ग्राउंड रिपोर्ट: बस्तर के दशहरे में क्यों नहीं जलाया जाता रावण का पुतला?

बस्तर। दशहरे की बात सुनते ही सबसे पहले दिमाग में जो बात आती है वो है दस सिर वाला रावण। जिसका दहन दशहरा या विजय दशमी के दिन किया जाता है। लेकिन कई हिस्सों में रावण को भगवान की तरह माना जाता है। वहां रावण के पुतले का दहन नहीं किया जाता। ऐसा ही एक दशहरा मनाया जाता है छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में। जहां दशहरे दिन के रावण का दहन नहीं बल्कि रथ यात्रा और रथ चोरी की प्रथा है।

बस्तर का दशहरा विश्व प्रसिद्ध है। जिसमें दुनिया के अलग-अलग जगहों से लोग हिस्सा लेने आते हैं। यह मुख्यत: बस्तर जिले के जगदलपुर शहर में मनाया जाता है। इसमें यहां से आसपास के लोग हिस्सा लेते हैं।

लगभग 75 दिनों तक चलने वाले दशहरे के इस कार्यक्रम के अंतिम हिस्से में ‘जनचौक’ की टीम ने भी हिस्सा लिया। यहां एक अलग सा माहौल और आदिवासी संस्कृति की झलक देखने को मिली। राजशाही प्रथा के अनुसार आज भी यहां लोग राजा के द्वारा स्थापित की गई प्रथा को मानते हैं।

दशहरे के साथ खत्म नहीं होता दशहरा

इस बार का दशहरा ‘जनचौक’ की टीम के लिए भी अलग था। एक उत्सुकता थी कि आखिर 75 दिनों तक कैसे दशहरा मनाया जा सकता है। पूरे देश में जहां रावण दहन के बाद दशहरा खत्म हो जाता है, वहीं बस्तर में इसके बाद लगभग एक सप्ताह तक दशहरा का कार्यक्रम चलता रहता है। जब तक देवी मावली की विदाई नहीं हो जाती है तब तक दशहरा संपन्न नहीं होता है।

यहां दशहरे की शुरुआत जंगल से लकड़ी लाने की प्रक्रिया से होती है। करीब 75 दिन पहले पूर्णिमा और अमावस्या के हिसाब से यह क्रिया शुरू होती है। किसी ने बताया कि अगर बस्तर का पूरा दशहरा देखना है तो आपको पांच साल लग जाएंगे। इसमें इतने सारे विधि विधान हैं कि एक बार में यह पूरा नहीं हो पाएगा।

‘जनचौक’ की टीम इस दशहरे के आखिरी कुछ हिस्सों में शामिल हुई। जो हमारे लिए बहुत ही अनोखा अनुभव था। जगदलपुर का दंतेश्वरी मंदिर पूरी तरह से सजा हुआ था। चारों तरफ लोग थे। आदिवासी अपनी परम्परा के हिसाब से अपने-अपने गांव से आकर मंदिर में पूजा कर रहे थे। क्या बच्चे, क्या बूढे, क्या जवान- सभी लोग यहां पूजा के बाद रात के मावली परछाव (मां मावली की छत्री) का स्वागत करने के लिए तैयार थे।

देखते ही देखते एक लंबी सड़क के बीच हजारों की संख्या में लोग इकट्ठा हुए। इनमें विदेशी भी थे। रोड के बगल में जितने घर थे लोग उन घरों की छतों पर खड़े थे। राजा के न्यौता के अनुसार गांव के लोग अपने अंगादेव (कुलदेव/कुलदेवी) की छत्री लेकर आए थे। एक अलग तरह का माहौल था। मान्यता के अनुसार लोगों पर देवी सवार थी। ये लोग इधर-उधर दौड़ रहे थे।

इसी बीच बस्तर के राजा कमलचंद्र भंजदेव लोगों के बीच आए और लोगों का स्वागत किया। जनचौक की टीम भी एक छत पर चढ़ गई। जहां से मावली परघाव की विधि दिखाई दी। राजा सर पर काटाबंद (एक तरह के फूल की टोप) पहनकर आए थे। यह प्रचीन प्रथा है जो लंबे समय चली आ रही है।

विदाई के साथ खत्म होगा दशहरा

एक स्टेज बना हुआ था जहां राजा और बाकी लोग मां मावली के छत्र का इंतजार कर रहे थे। यहीं पर दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी मंदिर से मां मावली का छत्र आऩा था। छत्र आया, राजा ने विधि विधान के साथ अपने कंधे पर लेकर उसे जगलदपुर के दंतेश्वरी मंदिर लेकर गए जहां वह अगले कुछ दिनों तक रहेगी और दशहरे का त्यौहार उनकी विदाई के साथ ही खत्म होगा।

चालुक्य वंश से चली आ रही परंपरा के अनुसार बस्तर राज परिवार के सदस्य शारदीय नवरात्रि के पंचमी के दिन दंतेवाड़ा जाते हैं और मंगल पत्रक भेंट कर मां दंतेश्वरी को बस्तर दशहरा के लिए निमंत्रण देते हैं। इसी क्रम में अष्टमी के दिन वहां से छत्र चलता है और नवमीं के दिन जगदलपुर में राजा उनका स्वागत करते हैं।

बस्तर का दशहरा 600 साल पुराना है। जहां आदिवासी संस्कृति की झलक साफ दिखाई देती है। जिस वक्त पूरे देश में दशहरा मनाया जा रहा था और रावण को जलाया जा रहा था उस वक्त बस्तर में आदिवासी पूरी श्रद्धा के साथ रथ को खींच रहे थे।

आठ चक्कों के इस रथ को भव्य तरीके से सजाया गया था। दशहरे वाले दिन कई लोग अपने गांव के अंगादेव को लेकर आए थे। माना जाता है कि बस्तर में दशहरे में सभी लोग अपने कुल देवी-देवताओं को मां दंतेश्वरी से पास लेकर आते हैं।

बस्तर के दशहरे में कई रोचक तथ्य हैं। 75 दिन तक चलने वाले इस कार्यक्रम में पहले से ही निश्चित है कि कौन सा गांव क्या काम करेगा। किस प्रक्रिया में कौन सा गांव हिस्सा लेगा और उसका दायित्व क्या होगा।

जनचौक की टीम ने इस पूरी प्रकिया के बारे में बस्तर दशहरा के लेखक रुद्र नारायण पाणिग्राही से बातचीत की। ताकि इस तरह के दशहरे के पीछे के कारण के बारे में पता चल सके। उन्होंने बताया कि इसे पूरा करने में लगभग आठ से दस साल का समय लगा है। हर साल की इतनी रस्में हैं कि कुछ न कुछ छूट ही जाता था।

पाणिग्राही ने राजशाही के शासन साल से दशहरे के इतिहास को बताया। उन्होंने कहा कि बस्तर का राजा आदिवासी नहीं बल्कि आंध्र प्रदेश के वारंगल से आए चालुक्य वंश के हैं। जिन्होंने अपना साम्राज्य बस्तर के घने जंगलों के बीच स्थापित किया।

इतिहास के अनुसार आंध्र प्रदेश के वारंगल के राजा प्रताप रूपदेव के राज्य पर मुगलों ने आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया था। राज्य छोड़ने की स्थिति में वो सैनिकों के साथ इधर-उधर भाग रहे थे।

मान्यता है कि इसी दौरान राजा के भाई अन्नम देव भी इससे बहुत परेशान थे और अपनी कुलदेवी मां दंतेश्वरी की शरण में आए। कई दिनों तक पूजा-पाठ की। जिसके बाद देवी ने उन्हें स्वप्न में वरदान दिया कि मार्गशीर्ष के महीने के पूर्णिमा के दिन वह अपने घोड़े पर सवार होकर जहां तक जाएंगे वहां तक उनका राज्य हो जाएगा और इस दौरान वह पीछे मुड़कर न देखें। जहां वह पीछे मुड़कर देखेंगे, वहीं से राज्य का विस्तार रुक जाएगा। इस तरह वह आगे बढ़ने लगे।

इतिहास के अनुसार इस तरह वह बस्तर अंचल के बीजापुर में प्रवेश किए और आगे की तरफ बढ़े। इस दौरान यहां तक उन्होने छोटी-छोटी रियासतों को पराजित किया और अंत में छिंदक नागवंश के राजा हरिश्चंद्र को पराजित किया और अपना राज्य स्थापित कर दंतेवाड़ा को राजधानी बना दिया। इस तरह से बस्तर में चालुक्य वंश का आगमन हुआ और साथ में उनकी कुलदेवी दंतेश्वरी का बस्तर में प्रवेश हुआ।

पाणिग्राही कहते हैं कि साल 1947 में देश आजाद हुआ। इसके साथ ही सारी रियासतों का विलीनीकरण हुआ। एक जनवरी 1948 में सबसे आखिर में बस्तर का विलीनीकरण हुआ। इसके आखिरी राजा प्रवीर चंद भंजदेव थे जो कुछ समय के लिए ही राजा था।

बस्तर की जनता अपने राजा से बहुत प्यार करती थी। इसलिए उसकी हर बात को मानती थी। ऐसे में लोगों ने राजा की कुलदेवी मां दंतेश्वरी को भी मनाना शुरू कर दिया।

बस्तर में दशहरे के दौरान रावण का पुतला न जलाने के क्रम में वह बताते हैं कि यहां दशहरा शक्ति पूजा पर आधारित है। बस्तर का इलाका तांत्रिक शक्ति पर विश्वास करने वाला क्षेत्र है। जहां तंत्र शक्ति की लोग ज्यादा पूजा करते आए हैं। इसलिए यहां लोग शक्ति के तौर पर मां दंतेश्वरी की पूजा करते आए हैं। इसलिए यहां रावण का पुलता दहन नहीं किया जाता है।

वह कहते हैं कि बस्तर के आदिवासियों को खुद के कुल देवी देवता अलग हैं। लेकिन यह राजा की कुल देवी थी इसलिए लोग शक्ति के तौर पर इसकी पूजा करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि यह उनके राजा की देवी है और उसकी पूजा करना उनका कर्तव्य है।

(बस्तर से पूनम मसीह की ग्राउंड रिपोर्ट।)

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