एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर संसद का ही संशोधन क्यों नहीं मान रहा केंद्र: सुप्रीम कोर्ट

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक का दर्जा है या नहीं, इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को केंद्र से तीखे सवाल किए। इसने सॉलिसिटर-जनरल तुषार मेहता की इस दलील पर सवाल उठाया कि सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम में संसद द्वारा 1981 में किए गए संशोधन को स्वीकार नहीं किया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद द्वारा पारित संशोधन पर वह ऐसा कोई रुख नहीं अपना सकती है।

मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्य कांत, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की संविधान पीठ ने बुधवार को सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा देने वाले संसद के एक अधिनियम का समर्थन नहीं करने पर भी पूछताछ की।

सुप्रीम कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा कि एक सरकारी कानून अधिकारी यह नहीं कह सकता कि वह संसद द्वारा अधिनियमित कानून के साथ खड़ा नहीं है, ।

संविधान पीठ ने कहा कि भले ही कोई भी सरकार केंद्र सरकार के मुद्दे का प्रतिनिधित्व करती हो, संसद का मामला शाश्वत, अविभाज्य और ख़त्म किए जाने योग्य नहीं है। इसने कहा कि सरकार को संशोधन को मानना ही पड़ेगा।

संशोधन का मामला तब आया जब एएमयू की अल्पसंख्यक स्थिति के सवाल पर सुनवाई करने वाली सात-न्यायाधीशों की संविधान पीठ का हिस्सा न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने केंद्र की ओर से पेश मेहता से पूछा कि क्या उन्होंने 1981 के संशोधन को स्वीकार किया है?

इस सवाल पर सॉलिसिटर-जनरल मेहता ने जवाब दिया कि ‘मैं नहीं स्वीकार करता हूं।’ सीजेआई ने हैरानी जताते हुए कहा, ‘आप संसद के संशोधन को कैसे स्वीकार नहीं कर सकते? सॉलिसिटर महोदय, संसद भारतीय संघ के अधीन एक शाश्वत अविनाशी निकाय है। चाहे कोई भी सरकार भारत संघ के मुद्दे का प्रतिनिधित्व करती हो, संसद का मुद्दा शाश्वत, अविभाज्य और अविनाशी है।’

द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने आगे कहा, ‘और मैं भारत सरकार को यह कहते हुए नहीं सुन सकता कि संसद ने जो संशोधन किया है, मैं उस पर कायम नहीं हूं। आपको इस संशोधन पर कायम रहना होगा। आपके पास एक विकल्प है। संशोधन का रास्ता अपनाएं और संशोधित अधिनियम को फिर से बदलें।’

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से उसके रुख पर सवाल इसलिए उठाया, क्योंकि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर विवाद है। 1967 में जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आया था तो इसने कहा था कि एएमयू अल्पसंख्यक दर्जे का हकदार नहीं है क्योंकि इसे ‘केंद्रीय विधायिका द्वारा अस्तित्व में लाया गया था, न कि मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा’।

इसके बाद 1981 में एएमयू अधिनियम में संशोधन द्वारा अल्पसंख्यक दर्जा बहाल कर दिया गया था। लेकिन इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई, जिसने जनवरी 2006 में बदलाओं को रद्द कर दिया।

एएमयू और पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की। लेकिन एनडीए सरकार ने 2016 में शीर्ष अदालत को बताया कि वह पिछली सरकार द्वारा दायर अपील वापस ले रही है।

संविधान पीठ फरवरी 2019 में तीन-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा किए गए रेफरेंस पर सुनवाई कर रही है।

सीजेआई के सवाल पर सॉलिसिटर-जनरल ने कहा, ‘मैं ए बनाम बी के मामले पर बहस नहीं कर रहा हूं। मैं सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष संवैधानिक सवालों का जवाब दे रहा हूं। विचाराधीन संशोधन को उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी और एक फैसले में यह घोषणा की गई थी कि यह एबीसीडी आधार के लिए असंवैधानिक है और एक कानून अधिकारी के रूप में, यह कहना मेरा अधिकार और साथ ही मेरा कर्तव्य है कि यह दृष्टिकोण सही लगता है।’

सीजेआई ने आश्चर्य जताया, ‘यह काफी ज़्यादा होगा क्योंकि एक कानून अधिकारी हमें बता रहा है कि संसद ने जो किया है, मैं उसका पालन नहीं करता हूं। संसद ने जो किया है, उस पर आपको कायम रहना होगा। कानून बनाने के कार्य में संसद निस्संदेह सर्वोच्च है। संसद हमेशा क़ानून में संशोधन कर सकती है, ऐसी स्थिति में एक क़ानून अधिकारी कह सकता है कि मेरे पास अब एक संशोधित क़ानून है… क्या हम केंद्र सरकार के किसी अंग को यह कहते हुए सुन सकते हैं कि संसदीय संशोधन के बावजूद, मैं इस संशोधन को स्वीकार नहीं करता हूं?’

सॉलिसिटर-जनरल ने कहा कि वह 2006 के फैसले का समर्थन कर रहे हैं। इसके बाद सीजेआई ने जोर देकर कहा कि संसद लोकतंत्र के तहत एक शाश्वत अविभाज्य और अविनाशी इकाई है। इस पर सॉलिसिटर-जनरल ने कहा कि वह इस पर विवाद नहीं कर रहे हैं। सीजेआई ने फिर पूछा, “कानून अधिकारी यह नहीं कह सकते कि वह संसद द्वारा बनाए गए कानून का समर्थन नहीं करते?”

संविधान पीठ ने कहा कि संसद अविनाशी है और यह एक संघ है। यह इस बात की परवाह किए बिना है कि केंद्र सरकार किसकी समर्थक है। एसजी के रूप में आप यह नहीं कह सकते कि आप संशोधन के साथ खड़े नहीं हैं। यह एक क्रांतिकारी बात होगी जब कानून अधिकारी हमें बताएंगे कि वह ऐसा नहीं करते हैं संसद ने जो किया है उस पर कायम रहें। चूंकि संसद निश्चित रूप से एक और संशोधन ला सकती है, संसद लोकतंत्र के तहत सर्वोच्च और शाश्वत, अविभाज्य इकाई है। आप कैसे कह सकते हैं कि आप संशोधन की वैधता को स्वीकार नहीं करते हैं?

एसजी ने तब पूछा कि क्या सभी आपातकालीन युग के संवैधानिक संशोधनों को कानून अधिकारियों द्वारा उचित ठहराया जाना चाहिए।

सीजेआई ने जवाब दिया, “यही कारण है कि 44वां संशोधन (जिसने आपातकाल युग के कई संशोधनों को हटा दिया) अस्तित्व में आया! सभी बुराइयों को दूर करने के लिए।”

मामले में शामिल कानून के प्रश्न अनुच्छेद 30 के तहत एक शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा देने के मापदंडों से संबंधित हैं, और क्या संसदीय क़ानून द्वारा स्थापित केंद्रीय वित्त पोषित विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान नामित किया जा सकता है।

फरवरी 2019 में तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अगुवाई वाली पीठ ने इस मामले को सात न्यायाधीशों के पास भेजा था।1968 में एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू को केंद्रीय विश्वविद्यालय माना था।

उक्त मामले में, न्यायालय ने यह भी माना कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के तहत केंद्रीय विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान नहीं किया जा सकता है। हालांकि, बाद में 1920 के एएमयू अधिनियम में संशोधन लाकर संस्थान की अल्पसंख्यक स्थिति को बहाल कर दिया गया था। यह संशोधन वर्ष 1981 में लाया गया था।

इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने 2006 में इस कदम को असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया, जिसके बाद एएमयू ने उच्चतम न्यायालय में तत्काल अपील की। गौरतलब है कि 2016 में केंद्र सरकार ने इस मामले में अपनी अपील वापस ले ली थी।

सुनवाई में एसजी ने बताया कि एएमयू को केंद्र सरकार से हर साल 1,500 करोड़ रुपये मिलते हैं। उन्होंने कहा कि 1920 के एएमयू अधिनियम को अनुच्छेद 30 का उपयोग करके आंका नहीं जा सकता क्योंकि जिस समय कानून पारित किया गया था उस समय अल्पसंख्यक या मौलिक अधिकारों की कोई अवधारणा नहीं थी।

एसजी ने कहा कि मैं इसका हवाला नहीं देना चाहता, लेकिन उनके एक सदस्य ने वास्तव में अंग्रेजों को यह कहते हुए लिखा था कि हम चाहते हैं कि ब्रिटिश शासन जारी रहे और यह हमारे देश के लिए एक वरदान है। यह परिदृश्य था; इस तरह उन्होंने इसे आत्मसमर्पण कर दिया। वहां हैं पत्र। मैं यहां उनका हवाला नहीं दे रहा हूं।

सीजेआई ने तब स्पष्ट किया कि हम यह नहीं कह सकते कि एक पूर्व-संवैधानिक संस्था के पास अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार नहीं हो सकते हैं। बेशक, उसके पास ऐसा हो सकता है, बशर्ते वह दो मानदंडों को पूरा करता हो: कि इसकी स्थापना एक अल्पसंख्यक द्वारा की गई थी और यह कि अल्पसंख्यक इसका प्रशासन करते हैं। क्या यह वैधानिक तरीका चुना गया है संविधान के बाद उन्हें अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त होना इतना विनाशकारी है? यह केवल एक नियामक क़ानून है। क्या ये प्रावधान केवल संस्था के उचित संचालन के लिए हैं?”

सीजेआई ने कहा कि पीठ तय करेगी कि संशोधन अधिनियम की वैधता की जांच करने की आवश्यकता है या नहीं। याचिकाकर्ताओं के वकील ने कहा कि ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वर्तमान मामले में न्यायालय की जांच केवल बाशा फैसले के संबंध में है। सुनवाई 30 जनवरी को भी जारी रहेगी।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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