से आगे किया है। सभी राष्ट्रीय मीडिया और समाचार पत्रों के जरिये समान नागरिक संहिता को मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक बताया जा रहा है।  

27 जून को मध्यप्रदेश में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समान संहिता की वकालत करते हुए कहा था: “आप मुझे बताएं, क्या किसी घर में परिवार के एक सदस्य के लिए एक कानून है और दूसरे सदस्य के लिए दूसरा कानून है।” यदि ऐसा है तो क्या वह घर चल पाएगा? ऐसे में फिर कोई देश कैसे चल सकता है?” इसी के बाद से समान नागरिक संहिता को लेकर राष्ट्रीय बहस शुरू हो गई है। हालांकि भाजपा के किट बैग में यह मुद्दा दशकों पुराना है। धारा 370, समान नागरिक संहिता और राम मंदिर जैसे मुद्दों से पिछले कई दशकों से देश में हिंदू-मुस्लिम विभाजन की खाई को लगातार चौड़ा करने का काम किया गया है। 

असल में भाजपा और संघ ने समान नागरिक संहिता की बहस में हमेशा मुस्लिम आबादी में इसके खिलाफ विरोध पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखा। आम लोगों से बातचीत में हमेशा देश में मुस्लिमों को चार शादियां करने, 3 तलाक जैसे अधिकार मिलने और नेहरु द्वारा हिंदुओं के लिए हिंदू कोड बिल लाकर उनके अधिकारों को सीमित कर दिया गया है। यूसीसी को लेकर समूची बहस और विवाद इसी बात को लेकर पिछले कई दशकों से चल रही है कि मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर चलकर हिंदू समाज के साथ सौतेला बर्ताव किया गया, और बहुसंख्यक होकर भी हिंदू अपने देश में इस दुर्व्यवहार को झेलने के लिए अभिशप्त हैं। 

लेकिन कल को जब ‘समान नागरिक संहिता’ बिल कानून बनकर लागू हो जाता है तो इसके क्या निहितार्थ होंगे, इस बारे में भाजपा सहित आरएसएस और समर्थक शायद अब चेत रहे हैं। एक व्यक्ति के परिवार में कई बच्चे हो सकते हैं, लेकिन सबको समान शिक्षा, संस्कार देने के बाद भी सभी एक समान नहीं होते। फिर यहां तो विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों और विविधताओं से भरे 140 करोड़ लोगों का सवाल है, जिसकी विभिन्नता ही भारत की खासियत है और यह इसे दुनिया में विशिष्ट बनाती है। किसी विशेष धर्म के लोगों को इससे नुकसान होगा, ऐसी संकुचित सोच विविधता में एकता की मूल भावना को ही कुचलकर रख देता है।    

( रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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