हिंसा और आतंक के विरुद्ध भारत का भविष्य और लोकतंत्र उम्मीद से है।

सामने 2024 का आम चुनाव है। इस चुनाव में भारत के लोगों को बहुत सोच-समझकर अपने मताधिकार का महत्वपूर्ण फैसला करना है। मतदाताओं के सामने उनकी जिंदगी के मुद्दे हैं। स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न होने की जो भी संभावना है, मीडिया की जो और जैसी भूमिका है, चुनाव संघर्ष के लिए समान अवसर (Level Playing Field)‎ बनाने के मामले में वह सब कुछ वह मतदाताओं के सामने है। एक बात साफ-साफ समझने की जरूरत है कि अपने विवेक से बड़ा कोई सलाहकार आदमी के पास नहीं होता है। अपने जीवन और जीवनयापन का जो भी अनुभव है उसे अंततः अपने जाग्रत विवेक से ही समझना है। कामना कीजिए कि चुनाव में हिंसा न हो। हालांकि, पिछले दिनों जीवन और समाज में हिंसा का भयावह वातावरण बेरोक-टोक फैलता रहा है। हिंसा को कारगर चुनौती देना तो दूर की बात, हिंसा अपने में खुद एक बड़ी चुनौती है।

दुखद है कि सभ्यता और समाज हिंसा और आतंक से मुक्त नहीं हो पाया है। दुखद है कि व्यक्ति की भी, सामाजिक संवर्गों की भी और राज्य की भी औकात हिंसा की क्षमता से ही‎ मापी जाती है। हिंसा और अहिंसा का द्वंद्व संभवतः सभ्यता का सबसे पुराना और सब से मौलिक द्वंद्व है। अक्सर मामला हिंसा और अहिंसा के बीच की कड़ी, प्रतिहिंसा को विचार में सचेत ढंग से शामिल नहीं किया जाता है। सचाई यह है कि लगभग हिंसा का प्रत्येक रूप अपनी तार्किकता में प्रतिहिंसा ठहर जाती है। हिंसा हो या प्रतिहिंसा दोनों ही अपनी तार्किक परिणति में अंततः हिंसा का ही वातावरण बनाती है। ‘शक्ति-संतुलन’ के किसी पड़ाव पर ही अहिंसा की बात सुनी जाती है।  

महात्मा बुद्ध को जब अंगुलिमाल ने रुकने की आवाज दी तो महात्मा बुद्ध ने कहा कि मैं तो रुका हुआ ही हूं, तुम कब रुकोगे! कथा के इस संदर्भ को थोड़ा आगे बढ़कर समझना उपयोगी हो सकता है। क्या अहिंसा वस्तुतः हिंसा की ही निष्क्रिय स्थिति है। इस तरह से भी समझा जा सकता है कि हिंसा की स्थिति प्राकृतिक या स्वाभाविक है और अहिंसा या हिंसा के निषेध की स्थिति सभ्यता के विकास के लिए जरूरी है। मनुष्य के सामने प्रकृति के बाहर और विरुद्ध जाने की एक सीमा है। मनुष्य के अलावा अन्य जितने भी प्राणी हैं, प्राकृतिक जीवन जीते हैं, कठोर शब्दों में कहा जाये तो प्रकृति के दास हैं। यह सही है कि मनुष्य से इतर, यानी मनुष्येतर प्राणी प्रकृति के दास हैं, लेकिन यह भी सच है कि वे सिर्फ प्रकृति के दास हैं। उनके जीवन का एक मात्र उद्देश्य प्राण रक्षा ‎होता है। मनुष्येतर प्राणियों के बीच हिंसा और अहिंसा का, नैतिकता से जुड़े प्रश्नों का कोई प्रसंग नहीं होता है। मनुष्येतर प्राणी के जीवन का एक ही सूत्र है, जीव जीवस्य भक्षणम, यानी एक जीव दूसरे जीव को खा जाता है। मनुष्येतर प्राणियों का जीवन इस अर्थ में बिल्कुल सनातनी है।

इस अर्थ में मनुष्य का जीवन सनातनी का नहीं, तनातनी का होता है। मनुष्य ने प्रकृति की दासता से बाहर निकलने की कोशिश की। वह सफल हुआ, सभ्य हुआ। सांस्कृतिक हुआ! अधिक महत्वपूर्ण यह है कि मनुष्य इस प्रक्रिया में राजनीतिक हो गया। सभ्यता की जरूरतों को पूरा करने और उसके अनुसरण में संस्कृति का विकास हुआ। सभ्यता आगे बढ़ती रहती है। कुछ हद तक सभ्यता के अनुसरण के बाद संस्कृति ठमक गई और उस ने पीछे देखना शुरू किया। संस्कृति के मन में आनेवाले कल का आकर्षण तो होता है, लेकिन बीते हुए कल का मोह उस पर भारी पड़ता है। मनुष्य प्रकृति की दासता से तो कुछ हद तक मुक्त हुआ लेकिन इस के साथ उसने अन्य दासताओं को स्वीकार कर लिया। एक सीमित अर्थ में कहा जाये तो मनुष्य ने मनुष्य की दासता स्वीकार कर ली। हुआ यह कि अधिक मनुष्य के समूह के बीच से बुद्धि-संपन्न और साहसी झुंड आगे बढ़ा तो समूह के अन्य लोगों के लिए उन के अनुसरण से आगे बढ़ने की प्रक्रिया जारी हो गई। पीछे से आगे बढ़ने की इस प्रक्रिया में बहुत सारी बातें हैं, लेकिन यहां केवल हिंसा और अहिंसा के साथ-साथ और यथा-स्थान कहीं-कहीं प्रतिहिंसा पर बात करना प्रासंगिक है।

आज पूरी दुनिया में हिंसा का बोलबाला पहले से बहुत अधिक बढ़ गया है, यह मानना ऐतिहासिक रूप से गलत होगा। तो फिर चिंता क्यों! चिंता इसलिए है कि जिस तेजी से मनुष्य की सभ्यता आगे बढ़ी है, उस तेजी से हिंसा को निष्क्रिय नहीं किया जा सका है। पहले की तुलना में मनुष्य की हिंसा क्षमता में ‎बहुत वृद्धि हुई है और होती जा रही है। हथियारों के कारोबार के आंकड़ों से इस बात की पुष्टि हो सकती है। यह तो हिंसा का एक पहलू है। हिंसा के संदर्भ में जानमारा और विश्व-विनाशक हथियारों की बात तो अपनी जगह है ही, लेकिन जितनी हिंसा की क्षमता बढ़ी है, उस से ज्यादा चिंताजनक यह है कि हिंसा के कई रंग-रूप प्रकट हो गये हैं।

यहां विश्व और भारत के कम-से-कम एक-एक संदर्भ को ध्यान में लाना जरूरी है। हां, उल्लिखित घटनाओं के साथ कुछ-कुछ कयास भी हैं। यदि भारत में 1857 न हुआ होता तो क्या महात्मा गांधी के अहिंसा दर्शन के महत्व को ब्रिटिश सत्ता इतनी आसानी से समझ पाती? शायद नहीं। विश्व युद्धों के न होने, हिटलर के फासीवाद के खतरे का दौर न आने, और सोवियत के न होने की स्थिति में पूंजीवादी राज्य व्यवस्था को लोक-कल्याणकारी लोकतंत्र का महत्व इतनी आसानी से समझ में आता? शायद नहीं।

फासीवाद का साम्राज्यवादी पूंजीवाद से गहरा संबंध है। फासीवाद के इरादों को समझ लेने पर इस संबंध की गहराई को कुछ-न-कुछ अनुमान तो हो ही सकता है। फासीवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसकी राजनीति समाज में समानता, ‎लोकतंत्र या ‎सार्वभौम मानव मूल्यों के प्रति जरा भी सम्मान नहीं रखती है। फासीवाद राजनीति समानता, ‎लोकतंत्र या ‎सार्वभौम मानव मूल्यों के‎ प्रति हमेशा शत्रुता, युद्ध और संघर्ष का खुला रवैया रखती है। फासीवाद ज्ञान के संकाय और विश्वविद्यालयों को भस्मीभूत करने के लिए उग्र और आमादा रहता है।

‎पूंजीवाद की राजनीति सार्वभौम मानव मूल्यों ‎के प्रति युद्ध और संघर्ष का रवैया खुला नहीं रखती है। पूंजीवादी राजनीति अपने ‎‘दांत और नाखून’‎ को लोकतंत्र में छिपाकर रखती है। पूंजीवाद का लक्ष्य होता है, पूंजी की अधिक-से-अधिक वृद्धि और इस के लिए किसी भी कीमत पर अधिक-से-अधिक मुनाफा। पूंजीवाद की राजनीति ज्ञान के संकाय और विश्वविद्यालयों को विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध ‎और संवेदनशील बनी रहती है। पूंजीवाद के सुविचारित लक्ष्य हासिल करने के लिए समाज में हमेशा युद्ध और संघर्ष का वातावरण बना रहना बाधक होता है।

युद्ध और संघर्ष को रोकने का, कम-से-कम अस्थाई तौर पर रोकने में सबसे कारगर उपाय लोकतंत्र में होता है। साम्राज्यवाद के ‎‘राष्ट्रीय लोकतंत्र’‎ के प्रति प्रेम का यही रहस्य है। यहां लोकतंत्र और राष्ट्रवाद के संदर्भ पर भी विचार किया जा सकता है। ‘पूंजीवादी लोकतंत्र’‎ में ‘पूंजी’ की रक्षा के लिए राष्ट्रवाद महत्वपूर्ण ‘कवच’ की तरह काम करता है। ‎‘पूंजीवादी लोकतंत्र’‎ के राष्ट्रवाद में यदि राष्ट्र की वास्तविक चिंता होती तो वह ‘पूंजी’ के राष्ट्रीयकरण की भी पैरवी करता! नहीं करता है। ‎‘पूंजी’ के राष्ट्रीयकरण के किसी प्रसंग के उठते ही ‎‘पूंजीवादी लोकतंत्र’‎ की बेचैनी बढ़ जाती है।

इंटरनेशनल की बात अपनी जगह, ‎‘पूंजी’ के राष्ट्रीय होने को ‎‘समाजवादी लोकतंत्र’‎ ऐतिहासिक रूप से अपना महत्वपूर्ण सूत्र मानता है। ‎‘पूंजी’ के राष्ट्रीय होने ‎से आम लोगों को लाभ होता है। लाभ के प्रति लोभ से इनकार नहीं किया जा सकता है। ‎‘समाजवादी लोकतंत्र’‎ को ‎‘पूंजीवादी लोकतंत्र’‎ अपना सब से बड़ा शत्रु मानता है। इस शत्रु से निपटने के लिए उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण (उनिभू) के आमद से ‎‘पूंजीवादी लोकतंत्र’‎ ने अपने अंदर ‘उदार लोकतंत्र’ के तत्वों को कामयाबी से शामिल कर लिया।

‎‘उदार लोकतंत्र’ में शासकों के द्वारा नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकारों का ‎विधिवत सम्मान और सेवा का खुला आश्वासन रहता है। कुल मिलाकर यह कि ‘शासन’ कम-से-कम और ‘सेवा’ अधिक-से-अधिक उदार लोकतंत्र का गुण ‎होता है। ‎‘समाजवादी लोकतंत्र’‎ को ‘उदारता के झटके’ लगते रहे हैं। इधर जब उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण (उनिभू) की शिथिलता के साथ ‎‘उदार लोकतंत्र’‎ को झटका लग रहा है। ऐसे वातावरण में संविधान-सम्मत ‎‘लोकवादी लोकतंत्र’‎ की प्रासंगिकता बढ़ गई है।

भारत में संविधान-सम्मत ‎‘लोकवादी लोकतंत्र’‎ के लिए बहुत उपयुक्त वातावरण है। लोक-कल्याणकारी संविधान में पहले से ही ‎‘लोकवादी लोकतंत्र’‎ की अंतर्वस्तु उपस्थित है। यह भारत की बहुत बड़ी संभावनाओं का संकेत है, जिसकी सुसंगति और सहमेल आज की जिंदगी की वैश्विक परिस्थिति से भी है। लेकिन सब से बड़ी मुसीबत यह है कि इस समय भारत में फासीवादी रुझान ही अधिक ताकतवर दिखता है। इस समय भारत सरकार में लोक-कल्याणकारी संविधान के प्रति ‎वैचारिक और उस के हिसाब से स्वाभाविक अनाग्रह है। यदि फासीवाद रुझान और ताकतवर हुआ तो कहना मुश्किल है कि भारत किस किनारे लगेगा।

अभी भारत में दो महीने के अंदर 2024 के आम चुनाव का नतीजा सामने आ जायेगा। यदि भारत फासीवाद के फंदों को काटने में कामयाब होता है, तो फिर संविधान-सम्मत ‎‘लोकवादी लोकतंत्र’‎ के टिके रहने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) को साथ लेकर कांग्रेस पार्टी यदि सार्थक और सकारात्मक ढंग से जाति-गणना और आर्थिक सर्वेक्षण करवा पाई और उसके हिसाब से राष्ट्रीय अर्थ नीति लागू कर पाई और राष्ट्रीय संपत्ति का पुनर्संयोजन (Realignment)‎ कर पाती है तो स्थिति बदल सकती है। बेरोजगारों, युवाओं, किसानों, महिलाओं, बुजुर्गों की स्थिति में सुधार हो सकता है। महंगाई और क्रय-क्षमता में उत्पन्न भारी असंतुलन, न्यायपूर्ण संतुलन की तरफ कदम बढ़ा सकता है। जानमारा विषमता की खाई से बाहर निकलने की कोशिश कर सकता है। लोकतंत्र का कोई भी रूप हो, उस में हिंसा को निष्क्रिय करने का कोई न कोई उपाय जरूर होना चाहिए। होना चाहिए, लेकिन होता नहीं है। हिंसा का निष्क्रिय होना बहुत कुछ सरकार की नीतियों पर निर्भर करता है। फासीवाद की तो ताकत का मुख्य स्रोत ही हिंसा में निहित होता है। इसलिए फासीवाद से तो हिंसा को निष्क्रिय करने की उम्मीद की ही नहीं जा सकती है। फासीवाद हिंसा को सोद्देश्य भेदभाव के साथ नियंत्रित करती है।  इस ‘सोद्देश्य नियंत्रण’ को ही अपनी हिंसा विरुद्धता मानती और कहती है। ‎‘समाजवादी लोकतंत्र’‎ में भी हिंसा, प्रतिहिंसा और अहिंसा के प्रति अपना अलग रवैया होता है। संविधान-सम्मत ‎‘लोकवादी लोकतंत्र’‎ में हिंसा को निष्क्रिय करने का सब से ज्यादा और स्वतः स्पष्ट कारण होता है।

आम तौर पर भारत के लोग हिंसा का समर्थन नहीं करते हैं। हालांकि पिछले दिनों भारत के कम-से-कम एक अंश को हिंसा का समर्थक और हिंसक बनाने की भी कम कोशिश नहीं हुई है। हिंसा का सवाल भारत को इस दौर में भीतर से लगातार मथता रहा है।

भारत में आगामी आम चुनाव में सत्ता परिवर्तन होगा या नहीं होगा यह तो अंततः स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न होने और मतदाताओं के निर्णय पर ‎ही निर्भर करता है। हालांकि, तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद उम्मीद है कि भारत का मतदाता स्वतः स्पष्ट कारणों से हिंसा को निष्क्रिय करने के लिए, उपयुक्त लगनेवाले ‎‘संविधान-सम्मत लोकवादी लोकतंत्र’‎ की बात करनेवाले विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के पक्ष में अपना फैसला सुनाये। क्या होगा, देखने की बात है। हिंसा और आतंक के विरुद्ध भारत का भविष्य और ‎लोकतंत्र उम्मीद से है। ‎‘हम भारत के लोग’ उम्मीद से हैं, इंतजार में हैं।  ‎  

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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