भारत का संविधान सुप्रीम है, संसद नहीं: पूर्व जस्टिस एम बी लोकुर

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की टिप्पणियों के विरोध में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन बी लोकुर ने कहा कि भारत का संविधान सुप्रीम है। जस्टिस लोकुर ने एक इंटरव्यू में कहा कि भारत का संविधान सुप्रीम है। न्यायपालिका, कार्यपालिका, संसद सुप्रीम नहीं है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस गोविंद माथुर ने कहा है कि न्यायपालिका पर सरकार का हमला अपनी नाकामियों को छिपाने की कोशिश है।

लाइव ला के अनुसार दरअसल, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा था कि संसद सुप्रीम है। जस्टिस लोकुर ने कहा कि संविधान ने न्यायपालिका को यह जांचने का काम सौंपा है कि क्या कहीं विधायिका द्वारा बनाया कानून संविधान के विपरीत तो नहीं हैं या वे किसी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन तो नहीं करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 13 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो कानून मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, वे शून्य हैं, और यह न्यायपालिका उसकी जांच कर सकती है।

उपराष्ट्रपति धनखड़ साल 2015 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ तीखी आलोचना कर रहे हैं, जिसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को असंवैधानिक करार दिया था। धनखड़ के अनुसार, 99वें संविधान संशोधन के बाद से, जिसने एनजेएसी का मार्ग प्रशस्त किया, संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित किया गया था और राज्य विधानमंडलों के बहुमत द्वारा अनुमोदित किया गया था, सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द नहीं किया जा सकता था। उपराष्ट्रपति ने ‘मूल संरचना सिद्धांत’ पर भी सवाल उठाया जिसे एनजेएसी को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने लागू किया था।

जस्टिस लोकुर एनजेएसी का फैसला सुनाने वाली संविधान पीठ का भी हिस्सा थे। उन्होंने धनखड़ की टिप्पणियों का जवाब देते हुए कहा कि मैं एनजेएसी के फैसले के बारे में बहुत ज्यादा नहीं बोलना चाहता क्योंकि मैं भी फैसला सुनाने में से एक था। फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने तर्क दिया था कि संविधान में संशोधन ने संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन किया है। इस अर्थ में कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता छीनी जा रही थी या समझौता किया जा रहा था और इसलिए इसे असंवैधानिक घोषित किया गया था जैसा कि मैंने कहा, संविधान सर्वोच्च है।

जस्टिस लोकुर ने कहा कि किसी को एनजेएसी के फैसले की आलोचना करने का अधिकार है, लेकिन इस आधार पर फैसले पर सवाल उठाना कि संसद द्वारा सर्वसम्मति से कानून पारित किया गया था, सही दृष्टिकोण नहीं है। उन्होंने कहा कि क्या विधायिका ने इसे सर्वसम्मति से भारी बहुमत से पारित किया है या कम बहुमत से यह अप्रासंगिक है। अगर यह असंवैधानिक है, तो यह असंवैधानिक है। बस इतना ही। कौन तय करता है कि यह असंवैधानिक है या नहीं? यह न्यायपालिका द्वारा तय किया जाना है और न्यायपालिका ने ऐसा किया।

जस्टिस लोकुर ने कहा कि कोई कह सकता है कि निर्णय गलत है। ठीक है, आप अपने विचार रख सकते हैं। कुछ कह सकते हैं कि निर्णय सही है। यह भी बिल्कुल ठीक है। लेकिन यह न्यायपालिका को तय करना है कि क्या कोई विशेष कानून या संविधान में संशोधन बुनियादी ढांचे का उल्लंघन कर रहा है।

यह नोट करना भी प्रासंगिक है कि भारत के चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने हाल ही में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बुनियादी संरचना सिद्धांत का समर्थन किया था, जिस पर पहले उपराष्ट्रपति ने सवाल उठाया था। चीफ जस्टिस ने बुनियादी ढांचे के सिद्धांत को संविधान की व्याख्या का मार्गदर्शन करने वाला “नॉर्थ स्टार” कहा था।

नाकामी छिपाने की कोशिश

इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस गोविंद माथुर ने एक लेख में कहा है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार कहा था कि न्यायपालिका को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वह अपने मामलों को रेगुलेट करने के तरीके और जरिए तलाशे जो कि संविधान की मूल विचारधारा के अनुरूप है। लेकिन कुछ ही वक्त में यह सब कुछ बहुत जबरदस्त तरीके से बदला है, और भारत के संवैधानिक मूल्यों के एकदम विपरीत है।

अगर हम अपने हाल के इतिहास को देखें तो पाएंगे कि इससे पहले संविधान की समीक्षा की एक कोशिश तब हुई थी, जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली सरकार थी। लेकिन उस समय जनता के बीच माहौल ऐसा नहीं था कि संविधान की समीक्षा होनी चाहिए। पिछले दो दशकों में, खास तौर से पिछले आठ वर्षों में बड़े पैमाने पर लोगों को समझाया जा रहा है कि हमारे स्थापित संवैधानिक मूल्य कथित रूप से असफल हैं।

वैसे इन मूल्यों और इन्हें सहेजने वाली संस्थाओं को ठेस पहुंचाने की बहुत कोशिशें की गई हैं। हालांकि हमारे संवैधानिक मूल्य बहुत गहरे हैं और पर्याप्त रूप से संरक्षित भी।

हमारी न्यायापालिका संविधान की सबसे ताकतवर पहरुआ है। अपने कई फैसलों में न्यायपालिका ने हमारी संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा की है और यह सुनिश्चित किया है कि यह सुचारू रूप से काम करती रहे।

हमारे संविधान की बुनियादी संरचना की अवधारणा, जैसा कि बुनियादी संरचना के सिद्धांत में कहा गया है, उसे एक मजबूत कवच प्रदान करती है, जिससे कोई उसे कमजोर न कर सके। लेकिन बहुसंख्यकवादी राजनीतिक दलों को न्यायपालिका की क्षमता, और उसने हमारे धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों की रक्षा के लिए जो अवधारणाएं विकसित की हैं, वे सब रुकावटें लगती हैं।

इन राजनैतिक दलों को लगता है कि ये उनके मकसद को पूरा करने में अड़चनें पैदा कर रही हैं। इसलिए हर कोने से, हर तरीके से कार्यपालिका की असफलताओं के लिए न्यायपालिका को निशाना बनाया गया है और कुछ हद तक विधायिका की नाकामी के लिए भी।

पिछले हफ्ते भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने जयपुर में विधानमंडलों के पीठासीन अधिकारियों के एक सम्मेलन में जजों की नियुक्ति के तरीके की आलोचना की और बुनियादी संरचना की अवधारणा पर बुरी तरह हमला किया।

हैरानी की बात यह है कि सम्मेलन में मौजूद कई अन्य संवैधानिक पदाधिकारियों ने भी यही राग अलापा और कहा कि न्यायपालिका राष्ट्र के विकास के लिए जरूरी कानूनों को पेश करने और विकास कार्यक्रमों को लागू करने में बड़ी रुकावट हैं। दिलचस्प बात यह है कि सम्मेलन में न तो उपराष्ट्रपति, और न ही अन्य किसी व्यक्ति ने ऐसे किसी कानून या कार्यक्रम की तरफ इशारा किया।

अगर हम देश के सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स के पिछले एक दशक में फैसलों पर सरसरी निगाह डालेंगे तो पाएंगे कि न्यायपालिका ने पिछले आठ सालों में संसद के किसी ऐसे कानून को रद्द नहीं किया है जो जनता को ध्यान में रखकर बनाया गया था, सिवाय जजों की नियुक्ति से संबंधित कानून (एनजेएसी) को छोड़कर। इसके अलावा न्यायपालिका ने कुछ कानूनों के उन मामूली प्रावधानों को ही रद्द किया है जो साफ तौर से संविधान के विरोधी थे।

इसके अलावा न्यायपालिका के पास कानून की समीक्षा करने का संवैधानिक अधिकार होता है, अगर उसका टकराव मौलिक अधिकारों के साथ होता है, या अगर वह सुगढ़ तरीके से ड्राफ्ट नहीं किया गया है।

हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने भारतीय चीफ जस्टिस को चिट्ठी लिखकर कहा कि कोलेजियम में सरकारी प्रतिनिधियों को शामिल किया जाए (कोलेजियम जजों की नियुक्ति की सिफारिश करता है) । यह मेरी समझ से परे है कि यह सुझाव दिया ही क्यों गया है। जबकि वह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि जजों की नियुक्ति की प्रणाली सुप्रीम कोर्ट के ही फैसलों का नतीजा हैं, और चीफ जस्टिस इस संबंध में अपनी तरफ से कुछ नहीं कर सकते।

कानून मंत्री ने इस बारे में यह स्पष्टीकरण दिया है कि यह सुझाव एपेक्स कोर्ट के उस फैसले को ही आगे बढ़ाता है जिसमें नए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीज़र (एमओपी) की तरफदारी की गई थी। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि एमओपी को टुकड़ों में नहीं बनाया जा सकता, और वह भी इस तरह से एकाएक।

अगर कानून मंत्री सचमुच पूरा नया एमओपी बनाना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले यह बताना होगा कि इस संबंध में सरकार का पक्ष क्या है और वह नियुक्तियों की क्या प्रक्रिया बनाना चाहती है। उन्हें इस सिलसिले में गंभीर पहल करनी होगी। चूंकि एनजेएसी को तो पहले ही असंवैधानिक कहा जा चुका है (जिसे जरिए सरकारी दखल बनाने की कोशिश की गई थी)।

इसमें कोई शक नहीं कि कॉलेजियम सिस्टम में भी कमियां है और उन्हें दूर करने की जरूरत है। लेकिन इसके लिए सभी स्तरों पर गंभीर सोच-विचार की जरूरत है। इतना अहम काम, इतने लापरवाह तरीके से नहीं किया जा सकता। जयपुर सम्मेलन में वक्ताओं के शब्द, और कानून मंत्री की चिट्ठी, इनसे सिर्फ यह लगता है कि सरकार जजों की नियुक्ति के तरीके को अपने नियंत्रण में रखना चाहती है, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर असर पड़ सकता है।

(जेपी सिंह पत्रकार हैं एवं कानूनी मामलो के जानकार हैे।)

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