सहज बुद्धिमत्ता के सहारे विषाक्त हितैषिता ‎की फांस से ‎‎‘मतबल’ ‎को बाहर रखना जरूरी है

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भारतीय स्टेट बैंक ने चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎ से संबंधित कागजात मुख्य चुनाव आयुक्त के कार्यालय को सौंप दिया है। भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की विश्वसनीयता बनाये रखने की दृष्टि से यह सुकून की बात है। आज पूरी दुनिया की व्यवस्था लगभग व्यापार प्रधान हो गई है। व्यापार में बैंकों की भूमिका का भूमंडलीय महत्व होता है। जाहिर है, भूमंडलीय राजनीति (जियोपॉलिटिक्स) पर भी बैंकिंग व्यवस्था की विश्वसनीयता का असर होता है।

भारत की बैंकिंग व्यवस्था भी बेसल (Basel‎) मानदंडों का पालन करती है। इन मानदंडों को बेसल (Basel) समिति लगातार तैयार करती रहती है। असल में बेसल (Basel) समिति एक वैश्विक निकाय है। स्विट्जरलैंड के बेसल (Basel) में इसका मुख्यालय है। बेसल (Basel) समिति अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग नियम बनानेवालों का एक समूह है, बैंकिंग पर्यवेक्षण में इसका बहुत महत्व है। भारत का केंद्रीय बैंक भारतीय रिज़र्व बैंक है। भारतीय रिज़र्व बैंक भारत के सभी वाणिज्यिक बैंकों का पर्यवेक्षण और नियमन करता है। मौद्रिक नीति सहित बैंकिंग और अर्थ व्यवस्था पर इसकी नजर रहती है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के ससमय अनुपालन में भारतीय स्टेट बैंक की असमर्थता अभिव्यक्ति से भारतीय रिज़र्व बैंक के साथ-साथ पूरी भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की साख दुनिया में दाव पर लग गई थी। अब जब कि भारतीय स्टेट बैंक ने यथा आदेश चुनाव आयोग को संबंधित दस्तावेज सौंप दिया है तो साख क्षति की भरपाई हो गई है। घरेलू राजनीति का प्रतिकूल असर विश्व व्यापार में बैंकिंग लेन-देन की विश्वसनीयता पर न पड़े यह सुनिश्चित करने के लिए बैंकिंग व्यवस्था और वित्त संचलन को राजनीतिक हस्तक्षेप मुक्त रखने की जरूरत होती है। दोहराव के जोखिम पर भी कहना जरूरी है कि अब जब कि भारतीय स्टेट बैंक ने यथा आदेश चुनाव आयोग को संबंधित दस्तावेज सौंप ‎दिया है, भारत में बैंकिंग व्यवस्था की साख क्षति की भरपाई हो गई है। ‎

भारतीय स्टेट बैंक ने अपना काम कर दिया है। अब चुनाव आयोग को इसे 15 मार्च 2024 या इसके पहले अपने वेबसाइट पर इसे सार्वजनिक जानकारी के लिए उपलब्ध करवाने की बारी है। किसी के भी चाल-चरित्र-चेहरा और उसकी प्रवृत्ति को जानने और उसके आकलन का सब से बड़ा और प्रामाणिक जरिया होता है, उसका वित्त व्यवहार। यानी, उसके पास पैसा कहां से आता है और उसके पास से पैसा कहां जाता है। किसी भी व्यक्ति, समूह या संस्था आदि की आय-व्यय पद्धति उसके बारे में लगभग सब कुछ कह देती है।

भारत के सामने 2024 में कई लिहाज से अति महत्वपूर्ण लोकसभा का आम चुनाव है। इस आम चुनाव में उम्मीदवारों, दलों के चाल-चरित्र-चेहरा के बारे में मतदाताओं के सही निर्णय पर पहुंचने के लिहाज से मतदाताओं की सूचना संपन्नता के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता है। कहना न होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते समय इस मामले में आम नागरिकों के सूचना प्राप्त करने का अधिकार के महत्व को गहराई से समझा है।

समझा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के बार एसोशियेसन के अध्यक्ष ने महामहिम राष्ट्रपति को संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देकर अनुरोध किया है कि चुनावी चंदा (Electoral Bonds)‎ से संबंधित जानकारी को चुनाव आयोग के वेबसाइट पर सार्वजनिक करने से रोका जाये। निश्चित रूप से संविधान के तहत ऐसे प्रावधानों का होना स्वाभाविक है। महामहिम राष्ट्रपति भारत की संविधान प्रमुख हैं। सुप्रीम कोर्ट संविधान का रक्षक है।

चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎ को चुनाव आयोग के वेबसाइट पर सार्वजनिक करने के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट से परामर्श के लिए महामहिम राष्ट्रपति का जो भी फैसला होगा वह सब को मानना होगा। दान कर्ताओं की ‘गोपनीयता’ की रक्षा के नाम पर आम नागरिकों के सूचना प्राप्त करने के अधिकार को रोकने के लिए संविधान प्रमुख और संविधान रक्षक को आमने-सामने कर देने में सुप्रीम कोर्ट के बार एसोशियेसन के अध्यक्ष का क्या स्वार्थ हो सकता है? समझना बहु मुश्किल तो नहीं है।

ध्यान देने की बात है कि चुनावी चंदा (Electoral Bonds) को चुनाव आयोग के वेबसाइट पर सार्वजनिक ‎करना सरकार नहीं चाहती है। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इसे असंवैधानिक करार दिये जाने के साथ ही सरकार से जिस सकारात्मक रुख की उम्मीद लोगों को थी, उसका कहीं कोई अता-पता नहीं दिखा है। सरकार इसलिए इसे सार्वजनिक नहीं करना चाहती है कि सतरू (सत्तारूढ़) पक्ष, भारतीय जनता पार्टी को ही सबसे अधिक चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎ मिला है। इस मिलने में मिली-भगत (Quid Pro Quo) की भी आशंकाएं निर्मूल नहीं है। ऐसा लगना अस्वाभाविक नहीं है कि सरकार हर हाल में आम चुनाव 2024 के संपन्न होने से पहले इसे सार्वजनिक होने से रोकने की कोशिश करेगी। मतदाताओं की नजर इस पर लगी हुई है।

भारतीय जनता पार्टी इस आम चुनाव में चाहे जैसे भी हो ‘चार सौ पार’ पहुंचना चाहती है। सके लिए कुछ भी करने से उसे परहेज नहीं है। अभी जिस ढंग से मनोहर लाल खट्टर सरकार की विदाई हुई उसके राजनीतिक और लोकतांत्रिक संकेत अच्छे नहीं हैं। एक दिन पहले अपने उद्बोधन में प्रधानमंत्री मनोहर लाल खट्टर से अपने पुराने संबंधों को याद करते हुए भावुक हो गए थे, उस भावुकता में छिपे दर्द को तत्काल पहचान पाना बहुत मुश्किल था, लेकिन मनोहर लाल खट्टर की मुख्यमंत्री पद से विदाई के बाद उस भावुकता में छिपे दर्द को ‎समझ पाना बहुत मुश्किल नहीं है।

इस बीच एक-दो दिन में केंद्रीय चुनाव आयोग में दो-दो आयुक्तों की नियुक्ति होनी है। 2024 के आम चुनाव की अधिसूचना जारी होनी है। चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎ के चुनाव आयोग के वेबसाइट पर सार्वजनिक होने की उम्मीद है। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (Citizenship (Amendment) Act, 2019)‎ पर भी कुछ-न-कुछ हलचल की संभावना है। पिछले दिनो प्रधानमंत्री की अरुणाचल यात्रा पर चीन के रुख और भारत सरकार की प्रतिक्रिया की सनसनी के भी सतह पर आने की, क्षीण ही सही, स्थिति बन सकती है। भारत के इतिहास में यह सप्ताह बहुत महत्वपूर्ण ढंग से दर्ज होगा। मुख्य-धारा की मीडिया, खासकर तरंगी मीडिया की भूमिका के बारे में तो कुछ अलग से कहने की जरूरत नहीं है!

ऐसे समय में आम मतदाताओं को बहुत ही सजग होकर अपना मन और मत बनाना होगा। अपने मत की ताकत ‘मतबल’ को समझना होगा। वर्चस्वशील प्रक्रिया की बहलाने, फुसलाने, रिझाने, लुभाने के किसी भी आकर्षक कपट और विषाक्त हितैषिता की फांस से अपनी सहज बुद्धिमत्ता (Common Sense) के सहारे बचते हुए अपने ‎‘मतबल’ को समझना होगा। जी फिर से कहूं, सहज बुद्धिमत्ता के सहारे विषाक्त हितैषिता ‎ की ‎फांस से ‎‎‘मतबल’ ‎को बाहर रखना जरूरी है। अंततः और प्रथमतः भी,‎ लोकतंत्र का सारा दारोमदार आम मतदाताओं पर निर्भर करता है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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