उत्तराखंड में एक और टनल निर्माण हादसे का शिकार, 2019 में लोगों ने परियोजना का किया था विरोध

नई दिल्ली। जिस दिन सारा देश दीपावली की खुशियों के बीच अपने-अपने परिवारों के साथ खुशहाली और सबके लिए कल्याण की मंगल-कामना कर रहा था, उसी दिन सूरज की पहली किरण के फूटने से पहले ही एक टनल के भीतर काम कर रहे करीब 40 मजदूर भू-धंसाव के कारण दब गये। यह घटना आज देश ही नहीं दुनियाभर के समाचार पत्रों की सुर्खियों में है, लेकिन क्या वजह थी कि देश एक तरफ सबसे बड़े त्यौहार की तैयारियों में व्यस्त था और उत्तराखंड के एक रोड प्रोजेक्ट में उस दिन भी काम बदस्तूर जारी था? क्या यह परियोजना देश के लिए रणनीतिक रूप से बेहद जरूरी थी, या 2024 चुनावों के लिहाज से इसे किसी भी हाल में अगले दो-तीन महीनों के भीतर पूरा करने का दबाव था?

ये बातें तो प्रोजेक्ट से जुड़े स्टाफ से जमीनी स्तर पर ही हासिल किया जा सकता है, लेकिन पुरानी रिपोर्टों को पलटने पर जानकारी मिलती है कि इस प्रोजेक्ट को तो 2022 के अंत तक ही पूरा करने का लक्ष्य दिया गया था। इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र को कवर करने वाली पत्रिका टनल बिल्डर डॉट कॉम की 13 मार्च 2018 की रिपोर्ट से जानकारी मिलती है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल की ओर से उत्तराखंड में सिलक्यारा बेंड-बरकोट टनल को मंजूरी मिल गई है। यह चारधाम परियोजना के बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री धार्मिक स्थलों के लिए बेहतर कनेक्टिविटी को ध्यान में रखकर बनाई गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में हिंदुओं के लिए इन चार धामों का बेहद महत्व है।

सुरंग निर्माण के लिए पीएम मोदी की मंजूरी

आर्थिक मामलों की मंत्रिपरिषद समिति (सीसीईए) जिसने इस योजना को अपनी मंजूरी दी थी, उसके मुखिया कौन हैं? जी हां देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही थे, जिनके कर-कमलों द्वारा 4.531 किमी लंबी 2-लेन बाई-डायरेक्शनल सिलक्यारा बेंड-बरकोट टनल के निर्माण को मंजूरी दी गई थी।

उत्तराखंड के चार धाम की यात्रा में बद्रीनाथ और गंगोत्री मार्ग मुख्य राष्ट्रीय मार्ग से जुड़े होने के कारण यात्रा आसान थी। उससे कठिन केदारनाथ और यमुनोत्री की यात्रा के लिए धरासू बैंड से बिल्कुल अलग यात्रा होती थी। लेकिन इस 4.537 किमी के टनल के निर्माण से करीब 35 किमी की दूरी को कम किया जा सकता है। सरकार की चार धाम और ऑल वेदर रोड की महत्वाकांक्षी योजना का उद्देश्य हिंदू धर्म के मतावलंबियों को चारों धाम की यात्रा को सुलभ और आरामदेह बनाने का था।

इस परियोजना को ईपीसी मोड के तहत बनाया जा रहा है। परियोजना की लागत 1,383.78 करोड़ रुपये आंकी गई थी, जिसमें भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास सहित निर्माण से पूर्व की गतिविधियों के साथ-साथ 4 वर्षों के दौरान टनल के रखरखाव और संचालन की लागत भी शामिल है। 4 वर्ष के भीतर इस परियोजना को पूरा करना था, और इस परियोजना की देखरेख के लिए अथॉरिटी की ओर से रोडिक कंसल्टेंट्स प्राइवेट लिमिटेड को नियुक्त किया गया था।

इसके सीएमडी, राज कुमार ने तब अपनी टिप्पणी में कहा था, “रोडिक कंसल्टेंट्स को हिमालय क्षेत्र के इस ड्रीम प्रोजेक्ट का हिस्सा होने पर गर्व है। साइट की भौगोलिक स्थिति एवं पर्यावरणीय मानदंडों को देखते हुए यह वास्तव में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। उत्खनन, पुलीकरण और ढुलाई प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया गया है। एक बार पूरा होने पर, यह सुरंग न केवल उत्तराखंड के तीर्थ स्थलों तक आसान पहुंच की सुविधा ही मुहैया नहीं करने जा रही है, बल्कि पिछड़े क्षेत्रों के विकास, नए व्यापार केंद्रों से इसे जोड़ने एवं बेहतर आर्थिक संभावनाओं के साथ-साथ स्थानीय आबादी की जरूरतों को पूरा करने में भी सक्षम साबित होने जा रही है।”

स्थानीय लोगों ने इस परियोजना के खिलाफ उठाई थी आवाज

लेकिन क्या ऐसी परियोजनाओं को मंजूरी देने से पहले वहां के स्थानीय निवासियों, भूगर्भशास्त्रियों एवं पर्यावरणविदों से भी विचार-विमर्श किया जाता है? साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम रिवर एंड पीपल (SANDRP) के लिए 3 मई 2019 को उत्तरकाशी के बेहद प्रतिष्ठित पत्रकार ओंकार बहुगुणा ने टनल को लेकर एक रिपोर्ट तैयार की थी। इसमें बताया गया है कि बड़कोट के निकट धरासू बैंड पर सुरंग निर्माण कार्यों में नियमों की अवेहलना किये जाने से वहां के स्थानीय लोगों और पर्यावरण पर पड़ रहे विपरीत प्रभावों को उनकी रिपोर्ट में दर्शाया गया था।

रिपोर्ट में बताया गया है कि निर्माण कार्य हाल ही में शुरू किया जा चुका है, लेकिन इस परियोजना में पर्यावरण को हो रहे नुकसान का मामला अभी भी न्यायालय में विचाराधीन है। फ़रवरी 2019 में जारी आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि जब तक इस मामले में अंतिम निर्णय नहीं आ जाता तब तक इस परियोजना में कोई नया काम शुरू नहीं किया जाए, यह सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना है।

निर्माण कार्य में तय मानकों का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है। यमुना की सहायक अधिकांश नदियों में मलबा डाला जा रहा है। ऑल वेदर रोड और सुरंगों के नाम पर पहाड़ों में हो रहे विस्फोटों से यमुना के आस-पास के इलाके क्षतिग्रस्त हो रहे हैं। टनों मलवे के बोझ से दबी नदी सिसकियां लेकर किसी तरह अपने अस्तित्व को बचाने में जूझ रही है।

सिलक्यारा से पोल गांव के लिए लगभग साढ़े चार किलोमीटर सुरंग का निर्माण कार्य जारी है, जिसमें असुरक्षित विस्फोटों की वजह से वन संपदा सहित पारिस्थितिकी तंत्र को भारी नुकसान पहुंचाया जा रहा है। नियमों के मुताबिक (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) के मानकों के अनुसार मलवे को इस तरह डंप किया जाना चाहिए था कि पर्यावरण को किसी तरह से नुकसान न पहुंचे, लेकिन कार्यदायी एजेंसी प्राकृतिक रूप से बह रही बारहमासी बड़ीगाड़ को ही सुरंग निर्माण के मलबे से पूरी तरह से ढक दिया गया है।

विस्फोटकों के प्रयोग से हो रहे नुकसान के चलते अब पोल गांव के ग्रामीणों ने सुरंग निर्माण कार्य का बहिष्कार करना शुरू कर दिया है। हाल ही में सुरंग निर्माण कार्य में व्याप्त भारी अनियमिताओं को उजागर करते हुए ग्रामीणों ने राष्ट्रीय हरित पंचाट को लिखित शिकायत भी दी है।

इतना ही नहीं पत्र में लिखा है कि निर्माण एजेंसी की लापरवाही की बानगी इस तथ्य में नजर आती है कि सुरंग के मुहाने पर विस्फोटों को लेकर ना तो सुरक्षा के पुख्ता इंतेजाम किये गए हैं, और ना ही फायर सेफ्टी उपकरणों को तैनात किया गया है। एनएचएआई में पेटी ठेकेदार गजा कम्पनी द्वारा रात के समय ब्लास्टिंग की जा रही है, जिससे वन्य जीव जन्तुओं सहित ग्रामीणों की भूमि और मकानों को खतरा पैदा हो गया है।

ग्राम प्रधान सुभाष जगूड़ी ने बताया कि सुरंग की वजह से सिंचाई की नहरें भी क्षतिग्रस्त हो गयी हैं, जिससे ग्रामीण किसानों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। सुरंग से निकलने वाला मलवा खड्ड के मुहाने पर भी डाला जा रहा है जिससे खड्ड की मुख्य धारा का रुख बदल गया है जो बरसात में भारी तबाही का कारण बन जायेगा।

इस पत्र में स्थानीय पंचायत प्रधान सहित स्थानीय निवासियों के नाम दर्ज किये गये थे, लेकिन अखबारों और ज्ञापन देने की कार्रवाई भी केंद्र सरकार और उसकी एजेंसियों के कानों तक इस क्षेत्र के लोगों की आवाज नहीं पहुंचा सकी, जिसका नतीजा आज हमारे सामने है।

अभी तक एक भी श्रमिक को सुरक्षित नहीं निकाला जा सका

आज एएनआई, पीटीआई और एनडीटीवी सहित तमाम चैनलों के संवाददाता घटनास्थल से धुआंधार खबर दे रहे हैं, लेकिन इसके पीछे के कारकों को लेकर सरकार पर सवाल खड़ा करने की उनकी कोई समझ नहीं है। एनडीटीवी के अनुसार, आज सुबह तक स्थिति यह थी कि रेस्क्यू ऑपरेशन जारी था, अंदर से मलबा ट्रक लेकर आ रहे हैं, बड़ी मशीन मलबा निकालकर डंपर में डाल रही है। अंदर पोकलेन मशीन अपना काम कर रही है, जो मलबे को लगातार डम्पर में डालकर रेस्क्यू ऑपरेशन को अंजाम दे रही है।

अभी तक उत्तराखंड के 2, हिमाचल के 1, यूपी के 8, बिहार के 4, बंगाल के 3, असम के 2, झारखंड के 15 और उड़ीसा के 5 मजदूरों के मलबे में फंसे होने की बात निकलकर आ रही है। इन लोगों को पाइप के जरिये पानी, भोजन और संदेश का आदान प्रदान किया जा रहा है। लेकिन यह कोई नहीं जानता कि इनमें से कोई मलबे में तो नहीं फंसा, या मलबे के दूसरी तरफ सुरंग में सुरक्षित हैं? क्योंकि यदि ये लोग ऊपर से आये मलबे में फंसे हैं, तो उनके बचने का तो सवाल ही नहीं उठता।

कंपनी के एक कर्मचारी ने एक समचार एजेंसी को बताया कि बड़ी तेजी से शॉटक्रीटिंग का काम किया जा रहा है। यह काम असल में तब किया जाता है जब सुरंग के लिए खुदाई की जाती है, और सुरंग में खाली स्थान बन जाने से दबाव के कारण मिट्टी, पत्थर गिरने से बचाने के लिए सीमेंट मोर्टार की तेज प्रेशर से शॉटक्रीटिंग की जाती है, जिससे वे उस स्थान पर एक परत बना देते हैं, जो सुरंग में किसी प्रकार के धंसाव को रोकने में कारगर होते हैं। लेकिन इस स्थिति में यह कितना कारगर होने वाला है, यह तो समय ही बतायेगा।

सिलक्यारा से डंडलगांव के बीच 4 किमी लंबी सुरंग के निर्माण कार्य में टनल के मुंह से करीब 270 मीटर भीतर कल सुबह 5 से 6 बजे के बीच अचानक से सुरंग धंसने से 35 मीटर तक का हिस्सा धंस गया था। सुरंग के ऊपर का 50 मीटर वजन का दबाव बना हुआ है। सुरंग के भीतर उस वक्त तकरीबन 40 मजदूर फंसे हुए हैं। अभी तक एक भी मजदूर को बाहर निकाला नहीं जा सका है।

अभी तमाम रिपोर्टें रेस्क्यू ऑपरेशन और आवश्यक मशीनरी का रोना लेकर आ रही हैं, लेकिन यह निर्माण कार्य क्यों किया जा रहा था और इसको लेकर सरकारी योजना के स्तर पर क्या धारणा थी, और जब यह योजना पारित की जा रही थी तब स्थानीय लोगों सहित उस जगह की पारिस्थितिकी से परिचित लोगों का क्या आकलन था, और उन लोगों ने प्रशासन और सरकार से क्या इस योजना को रोकने के संबंध में कोई अर्जी या विरोध जाहिर किया था?

इस बारे में हमें जो जानकारी मिली है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि स्थानीय लोगों, भू-वैज्ञानिकों एवं पत्रकारों ने 2019 में ही इस परियोजना पर अपना संदेह व्यक्त करते हुए प्रशासन को पत्र लिखे थे, काम शुरू होने के बाद नदियों, ढलान और पारिस्थितिकी तंत्र में व्यापक बदलावों के बारे में प्रशासन को अपनी चिंता से अवगत कराया था।

इसलिए इसे कोई अचानक घटना के रूप में चित्रित कर मजदूरों की जान बचाने या मृतकों की जान गंवाने पर कुछ मुआवजा देकर बच निकलने की कवायद पर भी देश को चिंतित होना आवश्यक है। यह कोई एक घटना नहीं है, बल्कि आगे न जानें और कितने हादसों से देश को दो-चार होना पड़ेगा, क्योंकि अब देश की सरकारें 140 करोड़ लोगों को विकास के चमत्कार से इस कदर अंधा बना चुकी हैं, कि उनके लिए सही और गलत के बीच फर्क करना नामुमकिन सा हो गया है।

वास्तविकता तो यह है कि देश के संसाधनों की लूट में सिर्फ प्राकृतिक संसाधन ही नहीं हैं, बल्कि हर वर्ष देश में लाखों करोड़ के बजट को भी आम जनता के विकास के नाम पर सीधे कॉर्पोरेट, विदेशी निवेशकों एवं बड़ी मशीनों के विक्रेताओं के बीच बन्दरबांट के लिए स्वयं जनता से स्वीकृति ली जाती है। भारतीय मध्य वर्ग को बेहतर राजमार्गों, ऑल वेदर रोड, चार धाम यात्रा, राष्ट्रीय राजमार्गों सहित प्रधानमंत्री सड़क योजना जैसे नारों से पूरी तरह से अपने वश में कर लिया गया है।

उन्हें आज रत्ती भर भी रंज नहीं है कि मनमोहन सरकार हो या मोदी सरकार, अगर उनके द्वारा सारा बजट सिर्फ राजमार्गों पर ही पानी की तरह बहाया जा रहा है तो बदले में उन्हें यूरोप-अमेरिका की तरह चिकनी और आरामदेह सड़कें तो देखने को मिल रही हैं। ग्राम प्रधान के चुनाव से लेकर विधायक और सांसदी का चुनाव में आज नेता यही वादा करता है कि वह चुना जाता है तो वह क्षेत्र की जनता को सड़क लाकर देगा। जनता भी रोजगार, शिक्षा स्वास्थ्य के स्थान पर जगह-जगह बोर्ड लगाती है कि यदि सड़क नहीं दे सकते, तो वोट नहीं देंगे।

हर क्षेत्र के ठेकेदार, माफिया और नेता को और क्या चाहिए? उन्हें भी तो लूट के लिए रोड के ज्यादा से ज्यादा ठेकों पर ही तो कमीशन मिलना है। रेत और बजरी ईंट के उनके भट्टों से कमाई होनी है। और ये सब हम अपने हाथों उनके लिए होम कर रहे हैं। बाद में लोग शिकायत करने लगते हैं कि सरकार ने कदम-कदम पर टोल वसूली शुरू कर दी है। और वसूली बढ़ाती जा रही है। उन्होंने कभी झांककर नहीं देखा कि यह विकास मुफ्त में नहीं हुआ है। इसके लिए राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने लाखों करोड़ रुपये कर्ज ले रखे हैं, और अब वह दिवालिया होने के कगार पर है।

गांवों में अपने खेतों के बीचो-बीच राजमार्ग लाने की खातिर बड़े स्तर पर पैरवी की गई। चंद लोगों ने अपने बाप-दादाओं की जमीन बेचकर सही जगह निवेश किया होगा, वरना अधिकांश लोग मकान, गाड़ी खरीदकर अब पटरी पर आ चुके हैं। एनएचएआई तो कंगाल होने पर वह सड़क निजी हाथों में नीलाम करने का विकल्प रखती है, लेकिन उन लाखों किसानों का क्या, जो चार दिन की चांदनी का सुख भोग आज बर्बाद हो चुके हैं?

उत्तराखंड भी इसका अपवाद नहीं रहा। यहां भी कई लोगों को अपनी कृषि भूमि बेचकर रातों-रात देहरादून, दिल्ली-नोएडा में बसने की इच्छा कुलांचे मार रही थी, लेकिन बहुत से अन्य लोग भी थे जिन्हें यह सब ठीक नहीं लग रहा था। उनके लिए सरकार ने आश्वस्त करते हुए बताया था कि उत्तराखंड में देश-दुनिया के लाखों लोगों की आवक से रोजगार और कारोबार के अवसर भी उन्हीं के पास आयेंगे।

आज एक-एक कर उसके दुष्परिणामों को भुगतने के लिए भी उत्तराखंड की जनता को तैयार रहना चाहिए। आज वही हो रहा है, या कहें कि यह तो बस शुरुआत है। अभी तो प्रकृति ने अपनी पार्टी शुरू ही की है। ऐसे सैकड़ों सुरंगें बनाई जा रही हैं। ऋषिकेश से कर्णप्रयाग के बीच रेलवे के निर्माण में सुरंगों का पूरा जाल ही बिछाया जा रहा है।  

सीपीआई (एमएल) के राज्य सचिव और उत्तराखंड के वरिष्ठ नेता इंद्रेश मैखुरी कहते हैं, “पहाड़ के बारे में जानते नहीं, वैज्ञानिकों को अपने अनुसार चलाते नहीं हैं, वैज्ञानिक तथ्यों को मानते नहीं, केवल मुनाफा पहचानते हैं, नतीजा दुर्घटना, कई बार तबाही।

उत्तरकाशी-यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर निर्माणाधीन टनल में फंसे लगभग 40 मजदूरों की कुशलता की कामना है।”

उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोचन भट्ट ने 12 नवंबर को हुई दुर्घटना पर देर रात X पर अपनी टिप्पणी में कहा है, “सुबह 5:00 से अब तक रेस्क्यू। टनल में फंसे 40 लोगों के बारे में कोई अपडेट नहीं।”

उत्तराखंड में जोशीमठ में भू-धंसाव और दरारों के बारे में सबसे पहले देश को सचेत करने वाले और इस आपदा की लड़ाई के अगुआ अतुल जोशी का कहना है, “उत्तरकाशी यमनोत्री चारधाम मार्ग पर 40 लोग सुरंग में फंसे। दीपावली के साथ-साथ रविवार का दिन भी। क्योंकर मजदूरों को छुट्टी के दिन। त्योहार के दिन काम करने को मजबूर किया गया? यही घटना 7 फरवरी को रविवार के दिन रिणी में भी हुई थी। बाकी पहाड़ की भूगर्भिक जानकारी के बगैर ऐसा निर्माण तो जान लेवा है ही।

पहले मजदूरों को भुगतना पड़ता है, फिर स्थानीय लोग भुगतान करते हैं। यह दुर्घटना नहीं, हत्या है।

दोषियों पर कार्यवाही हो। वैसे होती नहीं है। रिणी-तपोवन के दोषियों पर क्या हुआ? कुछ नहीं!”

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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