ये कैसी आजादी और कैसा महोत्सव? जहां शिक्षा है न ही मूलभूत सुविधाएं

अगर हम आजादी का अमृत महोत्सव कार्यक्रम के आलोक में “हर घर तिरंगा” अभियान से फायदे की बात करें, तो मीडिया से आने वाली खबरें बताती हैं कि केन्द्र सरकार को 500 करोड़ रुपये से भी ज्यादा का लाभ हुआ है। 30 करोड़ से भी ज्यादा राष्ट्रीय झंडा तिरंगा की बिक्री हुई है।

वहीं जब हमने झारखंड में ‘हर घर तिरंगा’ के तहत बांटे जा रहे झंडा के बाबत राज्य के कई क्षेत्र के मुखियाओं से जानकारी चाहा कि यह झंडा किस फंड के तहत मिल रहा है? तब कइयों ने इस पर अनभिज्ञता जाहिर की। लगभग सभी ने बताया कि यह प्रखंड कार्यालय से मिला है, वहीं कई ने झंडा कम होने पर खुद के निजी स्तर से खरीदारी करने की बात बताई, तो किसी ने क्षेत्र के एनजीओ द्वारा भी सहयोग की बात बताई।

काफी लोगों से पूछे जाने के बाद यह बात सामने आई कि झारखंड सरकार ने झंडा, बैनर सहित कार्यक्रम की खरीदारी के लिए पंचायती राज विभाग झारखंड सरकार द्वारा मुखियाओं को अपने फंड से 2,500 रूपए, पंचायत समिति सदस्यों को 5,000 रूपए और जिला परिषद सदस्यों को 25,000 रूपए तक उक्त महोत्सव के लिए खर्च करने की छूट दी गई थी। लेकिन इस फंड के लिए ऑनलाइन की जटिल प्रक्रिया के कारण ज्यादातर मुखियाओं ने इसका इस्तेमाल नहीं किया। सभी ने बताया कि हमें यह निर्देश था कि लोगों को इसके लिए अधिक से अधिक प्रोत्साहित किया जाए ताकि लोग खुद से झंडा खरीदकर लगाएं।

इस बाबत पंचायत समिति सदस्यों और जिला परिषद सदस्यों ने अपने फंड का इस्तेमाल ज़रूर किया। लेकिन सभी ने इस बात को सार्वजनिक करने में काफी कोताही बरती है। किसी ने भी ग्रामीणों को हवा नहीं लगने दी कि उन्हें ‘हर घर तिरंगा’ के लिए कोई फंड भी रिलीज किया गया है। सभी ने लोगों को यही बताने की कोशिश की कि ‘हर घर तिरंगा’ कार्यक्रम के लिए बांटे जा रहे झंडे वे खुद से खरीदकर दे रहे हैं। तो कुछ ने क्षेत्र के एनजीओ से झंडे लिए, तो किसी ने समाज के कुछ कथित प्रबुद्ध लोगों को प्रोत्साहित किया।

वहीं जिला प्रशासन द्वारा शहर के बड़े व्यवसायियों और औद्योगिक क्षेत्र के उद्यमियों से बड़ी संख्या में झंडे लिए गए, जिसका कोई लेखा जोखा नहीं है। जाहिर है ऐसी परिस्थितियों में सरकारी कोष से करोड़ों का फर्जीवाड़ा की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है।

जब हम गांव की ओर चले, तो हमने सरकारी आदेश को सफल बनाने और अपना अस्तित्व बचाने में पंचायत के मुखियाओं सहित वार्ड सदस्यों को हर संभव कोशिश में लगा पाया।

हर घर तिरंगा लगाने के इस आपाधापी में राज्य के कई इलाकों में स्थानीय प्रशासन के कर्मियों द्वारा ग्रामीणों के बीच झंडा नहीं तो राशन नहीं का गैर सरकारी फरमान जारी कर दिया गया। गांव के कुछ लोग इस फरमान से डरे सहमे अपने-अपने घरों पर झंडा लगाए, तो कुछ को इसकी कोई चिन्ता नहीं रही जहां इन कर्मियों द्वारा खुद जाकर झंडा लगा दिया गया, जिसकी जानकारी भी इन्हें नहीं रही।

दुमका जिले के काठीकुंड प्रखण्ड के बिछिया पहाड़ी पंचायत का एक गांव है निझोर। यह गांव शिकारीपाड़ा विधान सभा क्षेत्र में आता है, जहां के वर्तमान विधायक नलिन सोरेन लगातार 7 बार से प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। सोरेन के घर से महज 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है यह गांव।

निझोर गांव में घरों की कुल संख्या 54 है, जिसमें 48 घर पहाड़िया आदिम आदिवासी परिवारों का है और शेष 6 घर संताल आदिवासियों का है।

इसी गांव के ठीक बीचों-बीच जोड़ा इमली के पेड़ के ठीक बगल में लोगों की बैठकी के लिए एक चबूतरा है। 12 अगस्त, 2022 को यहां पर गांव की महिलायें और कुछ युवा यूं ही बैठे गप्पे मार रहे थे। दूसरी तरफ गांव के बच्चे अपने पारम्परिक खेलों में मशगूल थे। बच्चों का कोई एक समूह पत्थर की गोटियां लेकर खेल रहा था, तो कोई समूह जमीन में लकीरें बनाकर कित-कित खेल रहा था। इसी बीच एक कमजोर कद काठी का पहाड़िया युवक पसीने से लथपथ साइकिल से वहां पहुंचता है। 

उसकी स्थिति देख सहज ही अंदाजा लग रहा था कि वह पहाड़ के ऊबड़ – खाबड़ रास्ते से साइकिल चलाकर आया है। उसकी साइकिल के पीछे कैरियर में भारत का राष्ट्रीय झंडा तिरंगा का एक बंडल बंधा हुआ था। वह उस क्षेत्र का वार्ड सदस्य सुनिराम हेम्ब्रम था। उसने बताया कि पंचायत के मुखिया ने ये झंडे दिए हैं, जिसे आज 13 अगस्त से अपने-अपने घरों में फहराना है। इससे ज्यादा उसे झंडे के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। 

जब इस गांव के लोगों से उनकी बुनियादी जरूरतें व सुविधाओं के बारे में बात की गई तो उन्होंने जो बताया उसके अनुसार इस गांव में पेयजल, सड़क, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं का आजादी के आज 75वें वर्ष और अलग राज्य गठन के 22वें वर्ष में भी घोर अभाव है।

ग्रामीणों ने बताया कि गांव में विगत तीन वर्ष पूर्व एक भव्य दिवाकालीन पहाड़िया प्राथमिक विद्यालय भवन बनकर तैयार है। डबल स्टोरीज बिल्डिंग की शक्लो – सूरत ये बयां कर रही थी कि यह करोड़ों की लागत से बनी पड़ी है l जिसमें वर्ग कक्ष, शिक्षक आवास एवं 300 छात्रों की क्षमता वाला छात्रावास है। छात्रावास निर्माण का कार्य अभी भी आधा-अधूरा पड़ा है। विद्यालय में सोलर वाटर टावर निर्मित है, लेकिन मोटर एक साल से ख़राब पड़ा है। स्कूल कैम्पस में और कोई दूसरा पेयजल का विकल्प नहीं है। शिक्षक आवास पूर्ण है किन्तु यहां रहने वाले शिक्षक नदारद हैं।

ग्रामीणों ने बताया कि यहां एक शिक्षक सुभाष सिंह नियुक्त हैं, जो कभी – कभी स्कूल आ जाते हैं। वे दुमका जिला मुख्यालय में ही रहते हैं।

गांव में शिक्षा का आलम यह है कि आज एक भी युवा अथवा युवती नहीं है जो मैट्रिक की पढ़ाई पूरी कर पाया हो। सरस्वती देवी जो इस गांव में बहु बनकर आई हैं वो नौवीं कक्षा पास हैं। इसी तरह चंदना देवी और विद्यानंद देहरी नौवीं कक्षा पास हैं। एक युवक रामधन देहरी आठवीं तक की पढ़ाई कर चुका है। अपने पिता की आकस्मिक मृत्यु के कारण वो आगे की पढ़ाई नहीं कर पाया।

गांव के सभी परिवार मेहनत, मजदूरी से गुजारा करते हैं। लेकिन रोजगार उपलब्ध कराने के मामले में प्रशासन ने पूरी तरह आँखें मूँद ली है। 

गांव के 61 परिवार मनरेगा में पंजीकृत हैं। लेकिन वर्तमान वित्तीय वर्ष में किसी एक को भी रोजगार नहीं मिला। इसके पहले वित्तीय वर्ष 2021-22 में सिर्फ 3 लोगों को 16 दिन का रोजगार मिला था। गांव के अधिकांश मजदूरों का कार्ड काठीकुंड निवासी व मनरेगा ठेकेदार राजू नाग के पास वर्षों से पड़ा है। परिवार चलाने के लिए युवक आज भी स्थानीय होटलों और हाट – बाजारों में साइकिल से लकड़ियाँ बेचने को विवश हैं, जिसके बदले उनको अधिकतम 220 तक रुपये मिल पाता है। जबकि मनरेगा में काम मिले तो अधिकांश लोग काम करने को तैयार हैं।

62 वर्षीय गांव के ग्राम प्रधान गोपाल कुंवर विगत डेढ़ वर्षों से लकवा बीमारी से ग्रसित हैं। लेकिन वह इलाज इसलिए नहीं करा पा रहे हैं, क्योंकि उनके पास इलाज के लिए पैसे नहीं हैं।

ऐसे बुनियादी साधनों के अभाव का दंश कोई अकेले निझोर गांव नहीं झेल रहा है, बल्कि संथालपरगना के सैकड़ों गांव ऐसे हैं जिन तक आज भी मूलभूत सुविधाएं नहीं पहुंच पाई हैं। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि, क्या हम हृदय से आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं या सिर्फ फील गुड करने का ढोंग कर रहे हैं?

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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