त्रिपुरा चुनाव: सीपीएम-कांग्रेस का अपरहैंड, बहुमत से दूर भाजपा!

अगरतला/दिल्ली। त्रिपुरा विधानसभा के लिए 16 फरवरी को वोटिंग हो गयी। मतदान तकरीबन 90 प्रतिशत रहा। जो पिछली बार के 89 फीसदी से कुछ ज्यादा ही है। हालांकि सूबे में हिंसा और आतंक का माहौल होने के चलते इसके कम होने की आशंका जताई जा रही थी। विपक्षी नेताओं का कहना था कि बीजेपी चुनाव के दिन हिंसा का सहारा लेकर मतदाताओं को बूथ तक पहुंचने से रोक सकती है। चुनाव के दिन कई जगहों पर हिंसा ज़रूर हुई लेकिन उसका ज्यादा असर मतदान पर नहीं दिखा। शायद इसके पीछे मतदाताओं की अपनी दावेदारी प्रमुख कारण रही हो जो कई रूपों में सामने भी आयी। एक जगह तो वोट डालने के लिए लोगों ने बाकायदा चक्का जाम कर दिया।

अनायास नहीं विपक्षी नेता बीजेपी सरकार पर सूबे में भय और आतंक का राज स्थापित करने का आरोप लगाते रहे हैं। चुनाव के दौरान की हिंसा को उसी की तार्किक परिणति के तौर पर देखा जा सकता है। हिंसा की ये घटनाएं सीपीएम दफ्तरों और उसके कैडरों तक ही सीमित नहीं थीं बल्कि वह लोगों के चेहरों पर भी देखी और पढ़ी जा सकती थीं। इन पंक्तियों के लेखक ने कुछ को चुनाव के दौरान अपनी खुली आंखों से देखा। उदयपुर स्थित माताबारी विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस प्रत्याशी के समर्थन में आयोजित एक रैली में यह बिल्कुल साफ तौर पर दिखी। जब रैली में आए हजारों लोगों को धता बताते हुए रैली स्थल के पास स्थित बीजेपी के चुनावी दफ्तर से लगातार हुल्लड़बाजी होती रही और नारे लगते रहे। और यह सब कुछ केंद्रीय सुरक्षा बलों की मौजूदगी में हो रहा था। 

यह भय लोगों में किस कदर समाया हुआ था उसकी बानगी कुछ यूं दिखी जब रैली खत्म होते ही मैदान से पांच मिनट के भीतर लोग अचानक गायब हो गए और इतना ही नहीं रैली से सटी सड़क पर कोई नहीं दिख रहा था। आमतौर पर ऐसी सभाओं में होता है कि लोग मैदान से धीरे-धीरे निकलते हैं। या फिर रास्ते में समूह बनाकर चलते हैं। लेकिन यहां लोगों को अपने वाहनों पर सवार होकर वहां से निकल जाने की जल्दी थी। यह उनके भीतर समाये भय और आतंक का ही नतीजा था जो इस रूप में सामने आया। सभा में मुख्य अतिथि के तौर पर आयीं सीपीएम की तेज-तर्रार युवा नेता मीनाक्षी मुखर्जी ने भी इस संवाददाता के साथ बातचीत में इस बात को बार-बार चिन्हित किया। उन्होंने कहा कि यह सरकार और उसकी पुलिस अपनी जिम्मेदारी को निभा ही नहीं रही है। उन्होंने मीडिया को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा कि इस मसले पर वह चुप है और सत्ता से कोई सवाल नहीं पूछ रही है।

पश्चिमी त्रिपुरा के मंडिया इलाके में इस हिंसा का जो रूप दिखा वह तो किसी भी जिंदा लोकतंत्र के लिए शर्मसार करने वाला था। यहां स्थित सीपीएम के दफ्तर पर बीजेपी और आईपीएफटी के कार्यकर्ताओं ने 2018 में संगठित हमला किया था। जिसमें उन्होंने न केवल दफ्तर में तोड़फोड़ की बल्कि उस पर अपना झंडा फहरा दिया। और इसी कड़ी में दफ्तर में मौजूद सारे जरूरी दस्तावेजों को फाड़ डाला। शौचालय के दरवाजों तक को नहीं बख्शा गया और उन्हें तोड़ डाला। इस घटना के बाद हिंसा का भय और आतंक इस स्तर का था कि स्थानीय कार्यकर्ता और नेता पांच सालों तक अपने दफ्तर नहीं जा सके। वह पूरी तरह से इस दौरान वीरान रहा। सीपीएम की स्थानीय कमेटी के सचिव ने बताया कि अभी जब चुनाव घोषित हुए हैं और स्थिति थोड़ी सामान्य हुई है तब दफ्तर आना-जाना शुरू हुआ। हालांकि इस दौरान अपने प्रत्याशी के समर्थन में सभा करने पहुंचीं पार्टी की पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात का दावा था कि बीजेपी के इस भय और आतंक के माहौल को जनता ने तोड़ दिया है। शायद वृंदा जानती थीं कि कार्यकर्ताओं के इस डर को तोड़ना कितना जरूरी है इसीलिए उन्होंने सभा करने से पहले मंडिया बाजार में एक जुलूस निकाला और उसकी अगुआई खुद की।

हिंसा और आतंक की यह कहानी अगरतला शहर के अरुंधति नगर में स्थित दफ्तर पर हमले का जिक्र किए बगैर पूरी नहीं होगी। यहां के स्थानीय पार्टी सचिव का कहना था कि उनके दफ्तर पर सात बार हमला हुआ। जिसमें बीजेपी के गुंडों ने न केवल दफ्तर में तोड़फोड़ की बल्कि पूरे दफ्तर को ही आग के हवाले कर दिया। सीलिंग पर मौजूद कालिख बीजेपी कार्यकर्ताओं की काली करतूतों की खुली बयानी कर रहे थे। यहां स्थित आलमारियों को भी उन्होंने तोड़ा और उसमें मौजूद जरूरी दस्तावेजों को आग के हवाले कर दिया। वाकया इसलिए और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह सूबे की राजधानी में घट रहा था। कोई एक बार या फिर दो बार घटित होता तो भी कोई बात थी लेकिन सात-सात बार हमला होना बताता है कि बीजेपी सत्ता सीपीएम के पूरे वजूद को ही खत्म करने पर आमादा थी। और यह कोई स्थानीय इकाई का निर्णय नहीं था बल्कि इसके पीछे ऊपरी दिशा-निर्देश या फिर कहिए हाई कमान का संरक्षण हासिल था। 

ये हमले, हिंसक वारदातें केवल पार्टी दफ्तरों और कार्यकर्ताओं तक ही सीमित नहीं थे। जनता भी इनके निशाने पर थी। बीजेपी शासन में अल्पसंख्यकों का जीना दूभर हो गया था। आदिवासी इलाकों में स्थित कई अल्पसंख्यक घरों पर बीजेपी और आईपीएफटी के कार्यकर्ताओं ने हमले किये। सदरपारा में स्थित सिद्दीक मियां का घर उसका जिंदा सबूत था। टीन के बने घर पर 2018 में रात करीब 8 बजे बीजेपी-आईपीएफटी के कार्यकर्ताओं ने हमला किया और न केवल टीन को क्षतिग्रस्त कर दिया बल्कि घर में मौजूद सारे सामानों को भी तहस-नहस कर डाला। हमलावरों के आने की सूचना मिलते ही पूरा परिवार अपनी जान बचाने के लिए जंगलों का रुख कर लिया। सिद्दीक मियां ने इस संवाददाता को बताया कि पूरे परिवार को तीन दिन जंगलों में काटना पड़ा।

दो बेटों और तीन पोते-पोतियों और महिलाओं के साथ सिद्दीक मियां के लिए इस दौरान खाना जुटाना सबसे बड़ी समस्या बना रहा। हालांकि उनका कहना था कि डिस्ट्रिक कौंसिल में तिपरा मोथा की जीत के बाद हालात बदले हैं। और अब उस तरह का आतंक नहीं है। आपको बता दें कि पश्चिमी त्रिपुरा जिले में ऑटोनामस डिस्ट्रिक कौंसिल है जो स्वायत्त तरीके से काम करती है। उसमें 2021 के चुनाव में तिपरा मोथा ने बहुमत हासिल किया है। लिहाजा स्थानीय स्तर पर उसका शासन चल रहा है जो अपने चरित्र में सेकुलर मानी जाती है। पार्टी चीफ प्रद्योत देबबर्मा से यह पूछे जाने पर कि बीजेपी के साथ उनके जाने पर अल्पसंख्यकों के सामने एक बार फिर से असुरक्षा का खतरा पैदा हो जाएगा, उनका कहना था कि उनके पुरखों ने मस्जिद बनायी थी और आज भी उनके महल में नमाज पढ़ी जाती है। और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा उनकी पहली जिम्मेदारी है।

बीजेपी-संघ के इस आतंक से कैंपस तक अछूते नहीं हैं। त्रिपुरा विश्वविद्यालय के दौरे में यह बात खुल कर सामने आयी। परिसर में घुसते ही विद्यार्थी परिषद के झंडे आपका स्वागत करते दिखते हैं। कैंपस में लोकतंत्र के बैरोमीटर के तौर पर जाने जाने वाले छात्रसंघ चुनाव पांच सालों से स्थगित हैं। सूबे में तीस साल तक शासन कर चुकी सीपीएम की छात्र इकाई एसएफआई का कहीं नामोनिशान तक नहीं दिखा। इस संवाददाता ने जब कुछ छात्रों से बात करने की कोशिश की तो कोई भी कैमरे के सामने आने के लिए तैयार नहीं हुआ। तकरीबन एक घंटे की मशक्कत के बाद एक सीनियर छात्र ने बात करवाने की जिम्मेदारी ज़रूर ली लेकिन वह कैफेटेरिया में जनचौक की टीम को फ्रेशर छात्रों के हवाले कर खुद वहां से गायब हो गया। उसका कहना था कि इस बीच उसके पास फोन आ गया था जिसमें उसे मीडिया से बात न करने की हिदायत दी गयी थी। अब अगर इस कदर कैंपस पर सत्ता का शिकंजा है तो समझा जा सकता है कि युवा मस्तिष्क लोकतंत्र के आक्सीजन में सांस लेने की जगह आतंक के साये में जी रहे हैं। 

अनायास नहीं विपक्षियों का कहना है कि पांचों साल बीजेपी केवल हिंसक हमले प्रायोजित कर सूबे की शांति भंग करती रही। इस दौरान त्रिपुरा में संविधान स्थगित रहा। पुलिस चुप रही या फिर मूक दर्शक बनी रही। और कहीं-कहीं तो उसने हिंसा में सहयोग किया। इस तरह से पूरी सरकारी मशीनरी जनता के विरुद्ध काम करती रही। नतीजतन 299 वादों के साथ आयी सरकार के 9 वादे भी पूरे नहीं हो पाए और आखिर में चुनाव से 9 महीने पहले अपनी सरकार के मुख्यमंत्री बिप्लब देब को बदल कर बीजेपी ने खुद ही अपने तरीके से इन आरोपों पर मुहर लगा दी। जिसको सीपीएम के नेता अब डबल इंजन नहीं बल्कि डबल ड्राइवर की सरकार कह रहे हैं।

विकास की दौड़ में त्रिपुरा बहुत पीछे खड़ा है। सूबे का दौरा करने के बाद कोई भी इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है। यह बात इसलिए और ज्यादा परेशान कर देती है जब वहां तकरीबन 35 सालों तक लेफ्ट का शासन रहा हो। यह बात अलग है कि अपनी सरकारों में ईमानदारी से पीडीएस का अनाज और आदिवासियों को पट्टे बांटने के जरिये उसने अपनी सत्ता बरकरार रखी। लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर तमाम जरूरी सुविधाओं की कसौटियों पर वह खरी नहीं उतरी। आदिवासी इलाकों में गरीबी चिल्ला-चिल्ला कर अपनी कहानी बयान कर रही थी। आम लोग खेती पर निर्भर हैं। लेकिन सिंचाई का कोई साधन न होने के चलते वह बिल्कुल कुदरती बारिश के भरोसे चलती है। आदिवासी इलाकों में पक्के घर बहुत कम हैं। आम तौर पर टीन के घर हैं या फिर खालिस मिट्टी के। और इन पंक्तियों के लेखक को बताया गया कि गर्मी में तापमान 40 से 42 डिग्री तक जाता है ऐसे में इन टीन के घरों में परिवारों की क्या स्थिति क्या होती होगी उसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। बहरहाल तिपरा मोथा शायद इन्हीं कारणों की पैदाइश है।

इसके पहले नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा जैसे कई उग्रवादी संगठन भी इन्हीं परिस्थितियों की उपज थे। लेकिन आदिवासियों ने लगता है कि अब अपनी लड़ाई लोकतांत्रिक तरीके से बढ़ाने का फैसला ले लिया है। और अब उन्होंने तिपरा मोथा के नेतृत्व में ग्रेटर तिपरालैंड के बैनर तले नई गोलबंदी शुरू कर दी है। दरअसल इस राज्य की कहानी भी कुछ अजीब है। 1881 में यहां आदिवासियों की आबादी का प्रतिशत 64 था। लेकिन उसके बाद जगह-जगह से माइग्रेशन और खास कर 47 के विभाजन और फिर 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के बाद यहां भारी तादाद में हिंदू बंगालियों का आना हुआ। जिससे पूरे सूबे की डेमोग्राफी बदल गयी। एक दौर में बहुमत का निर्माण करने वाले आदिवासी एकाएक अल्पसंख्यक बन गए। अब त्रिपुरा में 40 लाख की आबादी में 64 फीसदी बंगाली हैं और आदिवासियों की तादाद 30 फीसदी के आस-पास हो गयी है।

हालांकि उनके लिए विधानसभा में 20 सीटें आरक्षित हैं। लेकिन आदिवासियों और खासकर तिपरा मोथा के चीफ का कहना है कि यह तो पूरा सूबा ही आदिवासियों का है लिहाजा यहां की संपत्ति पर पहला अधिकार उनका बनता है। लेकिन उन्हें दोयम दर्जे में लाकर खड़ा कर दिया गया है। तिपरा मोथा की यह लाइन युवाओं को बहुत अपील कर रही है। इसीलिए आदिवासी इलाके में तिपरा मोथा के साथ भारी तादाद में युवा दिखे। एक जगह तो 250 से ज्यादा बाइकों पर सवार आदिवासी युवा जुलूस निकाल कर तिपरा मोथा का प्रचार कर रहे थे। 

अब अगर चुनावी समीकरणों और गणित की बात की जाए तो 2 मार्च को ईवीएम से क्या निकलेगा इसको लेकर पूरी अनिश्चितता है। पहले जो दो पक्षों, एक दौर में सीपीएम और कांग्रेस तथा बीजेपी के आने के बाद सीपीएम और बीजेपी के बीच चुनाव हुआ करता था। वह तस्वीर अब बदल गयी है। इस चुनाव में साफ तौर पर तिपरा मोथा न केवल एक कोण बनाता हुआ दिख रहा है बल्कि बेहद मजबूत है और सरकार के गठन में उसकी निर्णायक भूमिका हो सकती है। इस तरह से एक तरफ सीपीएम और कांग्रेस का गठबंधन है। दूसरी तरफ बीजेपी और आईपीएफटी का गठजोड़ है। जबकि तीसरा केंद्र तिपरा मोथा है। इसमें एक बात खुल कर कही जा रही है कि आईपीएफटी का अब आदिवासियों पर वह प्रभाव नहीं रहा जो पहले हुआ करता था।

वैसे भी बीजेपी के साथ समझौते में उसे केवल पांच सीटें मिली हैं। एक और सीट पर वह अपनी तरफ से लड़ रहा है। लिहाजा आदिवासियों के बीच तिपरा मोथा के वर्चस्व को देखते हुए कहा जा सकता है कि बीजेपी के सरकार बनाने का दारोमदार 40 सीटों पर निर्भर करता है। ऐसे में उसके लिए अपने बल पर बहुमत हासिल कर पाना बहुत मुश्किल है। पांच सालों की एंटी इंकबेंसी और विकास का कोई काम न कर पाने का ठप्पा उसके सिर पर ऊपर से लगा है। और इससे भी ज्यादा सूबे में यह माहौल बना है कि पार्टी ने सत्ता में रहते पहले की अमन और शांति को भंग किया है। 

ये सारी चीजें मिलकर चुनावी तस्वीर को पलट देती हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि यह वोट में कितना परिवतर्तित हो पाया है। हालांकि कुछ जगहों पर बातचीत में कुछ लोग ज़रूर यह कहते दिखे कि बीजेपी को एक और चांस दिया जाना चाहिए। इस बात में कोई शक नहीं कि 2018 में बीजेपी का सूबे में अपना कुछ नहीं था। उसने छाते से अपना मुख्यमंत्री उतारा था। और कांग्रेस से आधार छीन कर तीन दशकों की एंटी इंकबेंसी और दौलत की ताकत पर सीपीएम से सत्ता छीनी थी। लेकिन इस दौरान उसने सूबे में अपनी जमीन बना ली है। न केवल उसके पास अपना आधार है बल्कि उसका मुख्यमंत्री का चेहरा भी स्थानीय है। हालांकि पिछले लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी को 25 फीसदी वोट मिले थे। इस तरह से कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने अपने खोए आधार को फिर से पाने की कोशिश की है। लेकिन यह बात गौर करने वाली है कि उसकी प्रत्याशी तिपरा मोथा चीफ की मां थीं जिन्हें आदिवासियों के एक बड़े हिस्से का समर्थन हासिल था। 

सीपीएम ने 2018 में विधानसभा की 60 में 16 सीटें हासिल की थीं। सीपीएम के कुछ समर्थकों की मानें तो इस बार पार्टी 27 सीटें हासिल कर सकती है और कांग्रेस की 13 में अगर 4-5 आ जाती हैं तो सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन के लिए सरकार बनाना आसान हो जाएगा। लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है और यह गठबंधन एक दो-सीट भी बहुमत के आंकड़े से कम रहता है तो उसके लिए सरकार बनाना बेहद मुश्किल हो जाएगा। हालांकि ऐसे मौके पर तिपरा मोथा की भूमिका बेहद अहम हो जाएगी। प्रद्योत देबबर्मा ने इस संवाददाता से बातचीत में कहा कि उनके सारे विकल्प खुले हुए हैं और जो भी पार्टी उनकी मांगों को पूरा करने के लिए लिखित समझौता करेगी उसके साथ वह जाने के लिए तैयार रहेंगे। अब इस लाइन के साथ उनके सारे विकल्प खुल जाते हैं। हालांकि चुनाव बाद हंग असेंबली की स्थिति में पैसे की भूमिका बहुत बढ़ जाएगी। और इस मामले में बीजेपी किसी दूसरे के मुकाबले बहुत आगे है।

(जनचौक के फाउंडिंग एडिटर महेंद्र मिश्र की रिपोर्ट।)

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