डेरेक ओ ब्रायन का लेख: भारतीय सांसदों को अब संयुक्त राष्ट्र नहीं भेजा जा रहा, यह शर्म की बात है!

दस साल से अधिक समय बीत चुका है। वह भी 2012 का अक्टूबर महीना था। एक नवनिर्वाचित सांसद के रूप में, 67वें संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) सत्र में भाग लेने के लिए संसदीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनने के लिए मेरी पार्टी द्वारा मुझे चुने जाने का सौभाग्य मिला था। ऐसे सत्रों में प्रतिनिधिमंडल के सभी सदस्य भाग लेते हैं और भारत की ओर से बोलते हैं। ये सत्र समिति कक्षों में आयोजित किए जाते हैं, जो उस मुख्य हॉल के पास बड़े सम्मेलन कक्ष की तरह होते हैं, जहां ‘यूएनजीए’ की बैठक होती है।

हलांकि, एक खास परिस्थितिवश, और सौभाग्य से मुझे सूचित किया गया कि मुझे समिति कक्ष में बयान देने के अलावा, संयुक्त राष्ट्र महासभा को भी संबोधित करना है। मैंने वहां 22 अक्टूबर 2012 को संबोधित किया था। यह निश्चित रूप से मेरे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिनों में से एक था। मैंने लैंगिक समानता, शिशु मृत्यु दर, जलवायु परिवर्तन और गरीबी सहित कई विषयों पर अपनी बात रखी थी।

संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) की बैठक हर साल सितंबर और दिसंबर के बीच होती है। महासभा के निर्वाचित अध्यक्ष वैश्विक चिंता के किसी खास विषय पर चर्चा करने का सुझाव देते हैं। हर साल, वार्षिक सत्र को संबोधित करने वाली सभा का हिस्सा बनने के लिए एक भारतीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल को भी चुना जाता है।

ऐसा माना जाता है कि महासभा सत्र के पहले कुछ महीनों के दौरान भारतीय संसद के सदस्यों के एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल को न्यूयॉर्क भेजने की प्रथा हमारे पहले प्रधानमंत्री और अंतर्राष्ट्रीयता के प्रबल समर्थक जवाहरलाल नेहरू द्वारा शुरू की थी।

आम तौर पर, कोई भी अन्य देश अपने सांसदों को इन सत्रों में भेजने की इस प्रथा का पालन नहीं करता है। भारत के लिए, यह अपनी संसदीय क्षमता के सुदृढ़ीकरण और संयुक्त राष्ट्र के साथ अपने जुड़ाव की अभिव्यक्ति का एक अनूठा अवसर होता है, और साथ ही अपने युवा प्रतिनिधियों के कूटनीतिक दृष्टिकोण को जानने का भी अवसर होता है।

हाल के वर्षों में संसद के लिए चुने गए मेरे कई युवा सांसदों को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। इसमें उनकी कोई गलती नहीं। 2014 में भाजपा सरकार के सत्ता में आने के तुरंत बाद भारतीय संसदीय प्रतिनिधिमंडलों को संयुक्त राष्ट्र में भेजने की इस प्रथा को खत्म करना शुरू कर दिया गया। 2015 में एक प्रतिनिधिमंडल गया था। बाद के वर्षों में, यह परंपरा चुपचाप बंद कर दी गयी।

इस विषय पर मेरे साथी सांसदों का क्या कहना है:

पी.चिदंबरम: “सभी लोकतंत्रों में, कार्यपालिका और विधायिका शासन की जिम्मेदारी साझा करती हैं। इसीलिए संसदीय प्रतिनिधिमंडल भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने मंत्रियों के नेतृत्व वाले प्रतिनिधिमंडल। इस परंपरा को जारी रखते हुए, अपने पिछले 10 वर्षों के कार्यकाल में यूपीए सरकार ने हर साल संयुक्त राष्ट्र महासभा के वार्षिक सत्रों में सांसदों का एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजा।

मोदी जी के पहले कार्यकाल के दो वर्षों में एक प्रतिनिधिमंडल भेजा गया। मोदी जी के दूसरे कार्यकाल में यह प्रथा पूरी तरह से बंद कर दी गयी। यह मोदी सरकार की संसद और उसके महत्वपूर्ण कार्यों के प्रति घोर अवमानना ​​को दर्शाता है। हम जो देख रहे हैं वह एक व्यक्ति में सत्ता का केंद्रीकरण है। आने वाले समय में, सभी संस्थानों का अवमूल्यन किया जाएगा और उन्हें नष्ट कर दिया जाएगा।”

शशि थरूर: “यह एक उत्कृष्ट प्रथा थी जिसने भारत के लोकतंत्र को दुनिया के सामने प्रदर्शित किया। विभिन्न दलों के सांसदों के लिए भारत की नेमप्लेट के पीछे बैठना और राष्ट्र के लिए बोलना एक यादगार अवसर होता था कि भले ही घरेलू राजनीति में हमारे दृष्टिकोण अलग-अलग हों, हम विदेशों में राष्ट्रीय हित के अनुसरण में एक थे। भारत में एक लंबे समय से चला आ रहा सिद्धांत है कि हमारी दलीय राजनीतिक असहमति देश की सीमाओं तक पहुंचते ही रुक जाती है: विदेश में, हम पहले और हमेशा भारतीय हैं।

यही कारण है कि, संसदीय स्थायी समिति प्रणाली की शुरुआत से ही, विदेशी मामलों की समिति का अध्यक्ष हमेशा एक विपक्षी सांसद होता था, और यही कारण है कि विपक्षी सांसद हर साल संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधिमंडलों में प्रमुखता से शामिल होते थे। भाजपा ने दोनों प्रथाओं को छोड़ दिया। उन्होंने कई वर्षों से एक भी सांसद को नहीं भेजा है, और विदेशी मामलों की समिति की अध्यक्षता भी, 2019 से ही, अपनी ही पार्टी को दे दिया है। हमारी लोकतांत्रिक संस्कृति का पतन इतना आगे बढ़ चुका है।”

राम गोपाल यादव: “मैं भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में दो बार संयुक्त राष्ट्र जा चुका हूं- 2011 और 2015 में। वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की प्रथा को बंद कर देना, देश के भीतर आंतरिक रूप से जो कुछ घट रहा है, उसी का एक बाहरी प्रतिबिंब है। जो लोग इनके जैसा नहीं सोचते, उन लोगों से संवाद करने में इनके भीतर एक गहरा डर समाया रहता है। ‘यूएनजीए’ ऐसे बहुपक्षीय संवाद का सबसे बड़ा मंच है।

भाजपा द्वारा सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की भारतीय परंपरा को बंद करना भाजपा के तानाशाही मूल्यों को दर्शाता है। भाजपा के पास किसी अन्य राय के लिए कोई जगह नहीं है, न तो देश में, न ही विदेश में। जहां प्रधानमंत्री देश में प्रेस कॉन्फ्रेंस से बचते हैं, वहीं सरकार विदेश में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों से बचती है। संसदीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की इस प्रथा को बंद करना साफ-साफ यह दिखाता है कि वे अभिव्यक्ति और विचार की स्वतंत्रता से बचने के लिए किस हद तक जाने को तैयार हैं।”

प्रियंका चतुर्वेदी: “उस समय से जब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे, भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में शामिल होने और देश के करोड़ों लोगों के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करने के लिए संयुक्त राष्ट्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल भेजता रहा था। एक निर्वाचित प्रतिनिधि, विशेष रूप से विपक्ष के एक प्रतिनिधि, की इस स्तर पर भागीदारी, न केवल राष्ट्र को बल्कि एक स्वस्थ लोकतंत्र के आदर्शों को भी प्रोत्साहित करती है।”

मनोज कुमार झा: “विपक्ष के साथ बातचीत के सभी रास्ते बंद हो गए हैं। यह हमारी विदेश नीति में विच्छेद को भी दर्शाता है। यह भाजपा की अपनी परंपरा का भी उल्लंघन है। शायद, सरकार बहुपक्षवाद की अवधारणा को स्वीकार करने में बहुत ही संकटग्रस्त महसूस कर रही है। इसके अलावा, इस सरकार को लगता है कि बहुपक्षवाद की तुलना में द्विपक्षीय सहमतियां अधिक लाभदायक हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बारे में उनके सीमित दृष्टिकोण के कारण उनमें बहुपक्षवाद को समझने के लिए आवश्यक गहराई का अभाव है।”

बहरहाल, भारत से संसदीय प्रतिनिधिमंडल अब संयुक्त राष्ट्र में नहीं भेजे जा रहे हैं। यह बेहद शर्मनाक बात है।

(तृणमूल कांग्रेस नेता व राज्यसभा सांसद डेरेक ओ ब्रायन का लेख, ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार। अनुवाद- शैलेश)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments