मंदिर वहीं बनाएंगे की जिद के चलते भारत और हिंदू समाज का बहुत नुकसान हुआ

“राम मंदिर आंदोलन से जुड़े नेताओं ने अगर जिद्दी रवैया न अपनाया होता तो अयोध्या में बहुत पहले मंदिर बन गया होता। लेकिन ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ की अविवेकपूर्ण जिद के चलते उसमें बहुत देरी हो गई। अगर बाबरी मस्जिद के ढांचे को ध्वस्त करे बगैर मंदिर बन जाता तो वह राम की मर्यादा और आदर्शों के अनुरूप होता। उससे देश में तो सद्भाव का वातावरण बनता ही साथ ही दुनिया भर में सिर्फ भारत की ही नहीं बल्कि हिंदू समाज की और हिंदुत्व की प्रतिष्ठा भी बढ़ती।”

यह कथन किसी कांग्रेसी, किसी वामपंथी या किसी मुस्लिम नेता का नहीं, बल्कि हिमाचल प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री और छह साल तक केंद्र सरकार में मंत्री रहे भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक नेताओं में से एक शांता कुमार का है। उन्होंने यह बात इन पंक्तियों के लेखक से साढ़े तीन साल पहले उस समय कही थी जब 5 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास किया था।

शांता कुमार इस समय 89 वर्ष के हैं और हिमाचल प्रदेश के पालनपुर में रहते हैं। भाजपा के दूसरे कई वरिष्ठ नेताओं की तरह उन्हें भी 22 जनवरी को अयोध्या आने का निमंत्रण नहीं दिया गया है। उन्होंने कहा कि अगर न्यौता मिलता तो भी वे अयोध्या नहीं जाते। हालांकि उन्होंने 22 जनवरी को होने वाले कार्यक्रम को लेकर प्रसन्नता व्यक्त की है, लेकिन शंकराचार्यों की ओर से इस आयोजन को लेकर उठाए जा रहे सवालों पर कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया।

बहुत कम लोगों को यह जानकारी है कि शांता कुमार भाजपा के उन चंद नेताओं में रहे हैं, जो यह चाहते थे कि बाबरी मस्जिद के ढांचे को जस का तस बनाए रखते हुए ही अयोध्या में राम मंदिर बनाया जाए। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की घटना को टालने के प्रयासों में जो भाजपा के जो नेता शामिल थे, उनमें राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री और बाद में उप राष्ट्रपति रहे भैरोंसिंह शेखावत के साथ शांता कुमार प्रमुख थे।

सवाल है कि करीब चार साल पहले आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर अयोध्या में बन रहे जिस राम मंदिर का आधी-अधूरी स्थिति में ही जो उद्घाटन और प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है, क्या यह सचमुच वैसा ही धार्मिक उपक्रम है, जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है? या कि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद की अगुवाई में भाजपा के एक वृहद राजनीतिक उपक्रम का हिस्सा है? इस सवाल का काफी कुछ जवाब शांता कुमार के उपरोक्त कथन में मिल जाता है।

दरअसल पिछले साढ़े तीन दशक के दौरान राम जन्मभूमि मंदिर के नाम पर समय-समय पर जितनी भी गतिविधियां चलाई गई हैं उनका स्वरूप, टाइमिंग और इस सिलसिले में मंदिर आंदोलन से जुड़े संघ और भाजपा नेताओं के बयानों को बारीकी से देखा जाए तो बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर बनाने की जिद शुद्ध रूप से संघ परिवार की राजनीतिक परियोजना का हिस्सा रही है।

इसी वजह से भाजपा ने 1989 से लेकर 2019 तक हर चुनाव में इस मुद्दे अपने घोषणा पत्र में इसे प्रमुखता से जगह दी और विश्व हिंदू परिषद भी हर चुनाव के वक्त इस मुद्दे को लेकर अपनी गतिविधियां तेज करती रही।

कुल मिलाकर जब से भाजपा के एजेंडे में राम मंदिर शामिल हुआ, तब से पार्टी की सफलता का ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ता गया। इस मुद्दे के सहारे भरपूर सफलता और 1998 में केंद्र की सत्ता हासिल कर लेने के बाद अपने सहयोगी दलों के दबाव में उसे करीब एक दशक तक इस मुद्दे को अपने एजेंडे से बाहर भी रखना पडा।

फिर 2009 के आम चुनाव तक यानी जब तक भाजपा की ओर से लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहे, तब तक यह मुद्दा हाशिए पर ही रहा। 2014 के चुनाव में भी इसकी कोई चर्चा नहीं हुई, क्योंकि नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा ने वह चुनाव विकास और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर लड़ा और जीता था। लेकिन 2019 के चुनाव में इस मुद्दे ने एक बार फिर भाजपा के एजेंडे में जगह बना ली।

बहरहाल अब यद्यपि मंदिर का निर्माण शुरू हो चुका है, लेकिन भाजपा के लिए मुद्दा अभी खत्म नहीं हुआ है। उसने इसे अब 2024 के चुनाव में भी भुनाने का तय किया है। यही वजह है कि मंदिर का दो तिहाई निर्माण कार्य बाकी होते हुए भी ऐन चुनाव के पहले वहां मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है।

इस सिलसिले में चारों प्रमुख शंकराचार्य और कई अन्य धर्माचार्य शास्त्रों का हवाला देकर कह रहे हैं कि अधूरे मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती है लेकिन उनकी आपत्ति को न सिर्फ नजरअंदाज किया जा रहा है बल्कि मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए उन पर तरह-तरह के आरोप लगवा कर उन्हें अपमानित भी कराया जा रहा है।

दरअसल अगर यह मामला विशुद्ध रूप से धार्मिक आस्था से जुड़ा होता तो और विश्व हिंदू परिषद की अगुवाई में संघ परिवार ने इसे उसी स्तर पर उठाया होता तो वहां राम मंदिर बहुत पहले ही बन गया होता। भारत के मुसलमान इतने तंगदिल भी नहीं हैं कि वे अपने हिंदू भाई-बहनों की धार्मिक इच्छा का सम्मान न कर सकें।

लेकिन हुआ यह कि जब से इस मुद्दे को स्थानीय स्तर से ऊपर लाया गया, तभी से इसे शक्ति प्रदर्शन का मामला बना दिया गया। संघ परिवार और भाजपा नेतृत्व की ओर से तो हमेशा यही जताया गया कि हमें किसी की अनुकम्पा से राम मंदिर नहीं चाहिए, वह जमीन तो हमारी ही है और हम उसे अपनी ताकत के बल पर लेकर रहेंगे।

बाद में इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने विरोधाभासों से भरा फैसला देकर भले ही मंदिर बनाने का रास्ता साफ कर दिया हो, मगर मंदिर आंदोलन से जुड़े संघ और भाजपा के नेता लंबे समय तक इस मामले में अदालत को भी चुनौती देते रहे।

दरअसल वे जानते थे कि इस मामले में कानूनी तौर पर उनका पक्ष बहुत कमजोर है, इसीलिए मंदिर मुद्दे को लेकर 1990 में सोमनाथ से अयोध्या तक टोयोटो रथ पर सवार होकर माहौल गरमाने के लिए भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने उस यात्रा के दौरान जगह-जगह कहा, ”यह हमारी आस्था से जुड़ा मामला है और आस्था से जुड़े मसले अदालत से हल नहीं होते हैं।’’

चूंकि कानूनी तौर पर मंदिर आंदोलन का पक्ष बेहद कमजोर था, इसीलिए भाजपा के कुछ नेता चाहते थे कि इस मसले का समाधान बातचीत से निकाल लिया जाए। इस सिलसिले में विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर ने भी प्रधानमंत्री रहते हुए प्रयास किए थे। चंद्रशेखर की सरकार के समय तो एक बार बातचीत समाधान के करीब भी पहुंच गई थी, लेकिन विश्व हिंदू परिषद और भाजपा के कुछ नेताओं की जिद की वजह से उस प्रयास को पलीता लग गया।

1991 में जब पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भी इस मसले को बातचीत के जरिए हल करना चाहा था और इस सिलसिले में उन्होंने भाजपा शासित राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्रियों भैरोंसिंह शेखावत और शांता कुमार के माध्यम से प्रयास किए थे। शेखावत इससे पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर की ओर से किए गए प्रयासों में भी शरीक रहे थे।

उन्हीं प्रयासों के बारे में शांता कुमार बताते हैं, ”1992 के नवंबर महीने में राम मंदिर का मुद्दा बहुत गरमा गया था। 6 दिसंबर को अयोध्या में कार सेवा की तैयारियां हो रही थीं। संभवत: वह नवंबर का दूसरा सप्ताह था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने मुझे और भैरोंसिंह शेखावत को यह कहते हुए दिल्ली बुलाया कि कुछ महत्वपूर्ण बात करना है। तय समय पर जब हम दोनों उनसे मिलने पहुंचे।

शांता कुमार ने बताया कि नरसिंहराव ने अयोध्या मुद्दे पर चर्चा शुरू की और बड़े भावुक अंदाज में हम से कहा, ”आप क्या यह समझते हैं कि मैं हिंदू नहीं हूं, मैं भी किसी से कम हिंदू नहीं हूं। मैं भी चाहता हूं कि अयोध्या में राम मंदिर बने, परंतु आपकी पार्टी उस विवाद की जगह पर ही मंदिर बनाने के लिए क्यों अड़ी हुई है? उस जगह को छोड़िए, वहां मंदिर बनाने के लिए और भी उपयुक्त जगह है, जितनी चाहिए उतनी ले लीजिए और भव्य मंदिर बनाइए। मैं भी आप लोगों के साथ रहूंगा। सब मिलकर भव्य मंदिर बनाएंगे। मंदिर बनाने में किसी भी तरह के संसाधन की कोई कमी नहीं होगी।”

शांता कुमार कहते हैं, “पता नहीं नरसिंहराव जी ने इस बारे में बातचीत के लिए हमें ही क्यों चुना, मगर यह सच है कि मैं और शेखावत जी, हम दोनों ही इस विचार के थे कि वहां मस्जिद का ढांचा ढहाए बगैर ही मंदिर बनना चाहिए। मुझे यह भी नहीं मालूम कि नरसिंहराव जी को यह जानकारी कैसे हुई कि हम इस तरह की राय रखते हैं। उन्होंने एक घंटे से भी ज्यादा समय तक हमसे इस बारे में बात की।..

.. उन्होंने हमसे कहा कि विवाद की उस जगह को छोड़ देने से पूरे देश में सद्भाव का वातावरण बनेगा और दुनिया भर में भारत की इज्जत भी बढ़ेगी। हम दोनों ने उनकी बातों से सहमति जताई। उन्होंने हमसे आग्रह किया कि वे इस संबंध भाजपा के अन्य मुख्यमंत्रियों तथा वाजपेयी जी और आडवाणी जी से भी बात करें और उन्हें राजी करें।”

शांता कुमार बताते हैं, “नरसिंह राव जी से बातचीत के बाद हमारे अनुरोध पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा दिल्ली आए। उन दोनों से हमारी बात हुई। वे भी हमसे सहमत दिखे। हम चारों मुख्यमंत्री सबसे पहले अटलजी के पास गए और नरसिंह राव के साथ हुई पूरी बातचीत का ब्योरा उन्हें दिया।..

.. अटलजी ने पूरी बात सुनने के बाद प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि अगर ऐसा होता है तो इससे अच्छी कोई बात हो ही नहीं सकती। लेकिन इसी के साथ व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ उन्होंने सवाल किया कि उनका क्या करोगे, जो कहते हैं कि कसम राम की खाते हैं.. उन्हें जाकर मनाओ। उन्होंने आडवाणी जी का नाम नहीं लिया था लेकिन उनका इशारा आडवाणी जी की ओर ही था।”

यह जाहिर हकीकत है कि 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के महज दो सीटों पर सिमट जाने के बाद संघ नेतृत्व के इशारे पर अटल बिहारी वाजपेयी को हाशिए पर डाल कर आडवाणी ने पार्टी के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिए थे। वे राम मंदिर मुद्दे को आक्रामक अंदाज में उठाकर संघ नेतृत्व के दुलारे बन चुके थे।

उनके उग्र तेवरों के चलते ही 1989 के चुनाव में भाजपा दो सांसदों से 90 सांसदों वाली पार्टी हो गई थी। आडवाणी की महत्वाकांक्षा अंगड़ाई लेने लगी थी। शांता कुमार भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि वाजपेयी आडवाणी के उग्र हिंदुत्ववादी तेवरों से खुश नहीं थे और इसी वजह से उनके और आडवाणी के बीच थोड़ा खिंचाव आ गया था।

बहरहाल, शांता कुमार बताते हैं, “हम चारों मुख्यमंत्री वाजपेयी जी के पास से उठकर सीधे आडवाणी जी के यहां पहुंचे। हमने उन्हें सारी बात बताई। वे निर्विकार भाव से हमारी बात सुनते रहे, जिससे हमें अहसास हुआ कि उन्हें हमारी बात अच्छी नहीं लग रही है। मुझे याद है कि बातचीत के दौरान शेखावत जी ने यह भी कहा था कि उस मस्जिद को राजनीतिक दृष्टि से भी बनाए रखना बहुत जरूरी है, ताकि आने वाली पीढ़ियां जान सकें और याद रख सकें कि विदेशी आक्रांताओं ने यहां मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई थी।..

.. मैं भी शेखावत जी की बात से सहमत था। मैंने भी उस बैठक में कहा कि 1948 के बाद उस मस्जिद में कभी नमाज अदा नहीं की गई है। उससे थोड़ी दूरी पर राम मंदिर बन जाने के बाद वह इमारत एक ढांचा मात्र रह जाएगी। हमारी पूरी बात सुनने के बाद आडवाणी जी ने सिर्फ इतना ही कहा कि आंदोलन अब बहुत आगे बढ़ चुका है। आडवाणी जी के यहां से उठकर हम चारों अपने-अपने प्रदेश लौट गए, लेकिन टेलीफोन के जरिए हमारी दूसरे नेताओं से बात होती रही, लेकिन ज्यादातर नेताओं को हमारी बात रुचिकर नहीं लगी।”

शांता कुमार के मुताबिक “जैसे-जैसे 6 दिसंबर की तारीख नजदीक आ रही थी, माहौल गरमाता जा रहा था। नरसिंहराव अपने प्रस्ताव पर प्रगति की जानकारी लेने के लिए मुझसे और शेखावत जी से भी संपर्क बनाए हुए थे और अटलजी से भी उनकी लंबी चर्चा हो चुकी थी। 6 दिसंबर 1992 के पहले भुवनेश्वर या बंगलुरू में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक थी। उस बैठक में हम चारों मुख्यमंत्रियों को भी शामिल होना था।..

.. कल्याण सिंह ने हम तीनों मुख्यमंत्रियों से अनुरोध किया कि हम बैठक शुरू होने से एक दिन पहले ही वहां पहुंच जाएं ताकि 6 दिसंबर के कार्यक्रम को लेकर कुछ जरूरी बात की जा सके। हम लोग जब वहां पहुंचे तो कल्याण सिंह ने कहा कि 6 दिसंबर को अयोध्या में हजारों की संख्या में कार सेवक जुटेंगे, जबकि मैंने उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया है कि बाबरी मस्जिद की हर कीमत पर रक्षा की जाएगी।..

.. उन्होंने कहा कि मैं बल प्रयोग करने के पक्ष में नहीं हूं लेकिन बल प्रयोग किए बगैर मस्जिद को बचाना भी मुश्किल है। उनकी बात से हमें भी लगा कि मस्जिद की रक्षा करना संभव नहीं हो पाएगा।”

शांता कुमार बताते हैं, “हम चारों मुख्यमंत्रियों के बीच लंबे विचार विमर्श के बाद यह तय हुआ कि कार्यसमिति की बैठक में भैरोंसिंह शेखावत इस मसले को उठाएं और कोई रास्ता निकाला जाए जिससे कि मस्जिद को भी बचाया जा सके और बल प्रयोग भी न करना पड़े। अगले दिन कार्यसमिति की बैठक शुरू हुई। बैठक में लगभग पूरे समय अयोध्या का मुद्दा ही छाया रहा। जय श्रीराम के नारों के साथ बैठक का माहौल ऐसा था कि किसी की हिम्मत नहीं हुई बात करने की।..

.. हम चारों मुख्यमंत्री आपस में एक दूसरे को इशारा करते रहे बोलने के लिए। जब बैठक खत्म होने का समय नजदीक आया तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उठ कर कहा कि हम अयोध्या में बड़ी संख्या में भीड़ तो जुटा रहे हैं लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में हम विपक्ष में नहीं, सत्ता में हैं, हमारी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया है कि मस्जिद की हिफाजत की जाएगी..

.. मेरे इतना कहते ही ‘बैठ जाइए-बैठ जाइए’ का शोर शुरू हो गया और उसी शोर गुल में बैठक समाप्ति की घोषणा कर दी गई। फिर 6 दिसंबर को जो कुछ हुआ उससे हमारी आशंका सही साबित हुई।”

शांता कुमार का कहना है, “यद्यपि अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से अयोध्या में मंदिर बनने जा रहा है, लेकिन मेरा आज भी यह मानना है कि 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद ध्वस्त करने से हिंदुत्व का कुछ भला नहीं हुआ है, उलटे बहुत नुकसान हुआ है। उस घटना के बाद देश भर में कई जगह दंगे हुए, सैकड़ों लोग मारे गए, भाजपा शासित चारों राज्यों की सरकारें असमय बर्खास्त कर दी गईं। इसके अलावा हिंदुओं पर मस्जिद तोड़ने का जो कलंक लगा, वह तो इतिहास में हमेशा अमिट ही रहना है।”

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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