बचा-खुचा लंगड़ा लोकतंत्र भी हो गया दफ्न!

आह, अंततः लोकतंत्र बेचारा चल बसा। लगभग सत्तर साल पहले पैदा हुआ था, बल्कि पैदा भी क्या हुआ था। जैसे-तैसे, खींच-खांच कर बाहर निकाला गया था। अविकसित, अपूर्ण, रुग्ण। उम्मीद थी कि एक बार जैसे-तैसे बाहर आ जाएगा और ठीक से देख-रेख होगी तो बाकी रह गया विकास भी पूर्ण हो जाएगा और हमारा लोकतंत्र भी एक दिन बांका गबरू जवान बन जाएगा। अफसोस, वह दिन देखना बदा नहीं हुआ। किसी शायर ने ठीक ही कहा था,
हमें तो अपनों ने लूटा, ग़ैरों में कहां दम था
मेरी कश्ती वहां डूबी, जहां पानी कम था

तो जिन्हें हम गैर समझते थे वे तो चले गए, और जो डॉक्टर लंबे अरसे से दावा कर रहे थे कि चिंता की कोई बात नहीं है, अभी सर्वांगसम्पन्न होने या पूर्ण विकसित होने का मुद्दा मुल्तवी करिए नहीं तो गैर लोग इसका फायदा उठाएंगे। घर की बात घर में ही रहनी चाहिए।

एक बार उन्हें चले जाने दीजिए फिर हम सब ठीक कर लेंगे। उन्हीं घरेलू डॉक्टरों के हाथों, “घर की बात घर में ही रहनी चाहिए” कहे जाने वाले अन्य सभी मुद्दों की तरह ही हमारा लोकतंत्र भी घरेलू हिंसा का शिकार हो गया।

पैदा होने के साथ ही हमारा यह बेचारा लोकतंत्र किसी भी आत्मीयता और प्यार से महरूम एक अनचाही चीज बनकर रह गया। सभी उससे अपना काम निकालते रहे और उसके बाद उसे दुरदुराते रहे। फुटबॉल की तरह किक मारकर सभी इसे दूसरे के पाले में देखना चाहते थे।

जिन्हें इसे विकसित करना था, वे इसके साथ खेलते रहे, और मन भर जाने के बाद इसे गाली देते और दुतकारते भी रहे। जो लोग इसे कुचलते थे, वही अपने विरोधियों को इसी का नाम लेकर जलील भी करते थे कि उन्होंने इसका ख्याल नहीं रखा।

इसके प्रसव से पूर्व जिन अंगों का विकास नहीं हुआ था, और जिनके लिए आश्वासन दिया गया था कि प्रसव के बाद अच्छी देखरेख और पालन-पोषण से सारी चीजें ठीक हो जाएंगी, उन अंगों का विकसित होना तो दूर, खराब देखरेख, कुपोषण और उपेक्षा के परिणाम स्वरूप हमारा लोकतंत्र दिन-ब-दिन रक्ताल्पता का शिकार होता गया।

एक बार तो इसे खुलेआम फन्दे से लटका दिया गया था। (हालांकि जैसे अभी भी इस शोध के नतीजे आने बाकी हैं कि झटके से की गई हत्या ज्यादा श्रेयस्कर होती है कि धीरे-धीरे जिबह करके की गई हत्या, इसी तरह से इस मामले में भी अभी तक सर्वमान्य सत्य का पता लगाया जाना बाकी है कि एक ही बार में फंदे से लटका कर मारना किसी को मारने का सर्वश्रेष्ठ तरीका होता है कि रोज-रोज किश्तों में मारना।)।

तो खैर उस समय बहुत हो-हल्ला हुआ। हमारे लोकतंत्र की काफी इज्जत बढ़ गई। इसके नाम की दुहाई दी जाने लगी। इसके नाम की कसमें खाई जाने लगीं। फंदे पर लटकाने वालों को उनके विरोधियों ने खूब खरी-खोटी सुनाई।

चीख-चीख कर कहने लगे कि तुमसे अगर नहीं सम्हल पा रहा है तो हमें सौंप दो। लोकतंत्र की देख-रेख तुम्हारे बूते की बात नहीं है। उन्होंने अभियान चलाया। रायशुमारी की और अन्ततः लोकतंत्र को फंदे से उतार कर अपने पास ले गए।

धीरे-धीरे यह बात पता चल गई कि उनको भी लोकतंत्र को मारने पर आपत्ति नहीं थी, केवल मारने के तरीके से दिक्कत थी। खैर, फंदे से उतारने के बाद देखा गया कि अभी भी धुकधुकी चल रही थी, अतः जश्न मनाया गया कि आखिरकार इसे मारने के हक से हम भी वंचित नहीं रहे।

यों तो इसे मारने का पांच-साला जलसा इसकी पैदाइश के बाद से ही मनाया जा रहा है, जिसमें इसमें जान डालने का स्वांग रचा जाता है। कभी-कभार पांच साल के बीच में भी ऐसे आयोजन किए जाते रहे हैं। सभी प्रदेशों में भी इस जलसे के आयोजन किए जाते हैं।

इसकी तैयारियां सालों-साल चलती रहती हैं। लोगों को भूखा, नंगा, बेरोजगार और जरुरी सहूलियतों से महरूम रखकर तपस्या कराई जाती है। उनसे एक-दूसरे के खिलाफ चुगली की जाती है। भड़काया जाता है। एक-दूसरे के खिलाफ जहर भरा जाता है। उनकी एकता को तोड़ा जाता है।

आपसी भाईचारे की भावना को लहूलुहान किया जाता है। फिर जो सहूलियतें लोगों का हक हैं। उन्हीं के कुछ टुकड़े भीख की तरह दिखाकर उन्हें ललचा कर लोकतंत्र के जिंदा और स्वस्थ होने की झूठी गवाही दिलवाई जाती है।

इस पूरे स्वांग के दौरान जर्जर काया वाले इस लोकतंत्र को घसीटकर, रगेदकर, धूलधूसरित करके इसकी जीवनीशक्ति की परीक्षा ली जाती रहती है। प्रदर्शन और घोषणाएं लगातार की जाती रहती हैं कि देखो, इसकी कराहें और चीखें इस बात का सुबूत हैं कि अभी तक यह मरा नहीं है।

इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि लोकतंत्र की धुकधुकी जरूर चलती रहे, क्योंकि कुछ जलसे हर साल होते हैं। इनमें इसकी मौजूदगी जरूरी होती है। जैसे कि इसका जन्मदिन, जोकि जबर्दस्त धूमधाम से मनाया जाता है। उस दिन खासी तड़क-भड़क और गाजे-बाजे का माहौल रहता है।

इसकी काया पर रंग-रोगन करके और रंग-बिरंगे परिधानों से इसकी रुग्णता को ढक दिया जाता है और इसे पूरी ताकीद दी गई रहती है कि बिल्कुल तन कर बैठा रहे, ताकि पूरी दुनिया में संदेश जाए कि हमारा लोकतंत्र बिल्कुल स्वस्थ, हट्ठा-कट्ठा और गबरू जवान है। यह अभिनय वह बखूबी कर भी लेता है। या यूं कहें कि इससे जबरन करा लिया जाता है।

पैदा होने के साथ ही इसे एक कुर्सी पर लेटाया गया था, लेकिन इसकी दयनीय हालत को देखते हुए इसकी कुर्सी को ही तान-तून कर चारपाई की शक्ल दे दिया गया। उम्मीद थी कि इस चारपाई के चारों पायों में से अगर एक कमजोर पड़ेगा तो शेष तीनों पाए इसकी जिम्मेदारी सम्भाल लेंगे। हुआ यह कि चारों पाये एकजुट होकर खुद इसी को नुकसान पहुंचाने लगे।

हुआ यह कि सभी पायों के बीच एक दुरभिसंधि हो गई। वे आपस में मिलकर लोकतंत्र के खिलाफ काम करने लगे। जिस पाये की जिम्मेदारी इसकी रुग्णता को दूर करने और इसे पुरानी बीमारियों से निजात दिलाने की थी, उसने पूरी कोशिश की ताकि पुरानी बीमारियां बदस्तूर कायम रहें।

और तो और उसने व्यापारियों के साथ मिलकर बाकायदा लोकतंत्र के अंगों का अवैध व्यापार शुरू कर दिया। कभी इसका खून निकाल कर बेच दिया। तो कभी किडनी निकाल कर बेच दी। दूसरे पाये को लोकतंत्र की रक्षा करनी थी तो वह पहले पाये का लठैत बन बैठा।

तीसरे पाये को सभी पायों के कामों के सही-गलत का मूल्यांकन करना था तो वह पहले पाये के साथ अपना भविष्य सेट करने में लग गया। चौथे पाये की जिम्मेदारी थी लोकतंत्र के पक्ष में आवाज उठाने की तो वह लोकतंत्र के ही खिलाफ आवाज उठाने लगा।

कुल मिलाकर, लोकतंत्र के सभी पायों को दीमकें चाट गई थीं, जिससे उसकी चारपाई जमीन से सट गई थी, फिर भी, अब भी इसे चारपाई ही कहा जाता है। वह लंबे समय से अपनी इसी जर्जर चारपाई पर कुपोषित, बीमार, निढाल, असहाय पड़ा रहता था।

इसी बीच पिछले साल कश्मीर नामक जगह पर उसके आखेट का नाटक खेला गया। इसमें उसे काफी चोटें आ गई थीं। उसका काफी खून बह गया। उसके बाद से तो उसने बोलना भी बंद कर दिया था। अपनी धंसी हुई आंखों से वह टुकुर-टुकुर बेबस निहारता रहता था।

अब सुनते हैं कि इसी पांच अगस्त को उसे अयोध्या नामक किसी जगह पर, जमीन से काफी नीचे, टाइम कैप्सूल नाम की किसी चीज के साथ जिंदा दफन कर दिया गया है।

पता नहीं क्यों मन नहीं मान रहा कि वह हमेशा के लिए खत्म हो गया है। लगता है कि इस देश के सभी दबे-कुचले लोगों की तरह ही वह भी बेहद सख्तजान और चीमड़ है। उसकी जीवनीशक्ति काफी मजबूत है। मन कहता है कि एक दिन वह उगेगा जरूर।

शायद इस बार पूर्णविकसित होकर उगेगा और इन्हीं दबे-कुचले लोगों के साथ मिलकर अपना मानमर्दन करने वालों से हिसाब लेगा और सबको अहसास कराएगा कि सबके लिए लोकतंत्र कितना जरूरी है।

  • शैलेश

(शैलेष स्वतंत्र लेखक हैं।)

Janchowk
Published by
Janchowk