बैंकों में पैसे डिपॉजिट करने के बजाय रिकॉर्ड कर्ज ले रहा है आम भारतीय


नई दिल्ली। वित्त वर्ष 2022-23 में भारत में घरेलू बचत पिछले 47 साल के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। वर्ष 2020-21 के दौरान जीडीपी की तुलना में घरेलू बचत 11.5 फीसदी थी, लेकिन 22-23 में यह 51 फीसदी के सबसे निचले स्तर पर आ चुकी है। जबकि पिछले वर्ष घरेलू बचत जीडीपी के अनुपात में 7.2% के स्तर पर बनी हुई थी। लेकिन जिस देश को विकासशील की श्रेणी में रखने के बावजूद दुनिया को अचंभा होता था कि आम भारतीय हर हाल में अपने खर्चों में कटौती कर बचत को प्राथमिकता देता है, वह आज कोविड-19 महामारी की विभीषिका को झेलने के बाद अचानक से अपनी बचत को ही खत्म करने पर क्यों तुला है?

भारत में कई महीनों तक करोड़ों लोगों का सहारा अमेरिकी, यूरोपीय या समाजवादी देशों की तरह आर्थिक सहायता या सब्सिडी नहीं, बल्कि गाढ़े वक्त के लिए बैंकों में जमा बचत राशि, बीमा राशि या जेवर थे, जिससे उसने खुद को और अपने परिवार को जीवित रखा। उसी इंसान को आज देश का वित्त मंत्रालय और आर्थिक विशेषज्ञ जब यह बताने लगें कि बैंकों में कम ब्याज की जगह अब लोग वाहन और अपने लिए घर खरीदने पर ध्यान दे रहे हैं, या स्टॉक मार्केट और म्यूच्यूअल फंड में निवेश को प्राथमिकता देने लगे हैं तो समझ लेना चाहिए कि कुछ तो है, जिसकी पर्दादारी की जा रही है।

वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान शुद्ध घरेलू बचत में करीब-करीब 55.1% की गिरावट के साथ जीडीपी के अनुपात में यह 5.1% रह गई है। ये आंकड़े सोमवार को भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा एक बुलेटिन द्वारा जारी किये गये हैं, जिसको लेकर अब वित्त मंत्रालय सहित तमाम आर्थिक विशेषज्ञों की ओर से सफाई दी जा रही है।

वहीं ऋणग्रस्तता की बात की जाये तो वर्ष 2020-21 की तुलना में 2022-23 में आम भारतीय का कर्ज बढ़कर 15.6 लाख करोड़ रुपये हो चुका है।

ये आंकड़े हाल ही में आरबीआई के द्वारा 18 सितंबर, 2023 को अपने एक बुलेटिन के माध्यम से आधिकारिक रूप से जारी किये गये हैं। इसके पीछे की वजह उपभोक्ताओं द्वारा अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए बैंकों से बड़े पैमाने पर कर्ज लेना और घरेलू बचत में निवेश की बजाय खर्च में बढ़ोत्तरी बताई जा रही है।

वहीं इस बारे में एसबीआई रिसर्च के अनुसार, इसमें से बड़ा हिस्सा वस्तुओं की खरीद पर खर्च किया गया है, और वित्त वर्ष 2022-23 में घरेलू ऋणग्रस्तता में 8.2 लाख करोड़ रुपये की वृद्धि हुई है। इसमें से 7.1 लाख करोड़ रुपये बैंकों से लिए गये कर्ज का हिस्सा है, जिसमें आवास ऋण और रिटेल खरीद के खाते में सबसे अधिक खर्च किया गया है।

एसबीआई के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष के अनुसार कोविड-19 महामारी के बाद से कर्ज की मात्रा जहां बढ़कर 8.2 लाख करोड़ पहुंच गई है, वहीं घरेलू बचत की रफ्तार इससे पीछे छूट गई है, और इस मोर्चे पर 6.7 लाख करोड़ रुपये की आमद हुई है। पिछले दो वर्षों के दौरान आवास, शिक्षा एवं वाहनों की खरीद पर लगभग 55% ऋण लिया गया है।  

आरबीआई ने घरेलू बचत के मोर्चे पर वर्ष 2022-23 में भारी गिरावट की रिपोर्ट की है, जिसके बारे में घोष का कहना है कि, संभवतः इसका कारण बचत खाते में बेहद कम ब्याज दर हो, जिसके चलते शुद्ध घरेलू बचत की जगह लोगों ने घरेलू भौतिक बचत में निवेश को बढ़ाया है। पिछले 2 वर्षों के दौरान रियल एस्टेट में निवेश बढ़ा था, जिसमें अब बदलाव देखने को मिल रहा है। वर्ष 2021-22 में जीडीपी की तुलना में जहां 7.2% बचत राशि थी, वह घटकर 22-23 में 5.1% रह गई है। 

इस खबर ने आर्थिक जगत में खलबली मचा दी थी, लेकिन विपक्षी दलों की ओर से इस विषय पर चर्चा हो और आम लोगों तक भी यह बात पहुंचे, उससे पहले ही वित्त मंत्रालय की ओर से इसके बचाव में जो तर्क रखे गये, उसके बाद समाचार पत्रों ने भी इस विषय को कूड़े के ढेर में डाल दिया है।

वित्त मंत्रालय की ओर से 20 सितंबर को स्पष्ट किया गया कि आम लोगों की संपत्ति में अभी भी इजाफा हो रहा है, और कोई कमी नहीं है। मंत्रालय की ओर से अपनी टिप्पणी में कहा गया, “हाल ही में घरेलू बचत को लेकर सवाल खड़े किये गये हैं और इससे अर्थव्यस्था पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है। हालांकि, आंकड़े इस बात का संकेत दे रहे हैं कि घरेलू बचत में कमी के पीछे उपभोक्ताओं की प्राथमिकता में बदलाव का हाथ है, और गिरावट की कोई बात नहीं है जैसा कि कुछ हल्कों में इस बात को प्रचारित किया जा रहा है।” 

इसके साथ यह भी कहा गया है कि, “घरेलू क्षेत्र में स्पष्ट रूप से चिंता की कोई वजह नहीं है, उनके द्वारा कर्ज पर वाहनों एवं मकानों की खरीदारी की जा रही है।”

असल में जैसे ही आरबीआई ने अपने आंकड़े जारी किये, फाईनेंशियल अखबारों और मीडिया समूह के लिए ये आंकड़े बेहद जबरदस्त आंकड़े पेश करते हैं। 2016 में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा विमुद्रीकरण के बाद से ही खपत में कमी की चर्चा देश में चल रही है, लेकिन सरकार की ओर से रोजगार मुहैया कराने या आम लोगों के हाथों में पैसे देकर, खपत में वृद्धि की कोशिशों के बजाय पूंजीपतियों के लिए कॉर्पोरेट टैक्स में कमी और पीएलआई स्कीम जैसी योजनाओं के माध्यम से आपूर्ति में तेजी लाकर देश की अर्थव्यस्था को गति देने की नाकाम कोशिशें लगातार जारी हैं।

ऐसे में आरबीआई द्वारा घरेलू बचत में भारी गिरावट की खबर उस काले सच को उजागर कर देती है, जो करोड़ों-करोड़ लोगों के किचन से लेकर उनकी रोजमर्रा की जद्दोजहद में लगातार पिछड़ते जाने के बाद बैंकों में अपनी जमापूंजी को खर्च करने और वाणिज्यिक बैंकों से पर्सनल फाइनेंस कराकर उच्च ब्याज दर पर अपनी गाड़ी को किसी तरह आगे धकेलने का प्रयास है। 

संभवतः इसी को देखते हुए आर्थिक जगत के प्रमुख हस्तियों ने सरकार के बचाव में टिप्पणियां करनी शुरू कीं, जिससे सूत्र तलाशते हुए मंत्रालय ने घरेलू बचत में बाद पैमाने पर आई इस कमी को दूसरी दिशा में मोड़ दिया है।

उदाहरण के लिए, बैंक ऑफ़ बड़ौदा के मुख्य आर्थिक विशेषज्ञ मदन सबनविस ने भी घरेलू बचत में बड़ी कमी का बचाव करते हुए तर्क पेश किये हैं। उनका कहना है कि बचत खाते में कम ब्याज रिटर्न भी इसकी वजह हो सकती है। इसकी बजाय लोग अब इक्विटी और म्यूच्यूअल फंड्स में निवेश को पसंद कर रहे हैं। उनके अनुसार, लोग अब उच्च-जोखिम से कम कतराते हैं, और पहले की तुलना में अब लोगों की वित्तीय समझ बढ़ी है। 

लेकिन साथ ही उन्होंने बैंकों को गारंटी (कोल्टरल) के बगैर ऋण न देने के लिए भी आगाह किया है। सवाल उठता है कि जब लोगों के द्वारा बैंकों से पर्सनल लोन बड़ी मात्रा में लिया जा रहा है तो आपको बैंकों को खबरदार करने की जरूरत ही क्या है, क्योंकि आपके ही अनुसार लोगों की फाइनेंसियल लिटरेसी पहले से बढ़ चुकी है। ऐसे में पर्सनल लोन लेकर वे उपभोक्ता वस्तु की खरीद करने के बजाय शेयर निवेश या म्यूच्यूअल फंड्स में निवेश कर बैंकों के ऋण को लौटा ही देंगे। 

हकीकत यह है कि सरकार और नौकरशाह हकीकत से भली-भांति वाकिफ हैं, लेकिन देश के हालात को स्पष्ट रूप से कहने पर मोदीनोमिक्स का बनाया हुआ तिलिस्म ही एक झटके में भरभराकर ढह सकता है। यहां तो देशवासियों को विश्व की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यस्था के सपने दिखाए जा रहे हैं। सामने चुनाव है। लोगों को विश्वगुरु के सपनों से बहलाया जा रहा है, जिसके बीच आरबीआई की एक रिपोर्ट ने खलल डाल दिया। इस खबर से लोग नींद से जागकर अपनी जेबें टटोल सकते हैं।

2016 के बाद से नोटबंदी, जीएसटी और कोविड-19 महामारी की मार झेलकर अर्ध-चेतन मध्यवर्ग, 80 करोड़ 5 किलो अनाज पर आश्रित व्यापक मतदाता वर्ग के लिए अब अपनी कमाई से बैंक में बचत नहीं, राज्य सरकारों की ओल्ड पेंशन योजना, महिलाओं को मुफ्त बस सेवा, मासिक धनराशि, यूनिवर्सल बेसिक इनकम और बेरोजगारी भत्ते जैसी योजनाओं का ही आसरा बचा है। हालात से मोदी सरकार भी भली-भांति वाकिफ है, इसीलिए किसी के लिए विश्वकर्मा योजना तो किसी के लिए फिर से उज्ज्वला योजना या किसान सम्मान निधि की 3 के बजाय 4 किश्त की बात चलाई जा रही है, और बैंकों में बचत क्यों गिर रही है की व्याख्या करने से इंकार कर दिया है।    

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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