समान नागरिक संहिता: आदिवासियों की अलिखित परंपराओं और अधिकारों पर कानून का डंडा

भाजपा सांसद किरोड़ी लाल मीणा ने 9 दिसम्बर, 2022 को राज्यसभा में समान नागरिक संहिता विधेयक पेश किया था। जिसका विपक्ष ने खुलकर विरोध किया लेकिन हंगामें के बीच विधेयक के पक्ष में 63 तो विपक्ष में 23 मत पड़े। इसके छह माह बाद 14 जून 2023 को राष्ट्रीय विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर सार्वजनिक सूचना जारी कर लोगों से राय मांगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले 27 जून को मध्य प्रदेश के भोपाल में आयोजित एक कार्यक्रम में समान नागरिक संहिता की वकालत करते हुए कहा कि “एक ही परिवार में दो लोगों के अलग-अलग नियम नहीं हो सकते। ऐसी दोहरी व्यवस्था से घर कैसे चल पाएगा?”

मोदी के इस बयान पर देश में एक नई चर्चा शुरू हो गई। लगे हाथ असदउद्दीन ओवैसी ने भी कह दिया कि “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समान नागरिक संहिता की नहीं बल्कि “हिंदू नागरिक संहिता’ की बात कर रहे हैं।”

इस नई चर्चा के बीच समझा जाने लगा कि समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के बहाने एक तरह से मुसलमानों को निशाने पर लिया जा रहा है। लेकिन जब पीएम मोदी के इस बयान पर गौर किया गया तो सीधे तौर पर देश के आदिवासी समुदाय निशाने पर दिखाई देने लगे। उसके बाद से देश का आदिवासी समुदाय आंदोलित होने लगा है, जो निरंतर जारी है।

आदिवासी समुदायों की मानें तो यूसीसी मूल रूप से भारत के लोगों की विविधता और बहु-जातीयता की भावना के खिलाफ है। यूसीसी स्पष्ट रूप से देश के लगभग 700 से अधिक अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) समुदायों के भी खिलाफ है जिनकी जनसंख्या 14 करोड़ के आसपास है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 के अनुसार “राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।” इसका मतलब है कि यूसीसी अनिवार्य नहीं है; बल्कि यह एक वांछनीय प्रस्ताव है।

यही कारण है कि 21वीं विधि आयोग ने इसे न तो आवश्यक और न ही वांछनीय माना है। अब सवाल यह है कि पिछले छह-सात सालों में ऐसे कौन से महत्वपूर्ण बदलाव आए कि यूसीसी के पक्ष या विपक्ष में जनमत संग्रह कराने की नौबत आन पड़ी है। सवाल यह भी है कि ऐसे कौन से कारक हैं कि अचानक जादुई तरीके से बढ़ रही महंगाई, मुद्रास्फीति, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि जैसे कई अन्य महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों और समस्याओं को पीछे ढकेल कर यूसीसी को प्राथमिकता एवं तात्कालिकता का पुट देकर उसे आम जनता में पेश कर दिया गया है।

भारत के सामान्य क्षेत्रों में लागू सामान्य प्रशासन प्रणाली में कुछ अपवादों और संशोधनों के साथ संविधान अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित क्षेत्रों के नियंत्रण और प्रशासन के लिए कई विशिष्ट प्रावधान प्रदान करता है। उदाहरण के लिए – अनुच्छेद 13 (3) (ए) प्रथा (custom) को कानून के रूप में मान्यता प्राप्त है। किसी परंपरा के कानून की शक्ति होने की एकमात्र शर्त यह है कि वह उस परंपरा का नागरिकों के प्रदत मौलिक अधिकारों को असंगत न करे।

इसका मतलब साफ है कि संपत्तियों और भूमि के स्वामित्व, विरासत और गोद लेने आदि व्यक्तिगत कानून जो वास्तव में वैवाहिक संबंधों के ही विस्तार हैं, उन्हें संविधान का संरक्षण प्राप्त है। ये व्यक्तिगत कानून परंपरागत प्रथाओं के अंदर रखे गए हैं। जनजातियों का सामाजिक जीवन का आधार उनके जल, जंगल और ज़मीन हैं, ये ही उनकी आजीविका की जीवन रेखा हैं।

जनजातियों से संबंधित प्रत्येक कानून मूल रूप से उनके जल, जंगल, और जमीन रक्षा के लिए बना हैं और आदिवासियों के ये संसाधन उनकी संस्कृति और रीति- रिवाजों से अभिन्न रूप जुड़े हुए हैं। इसलिए यदि यूसीसी को आदिवासी समुदायों पर थोपा जायेगा, तो उनकी यह जीवन रेखा यूसीसी के बलात वैधानिक माध्यम के द्वारा लेकिन अनुचित तरीकों और उपायों से उनसे छीनी जाएगी। वह दिन पूरे भारत के आदिवासियों (अनुसूचित जनजातियों) के लिए एक काला दिन होगा।

जनजातीय समुदायों पर यूसीसी को लागू किए जाने पर एक मूल सवाल उससे होने वाले प्रभाव का भी है और वह यह है कि अनुच्छेद 244 के तहत पांचवीं और छठी अनुसूचियों की स्थिति क्या होगी? संविधान में वर्णित अपने सभी विस्तारों सहित अनुच्छेद 371, अनुच्छेद 31(8), पंचायतों के उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम-1996, वनाधिकार अधिनियम-2006, और अन्य विशिष्ट अधिनियम तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय- समय पर दिए गए कई अलग-अलग निर्णयों का क्या होगा? भारत के चौदह राज्यों के अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातीय क्षेत्रों में निवास करने वाली लगभग 14 करोड़ अनुसूचित जनजातियों का क्या होगा?

नागरिकों के बीच किसी भी वांछित एकरूपता लाने का सामान्य मानदंड समानता होना चाहिए और समानता का अर्थ सामाजिक न्याय से है। जहां असमान शिक्षा, असमान आर्थिक स्थिति, असमान सामाजिक स्थिति हो, वहां समानता के बिना एकरूपता का शोर मचाना एक ढोंग या कोई छुपा षड्यंत्र के अलावा कुछ नहीं हो सकता।

दरअसल, यूसीसी का सबसे बुरा प्रभाव देश के आदिवासी समुदायों पर पड़ेगा, जिनका जीवन स्तर आज भी जल, जंगल और जमीन आधारित है। उनकी अपनी संस्कृति और प्रथागत स्वशासन प्रणाली है जिस पर यूसीसी की तलवार चलने की चिंता आदिवासी समाज में देखा जा रहा है।

आदिवासी मामलों के जानकार व चिंतक इमिल वाल्टर केंडुलना कहते हैं कि “सामाजिक रूप से यूसीसी विवाह नाम की सबसे पुरानी संस्था को भ्रष्ट करेगा, जिसकी मर्यादा और उसका अनुशासन विभिन्न समुदायों के विविध धार्मिक विश्वासों /आस्थाओं तथा अलिखित प्रथाओं/ कानूनों द्वारा संचालित होता है।”

वे आगे कहते हैं कि “हम कैसे भरोसा करें कि एक नया एकरूप और समान दीवानी कानून जो विवाह से जुड़े सभी वंशानुगत संपत्ति के स्वामित्व, गोद लेने, आदि सम्पति से सम्बंधित सभी मुद्दों एवं समस्याओं का समाधान करने में सक्षम होगा?”

वे आगे कहते हैं कि “आदिवासियों पर हाल के कुछ अध्ययनों से पता चला है कि 120 से अधिक जनजातियां ऐसी हैं जो अभी भी सरकारों के विकास कार्यक्रमों से अछूती हैं। ऐसे समूहों का क्या होगा?”

केंडुलना ने इस बावत एक पत्र राष्ट्रीय विधि आयोग (22वीं) के सदस्य सचिव, नई दिल्ली को 10 जुलाई, 2023 को भेजकर कई सवाल उठाए हैं।

आदिवासी नेता लक्ष्मी नारायण मुंडा कहते हैं कि “यूनिफॉर्म सिविल कोड आदिवासी समुदाय को मिले संवैधानिक अधिकार के खिलाफ है। यह कानून इस देश की मूल आदिवासियों की जिनकी अपनी एक विशिष्टता है, उसको खत्म कर देगा तथा उसके नैसर्गिक और परंपरागत अधिकारों से वंचित कर देगा। समान नागरिक संहिता से सभी जनजातियों के प्रथागत कानून समाप्त हो जाएंगे।”

“छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट 1908, संथाल परगना टेनेंसी एक्ट 1949, विलकिंग्सन रूल 1837, पेसा अधिनियम 1996 आदि समान नागरिकता संहिता के लागू होने से समाप्त हो जाएंगे। वंशानुक्रम, उत्तराधिकार की मातृसत्तात्मक और पितृसत्तात्मक दोनों परिस्थितियों को पालन करने वाला आदिवासी समुदाय प्रभावित होगा। इससे दोनों के सामाजिक ढांचे में खलल पड़ेगा। महिलाओं को संपत्ति के समान अधिकार दिया जाएगा जिसका अर्थ है कि पैतृक भूमि, भुईहरी, मुंडारी, खुटकट्टी, जमीन जो किसी व्यक्ति विशेष का ना होकर समुदाय का होता है। इस पर सबसे बड़ा चोट होगा। अतः आदिवासी समुदाय को इसका पुरजोर विरोध करना चाहिए।”

झारखंड पुनरूत्थान अभियान के संयोजक सन्नी सिंकु कहते हैं कि “आदिवासियों की खूंटकट्टी, पारंपरिक जल, जंगल और जमीन का अधिग्रहण व क्रय विक्रय करने में सहूलियत हो, इस निमित केंद्र की भाजपा सरकार समान नागरिक संहिता ला रही है। आदिवासियों की जिस प्रथागत अलिखित मान्यता की मानवीय मूल्यों को आत्मसात करते हुए ब्रिटिश सरकार ने संरक्षित किया था। जिस मूल भावना को ध्यान में रखकर भारतीय शासन अधिनियम 1935 और स्वतंत्रता के उपरांत 1950 में भी हू-ब-हू अपनाया गया है। उसी तरह से देश में पांचवी अनुसूची राज्य राष्ट्रपति के पारित आदेश द्वारा अनुसूचित क्षेत्र घोषित की गई है। उसमें निहित मूल भावना के तहत राज्यपाल को आदिवासियों की सुशासन, नियंत्रण के लिए प्रथागत स्वशासन को समय समय पर विनियमित करना था।”

वह कहते हैं कि झारखंड में सीएनटी/एसपीटी एक्ट प्रभावी है। इस कानून को सरकार और नौकरशाह मिलकर जमीन मालिक का नाम और नेचर को बदल रहे हैं। कोल्हान में 1833 बंगाल रेगुलेशन xiii और विलकिंसन रूल्स के तहत मुंडा मानकी को जमीन जोत के बदले राजस्व वसूली का लिखित अधिकार है। कोल्हान की इस प्रथागत लिखित कानून को शिथिल करने के लिए रघुवर दास की भाजपा सरकार में ही आदिवासियों की सामुदायिक भूमि यथा चारागाह, नाच गान, अखाड़ा, खेलकूद, देशाउली, जहेरथान, सरना, मासन, सासनदीरी को अवैध जमाबंदी घोषित करते हुए रद्द किया गया था।”

सन्नी सिंकु कहते हैं कि “आदिवासी समाज में भले बहुविवाह प्रथा व्याप्त हो, लेकिन आदिवासी समाज की महिला को दहेज के लिए प्रताड़ना नहीं झेलना पड़ता और न ही भरण पोषण के लिए, आजीविका के लिए उन्हें दर दर की ठोकरें खानी पड़ती है। बल्कि आदिवासी समाज में महिलाओं के लिए विशेष सामाजिक मान्यता प्रथागत रूप से जीवित है। किसी भी परिस्थिति में जीवन भर आजीविका के लिए आदिवासी महिलाओं को जमीन पाने का अधिकार प्राप्त होता है। इसलिए यह सहज ही देखा जा सकता है कि आदिवासी महिला का दहेज उत्पीड़न, भेदभाव, भ्रूण हत्या, बलात्कार जैसी घटना गैर आदिवासी समाज की तुलना में कम है।”

पूर्व सांसद व आदिवासी सेंगेल अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष सालखन मुर्मू कहते हैं कि “अभी यूसीसी का कोई मसौदा नहीं आया है। किस पर प्रतिक्रिया व्यक्त की जाय। हम आदिवासियों की फिलहाल कोई धार्मिक मान्यता नहीं है। बहस का आधार क्या होगा? पहले सरना धर्म कोड चाहिए।”

(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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