नाजिया और राधा जैसी महिला श्रमिक किन हालातों में काम करती हैं?

नाजिया उनतीस वर्ष की हैं। वे पिछले दस वर्षों से पतंग बना रही हैं। उनकी आय का यही स्रोत है। वह अहमदाबाद के बेहरामपुरा में रहती हैं। नाजिया को 1,000 पतंग बनाने की मजदूरी 110 रूपए मिलती है। यह काम वह घर पर रहकर करती हैं। क्योंकि परिवार की जिम्मेदारियों के चलते वह घर से बाहर जाकर काम नहीं कर सकती हैं।

इस तरह घर रहकर काम करने वाली नाजिया अकेली औरत नहीं हैं। घर पर पर रहकर इस तरह का काम करने वाली देश में लाखों औरतें हैं। भारत में 17.19 लाख औरतें इस तरह का काम करती हैं। यह आंकड़ा श्रमिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों के एक नेटवर्क, वुमेन इन इनफॉर्मल एम्प्लॉयमेंट: ग्लोबलाइज़िंग एंड ऑर्गनाइज़िंग (WIEGO) ने 2020 की रिपोर्ट में प्रस्तुत किया था। इसमें 12.48 लाख महिलाएं गैर-कृषि कार्य में लगी हुई हैं। 

नाजिया अहमद जैसी महिलाओं के पास नौकरी करने लिए बहुत कम विकल्प हैं। क्योंकि प्रचलित रीति-रिवाजों और मान्यताओं के अनुसार महिलाओं का घर से बाहर जाकर कम करने को अच्छा नहीं माना जाता है। इसके चलते अपने हुनर का विकास करने के लिए उनके पास अवसर बहुत कम है।

नाजिया कहती है कि, ‘घर से काम करना मेरे लिए एक अच्छा विकल्प है। मैं अपना घर छोड़े बिना अपने परिवार का भरण-पोषण कर पा रही हूं। मेरे ससुराल वाले और पिता ने मुझे कभी भी बाहर जाकर काम करने की अनुमति नहीं दी है, लेकिन मेरे घर से काम करने में वो मेरा समर्थन करते हैं।’ 

भारत में, घर-आधारित काम करने वालों में महिलाएं एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। जो बुनाई, बीड़ी-बनाने, कढ़ाई और पतंग बनाने जैसे स्थानीय उद्योगों में काम करती हैं। यह काम एग्रीमेंट के आधार और बिना किसी एग्रीमेंट के, दोनों तरह से होता है। इन्हें उपठेकेदारों की मदद से बड़ी कंपनियों से भी काम मिलता है। 

अहमदाबाद में स्व-रोज़गार महिला संघ (SEWA) की एक वरिष्ठ क्षेत्र समन्वयक, दीपिका राठौड़ ने इंडियास्पेंड को बताया कि अहमदाबाद में घर-आधारित श्रमिकों को काम देने वाली अधिकांश कंपनियां स्थानीय हैं, जैसे पापड़ थोक विक्रेता। हालांकि अगरबत्ती निर्माण क्षेत्र में शहर के कई छोटे पैमाने के निर्माता घर-आधारित श्रमिकों को काम देते हैं। इसके साथ ही बड़ी कंपनियां – जैसे साइकिल ब्रांड और मैसूर सुगंधी इस तरह के काम देती हैं।

दीपिका राठौड़, जो अहमदाबाद की मलिन बस्तियों में विभिन्न परियोजनाओं पर काम कर रही हैं, बताती हैं कि ये निर्माता आमतौर पर अपने कच्चे माल को स्थानीय आपूर्तिकर्ताओं से प्राप्त करते हैं और अपने तैयार उत्पादों को थोक विक्रेताओं और वितरकों के माध्यम से बाजार में वितरित करते हैं। परिधान विनिर्माण क्षेत्र में, जो अहमदाबाद में बड़े पैमाने पर संचालित होता है। अहमदाबाद में अरविंद मिल्स, आशिमा ग्रुप और नंदन डेनिम सहित कई प्रमुख कपड़ा मिल के निर्माताओं के पास छोटे पैमाने के उपठेकेदारों का एक नेटवर्क है। जो कपड़ों को काटने और सिलाई करने के लिए घर-आधारित श्रमिकों के लिए ऐसे काम देते हैं। 

महिलाओं के लिए कम वेतन और कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं

इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट्स (आईआईएचएस) की शोधकर्ता नीती पी. ने कहा कि परिवार में महिलाओं को आय के मुख्य स्रोत के रूप में नहीं देखा जाता है। परिवार की पहली चाहत होती है कि महिलाएं घर के काम, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल को प्राथमिकता दें। वह बताती हैं कि अगर कोई महिला श्रम शक्ति का हिस्सा बन जाती है, तो भी निर्णय अक्सर पिता, भाई और पति जैसे परिवार के पुरूष सदस्यों द्वारा लिया जाता है।

भले ही कई महिलाएं घर से बाहर जाकर काम करने की इच्छुक हों। लेकिन सवाल उठता है कि घरेलू ज़िम्मेदारियां कौन संभालेगा। यहीं पर घर-आधारित काम महिलाओं के लिए जरूरी हो जाता है, क्योंकि इससे महिला कुछ आय अर्जित करने के साथ-साथ अपने परिवार की देखभाल कर लेती है।

नीती ने आगे कहा कि ‘घर-आधारित श्रमिकों द्वारा किए गए अधिकांश कार्यों को अक्सर अकुशल श्रम के रूप में देखा या माना जाता है। जब किसी को अपने लिविंग रूम, रसोई या घर में काम करना होता है, तब श्रम और घरेलू ज़िम्मेदारियों के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है। महिलाओं के लिए कामकाजी और गैर-कामकाजी समय के बीच भी कोई स्पष्ट अंतर नहीं रह जाता है।’

घर-आधारित श्रमिकों की सुरक्षा के लिए किसी प्रकार का कानून भारतीय संविधान में नहीं और इसके अभाव में, उन्हें अक्सर बेहद कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। 

अहमदाबाद में सेवा-महिला हाउसिंग ट्रस्ट की कार्यक्रम समन्वयक वीना भारद्वाज ने बताया कि महिलाओं के लिए यह समस्या लैंगिक भेदभाव के कारण और भी बदतर हो जाती है। उन्हें समान काम के लिए असमान वेतन मिलता है। उनके हुनर का भी विकास नहीं हो पाता। 

WIEGO की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार पुरुष घरेलू श्रमिकों की औसत प्रति घंटा कमाई 48 रुपये है, जबकि महिला श्रमिकों की औसत प्रति घंटा कमाई 24 रुपये है। घरेलू महिलाओं की औसत प्रति घंटा कमाई भारत में तय न्यूनतम वेतन 46.88 रुपये का आधा भी नहीं है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि घर-आधारित अधिकांश महिला श्रमिकों के पास स्वास्थ्य बीमा या पेंशन जैसे कोई  सामाजिक सुरक्षा नहीं है । 

आवास की ख़राब स्थिति

42 वर्षीय सखीबेन दंतानी का पांच लोगों का परिवार अहमदाबाद के पटाड नगर में दो कमरे के घर में रहता है। जो एक स्थानीय परिधान कंपनी के लिए काम करती हैं, एक कमरे का उपयोग ब्लाउज और स्कर्ट पर सजावट चिपकाने के लिए करती हैं, जबकि दूसरे कमरे में घरेलू आवश्यक सामान रखा रहता है। वह कपड़ों के प्रत्येक टुकड़े पर 15-25 रुपये कमाती हैं। 

दो कमरों के घर में कई और चीजों के लिए भी दिक्कत सहना पड़ता है, जैसे उनके तीन बच्चों को खेलने और पढ़ाई के लिए जगह नहीं मिलती और सखीबेन के पास कपड़े रखने के लिए कोई व्यवस्थित जगह भी नहीं है। हालांकि उन्होंने हमें बताया कि जगह की कमी और कम मज़दूरी के बारे में अपने ठेकेदार से शिकायत करने पर उन्हें हमेशा यही जवाब मिलता है कि ‘यदि आप काम नहीं कर सकती हैं, तो मैं किसी और को ढूंढ लूंगा।’

एक और कहानी अहमदाबाद के विश्वासनगर कॉलोनी में रहने वाली 32 वर्षीय राधा की है। जो एक कपड़ा निर्माता के लिए भी काम करती हैं। वे अपने 17 वर्ग मीटर के कमरे में काम करती हैं। जहां कम रोशनी रहती है। इतनी कम रोशनी में काम करने के वजह से आंखों पर पड़ने वाले तनाव के कारण सिलाई मशीनों पर काम करना छोड़कर उन्होंने घर पर धागा काटना शुरू कर दिया है। 

कानूनी-सामाजिक सुरक्षा का अभाव 

इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट की रिपोर्ट में पाया गया कि घर-आधारित काम करने वाली कई महिलाएं अपने अधिकारों से अनजान रहती हैं। अपने काम को ‘टाइमपास’ के रूप में देखती हैं। मूल्य जोड़ने के बावजूद खुद को उत्पादक श्रम शक्ति का हिस्सा नहीं मानती हैं। इसके अलावा घर-आधारित श्रमिक को बहुत कम मजदूरी मिलती है। उनके पास बहुत कम या कोई भी कानूनी और सामाजिक सुरक्षा नहीं होती है। काम करने की स्थितियां बहुत खराब होती हैं। 

(इंडिया स्पेंड डॉट काम की रिपोर्ट पर आधारित)

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