अद्भुत है मोदीजी की ‘कष्ट-थिरैपी’!

बात कई दिन पुरानी है, लेकिन है झकझोर देने वाली सच्ची घटना। एक नौकरशाह ने प्रधानमंत्री की चाटुकारिता करते हुए, उनका सच्चा हमदर्द बनते हुए और उनके प्रति वफ़ादारी जताते हुए कहा कि ‘सर, प्रवासी मज़दूर बहुत तकलीफ़ में हैं। कहीं हमें इसका ख़ामियाज़ा न उठाना पड़ जाए।’

जवाब में मोदी ने कहा, ‘अरे छोड़ो! परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है। इस देश के लोगों को कष्ट सहने की आदत है। सदियों से कष्ट झेलते आये हैं। देखा नहीं कि लोग मन्दिरों में दर्शन के लिए कैसे-कैसे कष्ट झेलते हैं? जितना कष्ट झेलते हैं, उतनी ही उनकी श्रद्धा बढ़ती जाती है। इसलिए मस्त रहो, हमारा कुछ नहीं बिगड़ने वाला।’

इतना सुनकर सरकारी बाबू को तो चुप होना ही था। सो वो हो गया। लेकिन हफ़्ते भर पहले निजी बातचीत का ये प्रसंग मुझ तक पहुँचा। पहले तो फ़ोन पर ही मैं सन्न रह गया। अगले ही पल सहज हुआ तो अनायास मोदीजी की सूझ-बूझ का क़ायल हो गया। मुझे लगा कि इस आदमी को भारतीयों की मानसिकता की कितनी बुनियादी और व्यावहारिक समझ है! कई दिनों तक मैं मोदीजी की सूझ-बूझ की तुलना बीरबल और तेनालीराम के किस्सों से करता रहा। हमेशा अतीत की एक से एक ख़बरें मेरे दिमाग़ में कौंधने लगीं।

मैं याद करता गया कि सचमुच, जनता ने नोटबन्दी में कैसे-कैसे कष्ट झेले, तब वो इस मुग़ागते में भी रही कि उसके कष्ट से देश के बड़े कष्ट जैसे कालाधन, आतंकवाद, जाली-नोट वग़ैरह यदि मिट सकते हैं, रईसों को यदि तकलीफ़ झेलनी पड़ेगी तो फिर नोटबन्दी वाले कष्ट अच्छे हैं। इसके बाद व्यापारियों ने नोटबन्दी और जीएसटी की वजह से कैसे-कैसे कष्ट झेले, देश आर्थिक मन्दी की गर्त में धँसता चला गया, बेरोज़गारी और छँटनी, आम बातें बनने लगीं। किसानों की बदहाली, बैंकों की दुर्दशा, गिरता रुपया, बढ़ता पेट्रोल-डीज़ल का दाम, लोकतांत्रिक संस्थाओं और मीडिया के पतन की दशा किससे छिपी है। 

ऐसे तमाम राष्ट्रीय कष्टों से मोदी की लोकप्रियता पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ा। वो दिनों-दिन और मज़बूत तथा निरंकुश बनते चले गये। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से राम मन्दिर का सौदा करवा लिया, 370 को उखाड़ फेंका, ज़बरन CAA लाकर दिखा दिया। मतलब साफ़ है कि उनकी सत्ता और सरकार ने लोगों को जितना कष्ट दिया, उतना ही उनका यश-गान बढ़ता चला गया। परपीड़ा से पनपने वाले, फलने-फूलने वाले विश्व के चुनिन्दा राजनेताओं में नरेन्द्र मोदी का नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज़ हो चुका है।

अभी देश और इंसानियत के लिए सबसे बड़ी आफ़त बनकर कोरोना सामने आया, लेकिन जनता की नब्ज़ पकड़ने के महारथी मोदीजी ने इस आपदा को भी अपनी ब्रॉन्डिंग का इवेंट में बदल दिया। ताली-थाली वादन और अन्धेरा-दीया का खेल खेलकर मोदीजी ने दिखा दिया कि उन्हें इस देश के लोगों को अपने इशारे पर नचाना आता है। इसके बाद बिल गेट्स की संस्था से ख़ुद को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री भी घोषित करवा दिया। इस दौरान, PPE की किल्लत, टेस्टिंग का बेहद कम होना, वेंटिलेटर्स की किल्लत और टेस्ट-किट आयात घोटाला, जैसे तमाम मुद्दों ने सिर ज़रूर उठाया लेकिन अपने शानदार मीडिया मैनेज़मेंट से मोदीजी ने सबकी हवा निकाल दी।

दूरदर्शी मोदीजी काफ़ी पहले से जानते थे कि कोरोना से निपटने में भारत सरकार की बहुत छीछालेदर हो सकती है। इसीलिए ऐन वक़्त पर तबलीगी वाला बम फोड़ा गया। इसके बाद, देखते ही देखते पूरे उत्तर भारत में कट्टरवादी हिन्दुओं के बीच ये धारणाएँ बेहद गहराई से बिठा दी गयीं कि कोरोना के लिए मुसलमान दोषी हैं। हिन्दू-मुस्लिम के ऐसे खेल से मोदीजी और मज़बूत बनकर उभरे। उन्होंने और संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कोरोना को अधार्मिक कहने की फ़ुर्सत तब निकाली जब तक कि साम्प्रदायिकता वाला ज़हर देश के पूरे शरीर में फैल चुका था। इसकी वजह से कुछेक विश्व मंच पर भारत की किरकिरी भी हुई, लेकिन इसमें भी ऐसी जान नहीं थी कि मोदीजी के चेहरे पर शिकन भी आ सके।

कोरोना आपदा के दौरान ही मोदीजी ने कोटा के छात्रों की आड़ में नीतीश कुमार का भी अच्छा ख़ासा हिसाब कर दिया। बीजेपी शासित राज्यों ख़ासकर उत्तर प्रदेश और राजस्थान ने अपने प्रदेश के बच्चों को वहाँ से निकाल लिया। लेकिन नीतीश बाबू ‘दो तरह की नीतियों’ की दुहाई ही देते रहे। किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी। कोरोना का फ़ायदा उठाकर मोदीजी ने ममता दीदी को दिन में ही तारे दिखा दिये। मृतकों की संख्या घटाकर दिखाने की ममता सरकार की कोशिश का भांडा फूटते ही बीजेपी ने अपनी सियासत को चमका लिया। केरल के मुख्यमंत्री ने लॉकडाउन में ढील को लेकर ज़रा सी उदारता क्या दिखायी मोदी दरबार से ऐसी फटकार लगी कि होश ठिकाने आ गये।

प्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा का सारा ठीकरा भी बहुत ही चतुराई से नरेन्द्र भाई ने राज्यों के सिर पर ही फोड़ दिया। इसी तरह, दिल्ली में केजरीवाल और महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे को घुटनों पर बिठा रखा है, क्योंकि यहाँ कोरोना के आँकड़े लगातार भयावह होते जा रहे हैं। अभी समाज का हरेक अंग आर्थिक दिक्कतें झेल रहा है। ग़रीबों का कष्ट कहीं भारी है। सरकारी कर्मचारियों की भी तनख़्वाह काटी जा चुकी है। एक झटके में उनका डेढ़ साल का डीए डूब गया। हरेक बाबू को चपत लगी, लेकिन कष्ट सहने के अभ्यस्त लोगों की ओर से कोई प्रतिशोध सामने नहीं आया।

मोदीजी को पता है कि कम से कम डेढ़ साल से पहले तो देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटने से रही। इसीलिए सरकारी कर्मचारी और पेंशनर्स ने भी ख़ुद को लम्बे कष्ट के लिए तैयार कर लिया है। ये मोदीजी की ‘कष्ट-थिरैपी’ की सबसे बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि सरकारी कर्मचारियों वाला समाज का तबका हमेशा से ख़ुद को सबसे सुरक्षित समझता रहा है। इनकी हक़ीक़त भी ऐसी ही रही है। देश दल-दल में हो तो भी ये मौज़ में रहते थे। पिछली सरकारें हरेक उताव-चढ़ाव से अपने कर्मचारियों को अछूता रखती रही हैं। लेकिन ‘कोउ नृप होई हमै का हानि’ वाला ये तबका भी इतिहास में पहली बार असामान्य कष्ट झेलने वाला है।

मोदीजी को पता है कि जनता जितना कष्ट में रहेगी, उतना ही उनकी ओर तारणहार की तरह देखेगी। तारणहार, यानी भगवान। आम तौर पर लोग कष्टों को भगवान की मर्ज़ी ही समझते हैं। तभी तो भगवान से ही कष्टों को हरने की प्रार्थना करते रहते हैं। ईश्वर के विरोध या उसके ख़िलाफ़ बग़ावत का कोई रिवाज़ किसी भी मज़हब में नहीं है। ऐसे तत्व-ज्ञान के सबसे बड़े मर्मज्ञ मोदीजी ही हैं। जनता चाहे जितना कष्ट में रहे, वो निष्कंटक चक्रवर्ती बने रहेंगे।

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

मुकेश कुमार सिंह
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