हिंदी टीवी ड्रामा के इतिहास में ‘मिर्ज़ापुर’ एक महत्वपूर्ण मोड़ का सूचक

कल एमेजन प्राइम पर बहुचर्चित टीवी ड्रामा ‘मिर्ज़ापुर।’ के दूसरे दौर की सारी कड़ियों को देखा। यूपी की राजनीति के शिखर-स्थान और हथियारों-नशीली दवाओं के व्यापार से जुड़े माफिया गिरोहों के बीच के रिश्तों और इनके घर-परिवार की बंद, बजबजाती कहानियों का नाटक मिर्ज़ापुर। 

नाटक हमेशा चरित्र की प्रवृत्तियों की अन्तर्निहित संभावनाओं के चरम रूपों का प्रदर्शन होता है। इसीलिये इसमें अनिवार्य तौर पर हर चरित्र जैसे अपनी प्रवृत्ति के अंत की दिशा में छलांग मारते दिखाई देते हैं। मृत्यु-छलांग, फ्रायड की शब्दावली में death drive का प्रदर्शन करते हुए। ऐसे में किसी भी प्रकार के चरम अपराध में लिप्त चरित्र के इसमें बचे रहने की कोई गुंजाइश नहीं होती है। उन सबका मरना तय होता है। यही वह बुनियादी कारण है जिसमें माफिया के लोगों, अपराधी राजनीतिज्ञों और सेक्स की विकृतियों से ग्रसित चरित्रों को लेकर तैयार होने वाले नाटक में हिंसा और मांसल कामुकता अपने चरमतम रूप में व्यक्त हुआ करती है।

इसमें अपराधी की मानवीयता या प्रेमी की कामुकता का कोई स्थान नहीं होता। यहीं चरित्र के उस सार को उलीच कर रख देने के नाटकों के अपने संरचनात्मक विन्यास की अनिवार्यता है, जिस सार में उसका अंत होता है। इसमें जिसे सामान्य या स्वाभाविक कहा जाता है, उसके लिये कोई खास जगह नहीं हो सकती है। नाटक में सामान्य और स्वाभाविक को हमेशा हाशिये पर ही रहना होता है, दुबक कर किसी उपेक्षित अंधेरे कोने में अप्रकाशित। 

इन्हीं कारणों से जो लोग मिर्ज़ापुर जैसे ड्रामा में अतिशय हिंसा और कामुकता के नग्न प्रदर्शन पर नाक-भौं सिकोड़ते हुए अपने पवित्र-पावन आचरण का और मंगलकामनाओं से लबालब भावों का प्रदर्शन करते हैं, वे खुद भी वास्तव में शुद्ध मिथ्याचार का प्रदर्शन करने वाले चरित्रों का नाटक कर रहे होते हैं। वे किसी नाटक के सचेत दर्शक कत्तई नहीं होते हैं । 

सच यही है कि अपराधी माफिया-राजनीतिज्ञों-पुलिस-नौकरशाही की धुरी पर टिका कोई भी ड्रामा ऐसा ही हो सकता है, जैसा मिर्ज़ापुर है। इस ड्रामा के सारे प्रमुख चरित्रों का अंत तक मर जाना और किसी स्वान संगी के साथ एक धर्मराज के बचे रहने के बजाय मिर्ज़ापुर (हस्तिनापुर) की गद्दी पर ही एक प्रतिशोधी स्वान का बैठ जाना इस हिंसक नाटक का स्वाभाविक प्रहसनात्मक पटाक्षेप हो सकता था, जो इसमें हुआ है। निस्संदेह हिंदी के टीवी ड्रामा के इतिहास में ‘मिर्ज़ापुर’ हमें एक महत्वपूर्ण मोड़ का सूचक लगा ।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक, चिंतक और स्तंभकार हैं।)

अरुण माहेश्वरी
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