भारत-चीन संबंध: दो रास्ते, दो संभावित परिणाम 

भारत की जनता आठ महीनों तक इस को बात को लेकर अंधेरे में रही कि पिछले साल नवंबर में इंडोनेशिया के बाली शहर में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच द्विपक्षीय वार्ता हुई थी। तब दोनों देशों के रिश्तों को सामान्य बनाने को लेकर उनके बीच कुछ ‘आम सहमतियां’ बनी थीं। 

बाली शिखर सम्मेलन के दौरान एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें शी से मिलने के लिए मोदी आगे बढ़ते नजर आए थे। तब इस बारे में भारत के विदेश सचिव विजय मोहन क्वात्रा से पत्रकारों ने पूछा था कि दोनों नेताओं के बीच क्या बातचीत हुई। इस पर क्वात्रा ने कहा था कि दोनों के बीच सिर्फ शुभकामनाओं का आदान-प्रदान हुआ। तब चीन ने भी यह नहीं बताया था कि दोनों नेताओं में सिर्फ शुभकामनाओं का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि बाकायदा द्विपक्षीय वार्ता हुई थी। 

चीन ने आठ महीने बाद इस तथ्य का खुलासा दक्षिण अफ्रीका में हुई ब्रिक्स (ब्राजील- रूस- भारत- चीन- दक्षिण अफ्रीका) के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक के बाद किया। इस बैठक के दौरान भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की चीन के प्रतिनिधि (और अब फिर से विदेश मंत्री बन चुके) वांग यी के साथ द्विपक्षीय वार्ता हुई। इसी के बारे में जानकारी देते हुए चीन के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी किया। उसमें कहा गया कि वांग ने डोभाल से कहा कि दोनों देशों को बाली में मोदी और शी के बीच बनी आम सहमति के आधार पर आगे बढ़ना चाहिए। आम सहमति यह थी कि भारत और चीन एक दूसरे के लिए खतरा नहीं हैं, बल्कि वे एक दूसरे के लिए विकास का अवसर हैं।

यह चौंकाने वाला खुलासा था। यह बयान जारी होने के एक दिन बाद जब मीडियाकर्मियों ने संपर्क किया, तो भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस बारे में कुछ भी कहने से इनकार किया। लेकिन उसके एक और दिन बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने यह स्वीकार कर लिया कि बाली में मोदी और शी के बीच दोनों देशों के रिश्तों को स्थिरता देने के प्रश्न पर आपसी वार्ता हुई थी।  

अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के मौकों पर विभिन्न देशों के नेता द्विपक्षीय वार्ता करते हैं। इसलिए मोदी और शी के बीच बाली में बातचीत हुई, तो उसमें छिपाने की कोई बात नहीं थी। लेकिन इस तथ्य को क्यों छिपाया गया, इसे हम आसानी से समझ सकते हैं। स्पष्टतः यह बात भारत में प्रचारित नैरेटिव के खिलाफ जाती है। इससे ‘लाल आंख दिखाने’, ’56 इंच के सीने’ और ‘घर में घुस कर मारने’ के जुमलों के आधार पर बनाए गए मोदी सरकार की ‘मर्दाना विदेश नीति’ के कथानक में सेंध लगती है। इससे यह संदेश जाता है कि चीन को घुटने टेकने पर मजबूर करने के बजाय भारत के प्रधानमंत्री बातचीत से रिश्तों में स्थिरता लाने की कोशिश में शामिल हुए।

बहरहाल, महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर चीन ने इस मौके पर इस तथ्य को सार्वजनिक करने का फैसला क्यों किया? गौरतलब है कि ठीक इसी मौके पर अरुणाचल प्रदेश के खिलाड़ियों को स्टैपल्ड वीजा देने की खबर भी सामने आई। ये खिलाड़ी यूनिवर्सिटीज गेम्स में भाग लेने के लिए चीन जाने वाले थे। लेकिन चीन ने उन्हें सामान्य वीजा नहीं दिया, जिसकी वजह से ऐन वक्त पर भारत को अपनी पूरी टीम को हवाई अड्डे से वापस बुलाना पड़ा।

तो सवाल यही है कि चीन के रुख में यह सख्ती क्यों आई है? साफ है कि उसने प्रधानमंत्री मोदी की ’56 इंच सीने वाली छवि’ के खिलाफ सूचनाएं जारी कर और स्टैपल्ड वीज देने जैसा कदम उठाकर उनके लिए असहज स्थिति पैदा करने की कोशिश की है। आलोचकों का कहना है कि ना सिर्फ चीन, बल्कि वे देश भी जिन्हें भारत का दोस्त समझा जाता है, उनके यहां यह धारणा बनी है कि मोदी सरकार  की विदेश नीति घरेलू सियासत के तकाजों से प्रेरित होती है। इसका प्रमुख मकसद प्रधानमंत्री की छवि का विशेष नैरेटिव बनाकर उसका चुनावी लाभ उठाना रहता है। चीन इस लिहाज से संभवतः पहला देश बना है, जिसने कूटनीतिक मकसदों के लिए वर्तमान सरकार की इस कथित कमजोरी का लाभ उठाने की कोशिश की है।

अनुमान लगाया जा सकता है कि चीन में ऐसी कोशिश की रणनीति जून में प्रधानमंत्री की हुई अमेरिका यात्रा के बाद बनाई गई होगी। इस यात्रा के दौरान अमेरिकी धुरी के साथ भारत की निकटता इस हद तक बन गई कि अमेरिकी नौसेना के लड़ाकू जहाजों को ‘मरम्मत’ के मकसद से भारतीय बंदरगाहों के इस्तेमाल की इजाजत मिल गई है। इससे एक तरह से चीन को घेरने की अमेरिकी रणनीति में भारत पूर्ण सहभागी बन गया है। 

इसके अलावा ‘शंघाई सहयोग संगठन’ (एससीओ) की हाल की शिखर बैठक को ‘वर्चुअल मोड’ में आयोजित करने का जिस तरह भारत ने एकतरफा निर्णय लिया, उस पर चीनी मीडिया में आक्रोश भरी प्रतिक्रिया देखने को मिली थी। ब्रिक्स के विस्तार और ब्रिक्स की अपनी करेंसी जारी करने के प्रश्न पर भी दोनों देशों में मतभेद की खबरें इन दिनों चर्चा में हैं। तो क्या इन घटनाक्रमों के बीच चीन अब भारत के साथ टकराव को और बढ़ाने के निष्कर्ष पर पहुंचा है? अगर ऐसा है, तो यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक नई और अति गंभीर चुनौती है।

इसलिए अब देश में इस पर खुलकर बहस होनी चाहिए कि इस चुनौती के मद्देनजर भारत की उपयुक्त रणनीति क्या होनी चाहिए? अगर भारत ने अमेरिकी धुरी का हिस्सा बनने का अंतिम निर्णय कर लिया है, तो बेशक उसे किसी भी स्थिति के लिए खुद को तैयार करना होगा, जिसमें युद्ध भी शामिल है। लेकिन एक दूसरा नजरिया वह है, जो प्रधानमंत्री मोदी ने बाली में अपनाया था। इस नजरिए में संबंधों को स्थिरता देने और आगे चलकर इसमें सुधार की संभावनाएं छिपी हुई हैं। 

भारत में इस समय जो माहौल उसमें भारत सरकार के लिए खुलकर इस नजरिए को अपनाना संभवतः सियासी फायदे के लिहाज से मुफीद ना हो। लेकिन देश के दीर्घकालिक हित में यही सही रास्ता है। इसलिए प्रधानमंत्री और मौजूदा सरकार को यह खुलकर बताना चाहिए कि बाली में क्या आम सहमति बनी थी और क्यों वही चीन के साथ रिश्तों को संभालने के मकसद से सही रास्ता है। यह मौका है, जब अयथार्थ छवि की कैद से वर्तमान सरकार बाहर निकले और भारतीय जनता के दीर्घकालिक हित में इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर देश को उचित नेतृत्व दे। उसे यह खुलकर कहना चाहिए कि मोदी ने शी से बात कर कोई गलत काम नहीं किया। ना ही यह किसी कमजोरी का परिचय देना था। बल्कि इसी नजरिए में भारत का व्यापक एवं दीर्घकालिक हित है।

ऐसा रुख ना अपनाने की बहुत महंगी कीमत भारत पहले ही अदा कर चुका है। इस संदर्भ में यह बात अवश्य याद रखनी चाहिए कि भारत और चीन के बीच तनाव का नया दौर 2019 के आखिरी महीनों में शुरू हुआ, जिसने 2020 के जून तक बेहद गंभीर रूप ले लिया, जब गलवान घाटी में दोनों देशों की सेनाओं में झड़प की घटना हुई थी। दोनों देशों के संबंधों में बढ़ते तनाव की मिसालें उसके कुछ समय पहले से दोनों देशों के बीच की वास्तविक नियंत्रण रेखा पर देखने को मिलने लगी थीं। वहां चीनी फौज की एक बार फिर से घुसपैठ हुई थी। अब यह आम जानकारी है कि चीनी सेना लद्दाख क्षेत्र में भारतीय सीमा में लगभग तीन से पांच किलोमीटर तक घुस आई और वहां अपना डेरा डाल दिया था। 

ये दीगर बात है कि इस तथ्य को भारत सरकार ने आज तक स्वीकार नहीं किया है। 15 जून 2020 को गलवान घाटी घटना के चार दिन बाद यानी 19 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। उसमें उन्होंने यह बयान देकर सबको चौंका दिया था कि भारतीय सीमा में ना कोई घुसा है, और ना कोई घुसा हुआ है। तब से आज तक भारत का आधिकारिक रुख यही बना हुआ है। लेकिन इस दौर में भारत सरकार की तरफ से यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि अगर कोई घुसपैठ नहीं हुई, तो फिर गलवान घाटी की घटना क्यों हुई, उसके बाद से दोनों देशों के सैन्य कमांडरों के बीच वार्ताओं के लगभग दो दर्जन दौर किसलिए हुए हैं, और भारत सरकार ने चीनी कंपनियों के निवेश को सीमित करने और चीन के सैकड़ों ऐप्स को प्रतिबंधित करने के कदम क्यों उठाए? 

विदेश मंत्री एस जयशंकर और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कई बार और अब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने भी यह कहा है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर की घटनाओं ने दोनों देशों के बीच भरोसे को क्षीण कर दिया है। लेकिन ये घटनाएं क्या हैं, इस बारे में कोई स्पष्ट वक्तव्य नहीं दिया गया है। अधिक से अधिक यह कहा गया है कि चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा के दूसरी तरफ सेना का जमाव कर रखा है और वहां स्थायी निर्माण किए हैं। लेकिन कोई देश अपनी सीमा के भीतर कुछ करता है, तो वह तो दो देशों के रिश्तों में तनाव और टकराव का कारण नहीं हो सकता। 

इस बीच मीडिया रिपोर्टों से लेकर लद्दाख के पुलिस अधिकारियों तक की रिपोर्ट में यह बताया गया है कि एलएसी पर चीनी फौज की घुसपैठ के बाद वहां कई स्थलों पर दोनों तरफ की फौजियों का आमना-सामना वहां हुआ। इनमें से कुछ जगहों पर चीन ने अपनी सेना वापस लौटाई, लेकिन साथ ही मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि चीन ने उस क्षेत्र में पांच किलोमीटर तक के बफर जोन बनाए, जहां पहले भारतीय सेना का नियंत्रण था। इस घटनाक्रम के कारण अब भारतीय गश्ती दल लगभग दो दर्जन ऐसी चौकियों पर जाने की स्थिति में नहीं हैं, जहां पहले गश्त लगाना उनकी सामान्य गतिविधि थी। 

भारतीय विश्लेषकों ने 2020 में यह ध्यान दिलाया था कि तब हुई घुसपैठ गुजरे वर्षों में हुई ऐसी ही घटनाओं से अलग है। यानी मामला सिर्फ किसी स्थानीय फौजी टुकड़ी की गलतफहमी का नहीं है, जिसकी वजह से अ-चिह्नित नियंत्रण रेखा को पहले फौजी टुकड़ियां पार कर जाती थीं। बल्कि इस बार मामला एक साथ अनेक जगहों पर घुसपैठ का था। इस बीच अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और उत्तराखंड से लगी सीमा के पास भी कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने तनाव को बढ़ाया। इससे संकेत यह ग्रहण किया गया कि तीन साल से जारी चीन की कार्रवाइयां ऊपरी निर्देशन और समन्वय के साथ की गई। 

साल 2017 में डोकलाम की घटना के बाद चीन के वुहान और फिर भारत के मल्लपुरम में प्रधानमंत्री मोदी और शी जिनपिंग के बीच अनौपचारिक शिखर वार्ता हुई थी। तब वुहान और मल्लपुरम “भावना” की खूब चर्चा हुई थी। उसे दोनों देशों के रिश्तों में सुधार के लिए दोनों तरफ स्वीकार्य मानदंड के रूप में पेश किया गया था। तो उसके तुरंत बाद आखिर हालात उस मुकाम पर क्यों पहुंच गए कि गलवान घाटी जैसी घटना हो गई? इस प्रश्न को समझने के लिए हमें उसके पहले के वर्षों में भारत की बदली नीतियों, प्राथमिकताओं और कुछ कदमों पर गौर करना होगा। 

भारत की विदेश नीति में अमेरिका के प्रति झुकाव बढ़ने की शुरुआत अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में ही हो गई थी, जिसे मनमोहन सिंह सरकार ने और आगे बढ़ाया। भारत-अमेरिका परमाणु करार डॉ. सिंह के दौर में भारत की विदेश नीति संबंधी बदलती प्राथमिकताओं की एक प्रमुख मिसाल बना। उससे चीन के साथ रिश्तों में नई पेचीदगी पैदा हुई। 

मगर डॉ. सिंह सरकार की विदेश नीति में रिक (रूस- भारत- चीन) और ब्रिक्स (ब्राजील- रूस- भारत- चीन- दक्षिण अफ्रीका) जैसे नए उभरे मंच भी प्राथमिकता में ऊपर थे। इसलिए उस दौर में वैदेशिक मामलों में एक संतुलन बना रहता था। इसीलिए तब कई जगहों पर घुसपैठ और टकराव के बावजूद हालात वैसे नहीं बिगड़े, जैसे नरेंद्र मोदी के शासनकाल में बिगड़ते चले गए हैं। 

मोदी सरकार की पिछले नौ साल की विदेश नीति में जो बात सबसे जाहिर है, वो अमेरिकी धुरी के साथ जुड़ने की उसकी चाहत और उसके किए गए दूरगामी फैसले हैं। इस दौर में भारत एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका- जापान- ऑस्ट्रेलिया की बनी त्रिपक्षीय धुरी के साथ भारत औपचारिक रूप से जुड़ा गया, जिसका परिणाम ‘क्वाड्रैंगुलर सिक्युरिटी डायलॉग’ (क्वैड) की स्थापना के रूप में सामने आया। यह निर्विवाद है कि इस धुरी का मकसद चीन के उदय को नियंत्रित करना रहा है। भारत इस धुरी के साथ सैनिक अभ्यास और खुफिया सूचनाएं साझा करने की तरफ बढ़ता चला गया है। भारत और अमेरिका के बीच हुए The Communications Compatibility and Security Agreement (COMCASA) का इस संदर्भ में खास उल्लेख किया जा सकता है। 

इसके पहले चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ (बीआरआई) परियोजना को लेकर भी बीते वर्षों में भारत और देशों में विवाद बढ़ा था। खासकर भारत की आपत्ति (जो वाजिब ही है) पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में इस परियोजना के तहत हो रहे निर्माण कार्यों को लेकर रही है। चीन-पाकिस्तान इकॉनोमिक कॉरिडोर के नाम से चर्चित इस पहल के तहत चीन ने पाकिस्तान में भारी निवेश किया है। भारत उचित ही इसे अपनी संप्रभुता का उल्लंघन मानता है, क्योंकि इस इलाके में चीन ने बिना भारत की सहमति के निवेश किया है। 

इन वजहों से पहले से ही टकराव और संदेह का शिकार रहे भारत-चीन रिश्तों में तनाव और बढ़ रहा था। इसी बीच पिछले वर्ष भारत ने जम्मू-कश्मीर से संबंधित धारा 370 को रद्द किया और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया। इसके बाद भारत ने अपना एक नया नक्शा जारी किया, जिसमें अक्साई चिन समेत उन तमाम इलाकों को दिखाया गया, जिन पर चीन दावा जताता रहा है और जो 1962 के युद्ध के बाद से चीन के कब्जे में हैं। अनेक अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों की इस राय में दम है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बने हालात के पीछे इस घटनाक्रम की प्रमुख भूमिका रही है। इसीलिए ये आशंका अब तक सच साबित हुई है कि तीन साल पहले पैदा हुआ तनाव शायद उस तरह खत्म ना हो, जैसा अतीत में चीनी घुसपैठ की घटनाओं के समय हुआ था।    

इस पहले सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट जैसी घटनाएं यह संदेश सारी दुनिया में भेज चुकी थीं कि ‘घर में घुसकर मारने की नीति’ के तहत भारत अंतरराष्ट्रीय सीमा का सम्मान नहीं करता। ये घटनाएं पाकिस्तान के मामले में हुई थीं, लेकिन उससे चीन सहित अन्य पड़ोसी देशों ने भी अपने ढंग से संदेश ग्रहण किए। 

अब मोदी सरकार के सामने चुनौती यह निर्णय लेने की है कि उसे इस नजरिए पर आगे बढ़ना है या बाली में प्रधानमंत्री ने जो रुख अपनाया, उस पर आगे चलना है। इन दोनों रास्तों के अपने-अपने संभावित परिणाम हैं।  

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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Rakesh vats
Rakesh vats
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8 months ago

बहुत अच्छा विश्लेषण है। गृहमंत्री अमित शाह द्वारा संसद में हुंकार लगाते हुए यह कहना कि हम अक्साई चिन ले कर रहेंगे ,ने भी आग में घी डालने का काम किया है। और वैसे भी मोदी, शाह की विदेश नीति वैसी ही है जैसी इन की अपने विरोधियों के प्रति है।किसी भी पड़ोसी देश के साथ इन्होंने अच्छे संबंध नहीं छोड़ें हैं।नेपाल, श्रीलंका , बांग्लादेश , अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान तो इन का प्रिय पंचिंग बैग है ही जिसे चुनाव आते ही ये पीटना शुरू कर देते हैं। अमरीका की गोद में बैठने का लालच मोदी को शुरू से ही रहा है ।
चीन के साथ संबंध ख़राब होने या करने में स्थितियों का कितना योगदान रहा है और इन की अपनी नीतियों का कितना , पड़ताल होनी चाहिए । अगर चीन से इसलिए बात यह नहीं कर रहे कि लद्दाख में चीन ने सेना जमा कर ली है और बफ़र ज़ोन पर सहमति नहीं बन पा रही तो चीन से कई सौ बिलियन डॉलर का सालाना आयात क्यों किया जा रहा है ? हिपोक्रेसी की भी हद होती है ।