‘स्मृति बची है, मित्र! सुरेश सलिल

कवि, अनुवादक और संपादक सुरेश सलिल का कल निधन हो गया। उन्नाव में जन्मे सुरेश सलिल को साहित्यिक अभिरुचि अपने घर में पिता की वजह से मिली। घर पर ही बचपन में उन्होंने ‘प्रताप’ सरीखे पत्र पढ़े और गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम से परिचित हुए, जिनकी रचनावली सम्पादित करने का भगीरथ काम उन्होंने आगे चलकर किया।

कुछ किताबें बरसों के इंतज़ार और मेहनत के बाद प्रकाशित होती हैं और पाठकों के हाथ में पहुंचती हैं। मगर ‘गणेश शंकर विद्यार्थी रचनावली’ के लिए तो सुरेश सलिल ने अपने जीवन का लगभग तीन दशक खपाया था।

पचास के दशक में जब सुरेश सलिल उन्नाव से कानपुर आए, तो उनकी साहित्यिक समझ का दायरा और विस्तृत हुआ। एक ओर जहां वे नारायण प्रसाद अरोड़ा और क्रांतिकारी सुरेश चंद्र भट्टाचार्य जैसे लोगों के निकट सम्पर्क में आए। वहीं वे गणेश शंकर विद्यार्थी के छोटे बेटे ओंकार शंकर विद्यार्थी के भी आत्मीय बने। कानपुर में ही वे असित रंजन चक्रवर्ती से जुड़े, जिन्होंने उन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी पर काम करने की प्रेरणा दी।

साठ के दशक के आख़िर में शुरू हुए नक्सलबाड़ी आंदोलन से भी वे गहरे प्रभावित हुए। इसी दौरान मंगलेश डबराल, त्रिनेत्र जोशी आदि के साथ उन्होंने हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ (एचएसआरए) के दस्तावेज़ों का संपादन किया, जो पुस्तक रूप में “मुक्ति” शीर्षक से प्रकाशित हुआ।

सत्तर के दशक में सुरेश सलिल ने बच्चों के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी के जीवन पर आधारित एक पुस्तक लिखी। जिसे पढ़कर ‘विशाल भारत’ के यशस्वी सम्पादक बनारसी दास चतुर्वेदी ने उनकी सराहना करते हुए उन्हें पत्र लिखा।

विद्यार्थी जी के छोटे बेटे ओंकार शंकर विद्यार्थी के निधन के बाद विद्यार्थी जी की रचनाओं को हासिल करना उनके लिए टेढ़ी खीर होता चला गया। मगर आर्थिक संसाधनों के अभाव और उपेक्षा की मार के बावजूद, अनगिनत ठोंकरें खाकर भी जिस लगन और प्रतिबद्धता के साथ सुरेश सलिल ने विद्यार्थी जी की रचनाओं को बरसों की मेहनत से इकट्ठा किया, और उन्हें संपादित किया, वह एक मिसाल है।

लाइब्रेरियों में फ़ोटोकॉपी जैसी सुविधाएं तब थीं नहीं, इसलिए ‘प्रताप’ की फ़ाइलों के हज़ारों पन्ने उन्होंने अपने हाथों से नक़ल किए। इस क्रम में उनके जो अनुभव हुए, वे ख़ुद एक मुकम्मल किताब का विषय हो सकते हैं। अपने एक साक्षात्कार में इन अनुभवों को उन्होंने साझा भी किया था। जिसमें वे बताते हैं कि कैसे विद्यार्थी जी की बेटी विमला विद्यार्थी के साथ जाकर उन्होंने कानपुर के एक कबाड़ी वाले से विद्यार्थी जी की जेल डायरी हासिल की थी।

आख़िरकार तीन दशकों की मेहनत के बाद यह रचनावली अनामिका प्रकाशन से छपी। इतना सब कुछ करने के बावजूद सुरेश जी को इस बात का मलाल था कि वे विक्टर ह्यूगो की कृति ‘ला मिज़रेबल’ के विद्यार्थी जी द्वारा किए गए हिंदी अनुवाद और उनकी कुछ अन्य कृतियों को नहीं ढूंढ सके।

ख़ुद सुरेश सलिल एक बेहतरीन कवि और अनुवादक थे। उन्होंने ग़ज़लें और नज़्में भी लिखीं। उन्होंने विश्व साहित्य से कविता-कहानियों के अनुवाद हिंदी में किए। जिसमें नाज़िम हिकमत, मिरोस्लाव होलुब, माग्नुस एंत्सेबर्गर जैसे कवियों की रचनाएं भी शामिल थीं। उन्होंने जापान के महाकवि मात्सुओ बाशो के यात्रा-वृत्तांत का भी अनुवाद किया, जो ‘उत्तर की यात्राएं’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। सुरेश जी की ये पंक्तियां उन्हीं की स्मृति में:

उभर-उभरकर आ रहे हैं

मन में अनगिन चित्र

बतलाना मुश्किल बहुत

कैसे हैं वे, मित्र !

हुए स्वप्नवत् आजकल

वे सब के सब चित्र

नदी भूमिगत हो गई

स्मृति बची है, मित्र !

(शुभनीत कौशिक के फेसबुक वाल से साभार)

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