राहुल गांधी की ‘भारत न्याय यात्रा’ और इंडिया गठबंधन के संयोजक चयन की चुनौती?

कांग्रेस ने अपने अघोषित नायक राहुल गांधी की भारत लोक-आत्मादर्शन यात्रा के दूसरे चरण की घोषणा कर दी है। पिछले वर्ष राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद अगले वर्ष के उद्घाटन मास 14 जनवरी से ‘भारत न्याय यात्रा’ आरम्भ होगी और 20 मार्च को मुंबई में इसका समापन होगा। यह यात्रा उत्तर-पूर्व से लेकर और उत्तर व पश्चिम भारत की विभिन्न जीवन शैलियों, बहुभाषा-सामाजिक-संस्कृति और आर्थिक-सामाजिक न्याय का अवलोकन करेगी। 

इस यात्रा के माध्यम से 14 राज्यों के 85 ज़िलों की जनता के साथ एक जीवंत संवाद स्थापित किया जा सकेगा और जाना जा सकेगा कि लोकतंत्र की धारा लोक-तलहटियों तक कितनी पहुंची और शिखर राजनीतिक प्रतिष्ठान ने उनके साथ कितना न्याय किया है? निश्चित ही 2022 की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से ‘भारत न्याय यात्रा’ तक से ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ में फिर से प्राण फूंकने में सहयोग मिलेगा।

‘भारत न्याय यात्रा’ का आरम्भ मणिपुर से किया जाएगा। ऐतिहासिक दृष्टि से यात्रा का यह उद्घाटन पक्ष स्वयं उल्लेखनीय है क्योंकि पिछले कई महीनों से यह राज्य ‘जातीय हिंसा’ में झुलसा हुआ है। आज भी ज़ख्म गहरे और हरे हैं। अभी तक  भी लोगों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की क्षणिक साक्षात उपस्थिति भी ग़ायब रही है। ऐसे में मणिपुर से यात्रा-आरम्भ घायल लोकमानस को शेष भारत-मानस के साथ जोड़ने की भूमिका निभा सकता है। भावनात्मक घावों को भर सकता है।

जनचौक के पाठकों को याद दिला दिया जाए कि इस पत्रकार ने जनचौक के 4 जुलाई, 2019 के अंक में सुझाव दिया था कि राहुल गांधी को चाहिए कि वे भारत के उत्तर-पूर्व के अरुणाचल प्रदेश से लेकर हिंदी भारत तक यात्रा करें और देश की आत्मा को समझें। जनचौक को दिए साक्षात्कार में तब कहा था- “कांग्रेस को फिर से राष्ट्रव्यापी बनाने के लिए  नेतृत्व को कड़ी मेहनत करनी होगी। मैं सोचता हूं कि राहुल गांधी को कुछ पम्परागत तरीके मसलन सत्याग्रह और पदयात्रा आदि करना होगा। राहुल गांधी को उत्तर-पूर्व के अरुणाचल प्रदेश के ईटानगर से पदयात्रा शुरू कर पूर्वोत्तर के राज्यों के साथ ही बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश होते हुए दिल्ली पहुंचना चाहिए।”

यह स्वागत योग्य है कि उन्होंने अपने दूसरे चरण की यात्रा का दायरा बढ़ा दिया है और 6000 हज़ार 200 किलोमीटर में फैले गैर-हिंदी और हिंदी भारत की जनता के साथ कितना साथ न्याय हुआ है और हो सका है, इसे जानने की कोशिश वे और उनके साथी करेंगे। महात्मा गांधी का स्वप्न यही था कि दिल्ली की सत्ता भारत के अंतिम जन तक निर्बाध पहुंचे।  यह पहला अवसर होगा जब देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस (जन्म-1885) के किसी राष्ट्रीय स्तर के नेता  ने पदयात्रा-अभियान चलाया हो। इस यात्रा को निश्चित ही उत्तर-पूर्व से निचले भारत की प्रथम यात्रा ही कहा जाएगा।

इससे पहले जनता पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने जनवरी 1983 में कन्याकुमारी से दिल्ली तक की ‘भारत यात्रा’ की थी। इसके बाद अभिनेता व नेता सुनील दत्त ने 1987 में मुम्बई से अमृतसर तक की ‘भाईचारा यात्रा’ की थी। यह वह समय था जब पंजाब में हिंसा का दौर था। देश में और भी अनेक छोटी छोटी यात्राएं होती रही हैं। लेकिन राहुल गांधी की विगत यात्रा और भावी यात्रा ऐसे दौर की हैं जब स्वतंत्र भारत की लोकतान्त्रिक संस्थाओं और संवैधानिक कार्यप्रणाली को कई तरह के संकटों-चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

इन संकटों-चुनौतियों में सर्वस्वीकृत उदारवादी लोकतंत्र के सामने अस्तित्व संकट पैदा हो गया है; निर्वाचित एक दलीय व्यक्ति-अधिनायकवाद; एकल व्यक्ति पूजा की पराकाष्ठा, बहुसंख्यकवाद, सॉफ्ट फासीवादी प्रवृत्तियों का आक्रामक उभार; अल्पसंख्यक समुदायों में फैलती असुरक्षा की भावना, संवैधानिक संस्थाओं का हाशियाकरण; विपक्ष मुक्त भारत की आशंकाएं; 146 सांसदों का निलंबन; सरकार विरोध को राष्ट्र विरोध के रूप  में देखना; कॉर्पोरेट पूंजीवाद का बढ़ता आतंक; सार्वजनिक क्षेत्रों का आहिस्ता-आहिस्ता विलोपीकरण; अधिकांश जनता का विपन्नीकरण; मध्ययुगीन प्रजा मानसिकता को महत्व और विवेकशील नागरिक चेतना के प्रति उदासीनता; कट्टर राष्ट्रवाद और सैन्यपूजा का उभार; जातीय अंतर्विरोधों की उपेक्षा आदि शामिल है।

दोनों यात्राओं का महत्व यह भी है कि इंडिया गठबंधन की पृष्ठभूमि में इनकी कल्पना की गई। गठबंधन घटकों को प्रस्तावित यात्रा से ऊर्जा प्राप्त हो सकती है। 2024 में 18वीं लोकसभा के चुनावों की ज़मीन तैयार हो सकती है। जिन जिन राज्यों से गुजरेगी यात्रा, वहां कुछ खाद-बीज-पानी डाला जा सकता है। यह इस पर भी निर्भर करेगा कि यात्रा का ‘त्वरित फॉलो अप’ कैसा रहता है? इसके लिए जहां कांग्रेस कर्मी सक्रीय रहें, वहीं घटकों (तृणमूल कांग्रेस, जेडीयू, आरजेडी, राष्ट्रवादी कांग्रेस, समाजवादी, वामपंथी आदि) दलों के कर्मठ कार्यकर्ता भी मैदान में उतरें।

सिर्फ कांग्रेस के भरोसे ही लोकतंत्र व संविधान की रक्षा नहीं की जा सकती। संकीर्ण स्वार्थों व महत्वाकांक्षाओं से ऊपर उठकर ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को बचाने की महती आवश्यकता है। प्रधानमंत्री कौन होगा? इसका हल चुनाव-विजय के बाद तय किया जा सकता है। इसका फैसला निर्वाचित सांसद करेंगे। लेकिन, दोनों यात्रा के उद्देश्यों को साकार करने के लिए ज़रूरी है कि सभी घटक संगठित रहते हुए परस्पर लचीला रुख अपनाएं और उत्तर-विजय मंच पर अपनी महत्वाकांक्षा का प्रदर्शन करें।

अलबत्ता, जल्दी ही इंडिया के संयोजक का फैसला ज़रूर किया जाना चाहिए। बेशक, दक्षिण में कांग्रेस की स्थिति अच्छी है, लेकिन, हिंदी प्रदेशों में ताजा हार से उसकी स्थिति कमज़ोर हुई है। यह राजनीतिक यथार्थ है। इसे ध्यान में रखते हुए  ‘संयोजक’ या कन्वीनर का चुनाव किया जाना चाहिए। उत्तर भारत, विशेषतः हिंदी पट्टी में कौन सर्वस्वीकृत चेहरा हो सकता है, इसे ध्यान में रखना होगा।

दक्षिण के लिए वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष सबसे उपयुक्त राजनेता हैं। लेकिन उत्तर भारत के मिज़ाज़ में वे कितना फिट बैठ सकेंगे, इसमें संदेह है। इसलिए बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, हरियाणा, हिमाचल, पंजाब जैसे राज्यों की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ को ध्यान में रख कर प्रमुख संयोजक का चुनाव किया जा सकता है। इसके साथ ही क्षेत्रीय उपसंयोजक चुने जा सकते हैं। यह सच्चाई संदेह से परे है कि इस प्रक्रिया में ‘पिछड़ा वर्ग’ की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी।

संयोजक के चुनाव में यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उसका सामना मोदी-शैली से है। इसलिए ज़रूरी यह भी है कि संभावित संयोजक समानांतर मोदी-नाटकीयता में भी पारंगत हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी शक्ति है उनकी अद्वितीय मंचीय भाषण कला और रोड शो। इंडिया का संयोजक मोदी-अभिनय कला से लैस होना चाहिए। निश्चित ही उसकी अदायगी नितांत भिन्न रहेगी। वह जन प्रिय-आकर्षक रहनी चाहिए। हिंदी भाषा की अदायगी पर उसका कमांड होना चाहिए। भाषण जंग में वह मोदी जी को निहत्था कर सके, इतना दम उसमें होना चाहिए। तभी हिंदी भारत की जनता इंडिया के संयोजक की दीवानी हो सकती है।

इस दृष्टि से राहुल गांधी का अभी निष्णात होना शेष है। निश्चित ही वे चिंतक राजनेता की भूमिका प्रभावशाली ढंग से निभा पा रहे हैं। वे विकसित देशों के मतदाताओं के लिए सर्वश्रेष्ठ नेता हो सकते हैं। लेकिन, भारत के मतदाता मूलतः भावना प्रधान व अनौपचारिक हैं। इसलिए वे अपने नेता से ‘दिल जुड़ाव’ चाहते हैं, ‘दिमाग जुड़ाव’ के प्रति उदासीन रहते हैं। 2014 से ‘दिल जुड़ाव’ या विवेक विहीनता की धारा का विस्तार हुआ है। इस धारा की त्वरित काट भी ऐसी ही धारा हो सकती है।

अतः इस धारा में राहुल गांधी कितना फिट रहेंगे, यह संदेहास्पद है। राहुल के पास समय है और भविष्य में उनसे और भी बड़ी ऐतिहासिक भूमिका अपेक्षित है। सो, इंडिया गठबंधन की कमान के लिए वैकल्पिक नाम की तलाश की जानी चाहिए। याद रखें, हिंदी भारत में उत्तर प्रदेश के बाद बिहार के पास सबसे अधिक लोकसभा सीटें हैं। महावीर और बुद्ध के इस ज्ञानी राज्य के नेता फलक पर नज़र दौड़ाएं। शायद कोई हरफनमौला नेता मिल जाए।

राहुल गांधी को करनी चाहिए देश की पदयात्रा: रामशरण जोशी

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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