विचारहीनता, अवसरवाद, परिवारवाद और व्यक्तिवाद ने बहुजन राजनीति को भोथरा बना दिया

महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और बिहार की जमीन पर, सदियों से सताए दलित और पिछड़ों की राजनैतिक ऊर्जा को दक्षिणपंथी विचारधारा ने छल-बल, सत्ता, खौफ और धन की ताकत से कमजोर ही नहीं किया है, अपितु अपने हितों के अनुकूल इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। 1984 में बसपा के उदय के समय ‘तिलक, तराजू और तलवार…….’ जैसे नारे से हुई थी।

कांशीराम की सादगी और बहुजनों को एकजुट करने का मिशन, बहुतों को प्रभावित किया। डॉ. अम्बेडकर की वैचारिकी और संवैधानिक आरक्षण का लाभ मिलने से वंचित समाज में शिक्षा और चेतना  प्रवेश करने लगी थी। इस बीच कई दलित नेताओं ने राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित किया। 1973 में बामसेफ के स्तम्भ रहे राजबहादुर, बसपा से जुडे़। वह 1993 में समाज कल्याण मंत्री बने मगर मायावती ने जल्द पार्टी से बाहर कर दिया। बड़े नेताओं को पार्टी से बाहर करने का सिलसिला, 2022 तक जारी रहा, जब तक कि सभी पुराने जमीनी नेता, एक-एक कर निकाल न दिए गए।

मुस्लिम नेताओं के प्रति मायावती का अतिवादी रुख रहा है। डॉ. मसूद अहमद, कांशीराम के जमाने से बसपा में रहे। 1985 से 1993 तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभारी रहे। 1993 की सपा-बसपा सरकार में शिक्षा मंत्री बने। 1994 की सर्दियों की रात में उनको पार्टी से निष्कासित कर रात में ही उनके सरकारी आवास को खाली करा लिया गया और सामान सड़क पर फेंकवा दिया गया। डॉ. मसूद जैसे कद्दावर मुस्लिम नेता की ऐसी बेइज्जती शायद ही बहुजन वैचारिकी की गरिमा के अनुकूल हो। तब डॉ. मसूद ने कहा था कि मायावती ने बाबा साहब भीमराव आंबेडकर और कांशीराम की विरासत, उन्हीं सवर्ण पशुओं के हाथ गिरवी रख दी, जिनके खिलाफ ये जिन्दगी भर लड़ते रहे। तब तक पैसे लेकर टिकट बांटने की नीति, जब-तब अखबारों की सुर्खियां बनने लगीं थीं।

जंगबहादुर पार्टी के अध्यक्ष रहे और 1995 में उन्हें भी बसपा से बाहर किया गया। कांशीराम के साथ मिलकर बहुजन पार्टी खड़ी करने वाले सोनेलाल पटेल को भी इसी वर्ष बसपा से निकाला गया जिससे उन्हें ‘अपना दल’ बनाना पड़ा। रामसमुझ और विधानसभा अध्यक्ष रहे दिवंगत बरखूराम की कहानी भी कम पीड़ादायक नहीं हैं। उनका निष्कासन भी अपमानजनक तरीके से हुआ। आरके चौधरी को 2001 में अपमान का घूंट पीना पड़ा। बसपा के अन्य दिग्गजों में रहे बाबू सिंह कुशवाहा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्य, लालजी वर्मा और रामअचल राजभर का निष्कासन बिना किसी ठोस कारण के हुआ। इस प्रकार बहनजी ने बसपा को वंचितों के मुक्ति संघर्ष का वाहक बनाने के बजाय, बर्बाद करने का काम अपने हाथों किया।

बिहार की राजनीति में रामबिलास पासवान का उज्वल समय इतिहास में दर्ज हुआ तो उनका अंत, बेटे चिराग पासवान के उत्तराधिकार के बाद, ब्राह्मणीकरण संस्कृति में समर्पण से हुआ। महाराष्ट्र के रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष, जुझारू दलित नेता रामदास अठावले को भाजपा जैसी वर्णवादी पार्टी की सेवा में जाना पड़ा।

तमाम दलित नेताओं की वर्तमान स्थिति यह स्पष्ट करती है कि बिना डॉ. अम्बेडकर की वैचारिकी से गुजरे, शूद्रों के दासत्व के कारकों को समझे और प्रगतिशील विचारों को आत्मसात किए बिना, सिर्फ जातिगत राजनीति को उभारने से मलाई तो खाई जा सकती है, पर बहुजन मुक्ति को मंजिल तक नहीं पहुंचाया जा सकता है। इसके लिए फुले, पेरियार, भगत सिंह, मॉर्क्स और लेनिन को पढ़ना, समझना जरूरी है। इसके लिए वंश परंपरा और व्यक्तिगत लिप्सा को छोड़ना बहुत जरूरी है। यह रोग आरजेडी और सपा जैसी पार्टियों के लिए भी घातक होना है।

वंचितों के हित के लिए, सदा सड़क पर संघर्ष की जमीन को ऊर्जावान बनाए रखना जरूरी है अन्यथा चतुर कुलीनतावादी, ब्राह्मणवादी राजनीति कभी भी ग्रास बना लेगी। वह डॉ. अम्बेडकर की ऊर्जा और तेवर वाली पार्टी को कभी भी बर्दाश्त नहीं करेगी?  अन्यथा भीमा कोरेगांव के दलित शहीदों के स्मरणोत्सव से पहले, “एल्गार परिषद“ के बैनर तले, पेशवाओं की पूर्ववर्ती सीट पुणे के शनिवारवाड़ा में एकत्र सम्मेलन में, हिंसा भड़काने और देश के तमाम महत्वपूर्ण चिंतकों और बुद्धिजीवियों पर आरोप मढ़कर जेलों में न डाला गया होता। 

बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार भी बहुत समय तक भाजपा के साथ रहे। उसे मजबूत करते रहे। उनका मोहभंग तब हुआ है जब दक्षिणपंथी पंजा, उनकी गरदन तक जा पहुंचा।

बिहार के एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री और ‘हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा’ के संरक्षक, जीतन राम मांझी ने जनता दल (यू) और आरजेडी महागठबंधन से अलग होकर, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा विपक्षी एकता के प्रयास को एक झटका दिया है। इस परिवारिक पार्टी में मांझी के बेटे, संतोष मांझी, अध्यक्ष हैं । 19 जून 2023 को हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में (हालांकि यह पार्टी किसी राज्य में नहीं है, फिर भी कार्यकारिणी तो राष्ट्रीय ही कही जाएगी?) मांझी ने महागठबंधन सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। वह महामहिम से मिलकर समर्थन वापसी का पत्र सौपेंगे।

यह अकारण नहीं हुआ है? इसके पीछे भाजपा का हाथ बताया जा रहा है। यह एकाएक तब हुआ है जब पूरे देश की विपक्षी पार्टिंयां 23 जून को पटना में एकजुट होने जा रही हैं। चर्चा यह भी है कि शायद जीतन राम मांझी को राज्यपाल के पद का सौदा हुआ हो और उनके बेटे को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में जगह देने का। परिवार का लाभ मुख्य हो तो वंचितों की राजनीति को लात मारना, बहुजन राजनीति का दुर्भाग्य रहा है। सच्चाई अभी गर्भ में है मगर कुछ दिन पूर्व, तुलसी कृत रामचरित मानस पर तीखा हमला बोलने वाले जीतन राम मांझी का भाजपा के करीब जाना आश्चर्य का विषय तो है मगर हमें नहीं भूलना चाहिए कि वह अम्बेडकरवादी के बजाय अवसरवादी ज्यादा रहे हैं और पहले भी भाजपा के साथ रह चुके हैं। इसी प्रकार उपेन्द्र कुशवाहा, भाजपा से जद (यू) की ओर और जद(यू) से भाजपा की ओर सिर्फ अपने भविष्य के लिए डोल रहे हैं। ओबीसी हितों की फिक्र न उन्हें कल थी, न आज है।

उत्तर प्रदेश में ‘सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी’ के अध्यक्ष, ओम प्रकाश राजभर ने हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी से मिलने के बाद कहा है कि ‘उनके दरवाजे सबके लिए खुले हैं। कोई रोक नहीं है। राजनीति में सब संभव है। हमारी सभी बातें नहीं मानी जायेंगी मगर कुछ तो मानी जायेंगी?’ ओमप्रकाश राजभर पहले भी भाजपा सरकार के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ चुके हैं। यह वही राजभर हैं जो सपा में जाने के बाद भाजपा को उखाड़ फेंकने की कसमें खा रहे थे और उसे ओबीसी, दलित विरोधी बता रहे थे। अब शायद उन्हें दलित, ओबीसी विरोधी से कुछ लेना-देना नहीं? अपना लाभ ही राजनीति है। यह सही है कि भर जातियों का एक हिस्सा, उनके साथ जुड़ा है और गाजीपुर, आज़मगढ़, बलिया जैसे पूर्वी जनपदों में उनका कुछ आधार है मगर 2024 की जो विसात, उनके अपने समाज या बहुजन के विरुद्ध बिछाई जा चुकी है, उसे तोड़ने के अंतिम अवसर को भी लात मारने से नहीं चूक रहे राजभर।  

उत्तर प्रदेश से एक और समाचार, एक छोटे से ‘महान दल’ के अध्यक्ष केशव देव मौर्य की ओर से आया है कि वह आगामी चुनाव में बसपा को समर्थन देंगे। फर्रूखाबाद, कासगंज, शाहजहांपुर और बदायूं क्षेत्र में इस पार्टी ने अपने पोस्टरों पर लिखवाया है- ‘महान दल ने ठाना है, बसपा को जिताना है।’ 2009 और 2014 के संसदीय चुनाव में इस दल ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया था तो 2019 में वह भाजपा के साथ थी और 2022 के विधान सभा चुनाव में सपा के साथ। अभी तक इस दल को कोई सफलता नहीं मिली है मगर कुछ जातिगत वोटों को, विपक्षी पाले में जाने से वह रोकेगी ही।

2022 के विधान सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के दो अन्य छोटे दल, जनवादी सोशलिस्ट पार्टी और अपना दल (कमेरावादी) ने सपा से गठबन्धन किया था। इन दोनों दलों का कुछ आधार बिन्द और कुर्मी बिरादरी में है। यद्यपि इन्हें कोई सीट नहीं मिली है। ये दोनों दल कुर्मी नेता सोनेलाल पटेल के ‘अपना दल’ के विभाजन के बाद बने। आज दोनों बिखर कर अपना प्रभाव खो चुके हैं मगर अपनी जातिगत पूंजी में अपने ही हाथों सेंध लगाने से नहीं चुक रहे हैं। सोनेलाल पटेल की एक पुत्री 2022 में सपा से सिराथू की सीट पर विजयी रहीं और दूसरी बेटी अनुप्रिया पटेल, अध्यक्ष, अपना दल (सोनेलाल), शुरू से भाजपा के साथ हैं और उनके पास विधान सभा की 15 सीटें हैं।

उत्तर प्रदेश में वंचित समुदाय के बीच से एक और पार्टी दिखाई देती है, वह है निषाद पार्टी, जिसके अध्यक्ष हैं संजय निषाद। यह परिवारिक पार्टी भी भाजपा के साथ है और विधान सभा में इसकी 6 सीटें हैं। संजय निषाद एमएलसी हैं और कैबिनेट मंत्री हैं। एक बेटा सांसद है और दूसरा विधायक। कुल जमा यही पार्टी है। बेटों और बाप का हित, पार्टी हित है। फिर भी केवट, मल्लाह या निषाद जातियां इनके साथ हैं तो यह बहुजन समाज की दयनीय स्थिति का द्योतक है। ओमप्रकाश राजभर की भाजपा से बढ़तीं नजदीकियां, सबसे ज्यादा संजय निषाद को खल रही हैं क्योंकि उन्हें लग रहा है कि उनकी अहमियत कुछ कम न हो जाये? वह कह रहे हैं कि मैं ज्यादा स्थाई वफादार हूं न कि राजभर। चाटुकारिता और चरणवंदना की इस बहुजन राजनीति को अगर दासत्व नसीब हो तो किसे दोष देंगे?

इस प्रकार उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में बहुजन वैचारिकी तार-तार बिखरी हुई है। उसके तेवर भोथरे हो चुके हैं। जातिगत नायकत्व को उकसाकर कुछ जातियों के नेता, जाति गोलबंदी कर, जहां बहुजन एकता को तोड़ने, बहुजन हितों से सौदा करने का काम कर रहे हैं वहीं, बाप के बाद बेटा, राजनीति की वंशपरंपरा को बढ़ाने और अपना साम्राज्य बढ़ाने का ख्वाब पाले हुए हैं। दलित या पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वाली किसी भी पार्टी के पास, वंश परंपरा से भिन्न, बहुजन समाज की भलाई का कोई दर्शन नहीं है। स्वार्थ चरम पर है और हर हाल में कुर्सी, लूट और अकूत कमाई ही प्रमुख है।

दलित और पिछड़ी जातियां भी अपने जाति के भ्रष्ट, बहुजन विरोधी नेताओं के गले में माला डालने में पीछे नहीं हैं। यही कारण है कि उनके नेता, अपने हितों के लिए भाजपा जैसी हिन्दूवादी पार्टी से हाथ मिलाकर बहुजनों की वैचारिकी को खत्म करने का काम कर रहे हैं। बहुजनों को अपमानित होते देख रहे हैं। आज वंचितों के युवाओं को सरकारी नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा। निजी नौकरियों में उनको स्थान न के बराबर है और सरकारी पदों पर लेटरल इन्ट्री, इ.डब्लू.एस. और एन.एफ.एस.(नॉट फाउंड सुटेबल) के जरिए उनका हिस्सा हड़पा जा रहा है मगर उनके नेताओं को इससे कुछ लेना-देना नहीं है।

उत्तर प्रदेश के जिस ‘महान दल’ ने बसपा प्र्रमुख बहन मायावती के हाथ मजबूत करने को ठानी है, उसने बहनजी की राजनीति कौशल तो देखा ही होगा? पिछड़ों को साथ लेकर प्रदेश राजनीति में कभी भूचाल लाने वाली मायावती ने विगत दस-बारह वर्षों में कभी जमीन पर उतर कर कोई संघर्ष नहीं किया है। आए दिन दलितों की हत्याएं हो रही हैं। हाथरस का बलत्कार हो या दलित दूल्हों को घोड़ी पर न बैठने देना, पानी पीने पर जान ले लेना, ऐसे दलित उत्पीड़न की घटनाएं, कभी भी मायावती को उद्वेलित नहीं करतीं। तथापि वह दलितों और मुस्लिमों को साधने का दावा कर रही हैं। उनकी बयानबाजी और गतिविधियां भाजपा को मदद पहुंचाती दिख रही हैं। मुस्लिमों को चुनाव में खड़ा करने की नीति, मुस्लिम वोटों को प्रमुख विपक्षी दलों से अलग करने की नीति है और इससे बहनजी के बजाय भाजपा को फायदा मिलने वाला है।

उत्तर प्रदेश और बिहार की बहुजन राजनीति का दुर्भाग्य रहा कि पन्द्रह-सोलह वर्षों तक सत्ता में रहने के बावजूद, अपनी काबिलियत से कोई आदर्श स्थापित नहीं कर सकी। अपनी जाति के बजाए वंचित वर्गों को चेतनशील नहीं बनाया। केवल अपनी-अपनी जाति का झंडा बुलंद रखना ही अंतिम उद्देश्य रहा। उसने वंचितों की शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए बेहतर कार्य नहीं किया। ओबीसी और दलित वर्ग के मुख्यमंत्रियों ने अपनी जनपक्षधरता का लोहा मनवाना तो दूर, भ्रष्टाचार के दलदल से स्वयं को मुक्त न रखा।

बहुजनों की मुक्ति के लिए सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य को सुदृढ़ और जनसुलभ कर मुक्तिकामी प्रयास किया जा सकता था, जिससे वंचित समाज आगे बढ़ता। वंचितों की सुरक्षा के लिए नीतिगत बन्दोबस्त किये जाते, जिनमें हर थाने पर कम से कम पचास प्रतिशत वंचित वर्ग के सिपाहियों की हिस्सेदारी होती। इससे वंचित समाज में सुरक्षा का भरोसा पैदा होता।

दलितों और पिछड़ों की रहनुमाई करने वाले दलों का जो उदय हुआ, वह सनातनी पाखंडों और जातिदंश की ऊर्जा के कारण तो था मगर वहां बिना किसी ठोस वैचारिकी के, व्यक्तिवाद और कुलीनतावाद से मुक्ति नहीं मिल पाई। बहुजन नेताओं की कमियों पर कुलीनतावादियों की दृष्टि थी। वे अवसर की तलाश में थे। जैसे ही उन्हें अवसर मिला, उन्होंने बहुजन नेताओं को लालच और धन से खरीद लिया। कुछ ने ना-नुकुर किया तो कानून के फांस में फंसाया और उन्हें सदा-सदा के लिए भोथरा कर दिया। इसलिए बहुजन को अपनी मुक्ति के लिए, जातिगत नेताओं से अतिशय प्रेम रखना खतरनाक सिद्ध होगा।

बहुजन का शोषक, बहुजन भी हो सकता है, इसे स्वीकार करना होगा। अन्यथा आंख मूंद कर समर्थन करने से गड्ढे में गिरने की संभावना बनी रहेगी। आज वंचितों की मुक्ति का संकट, दलित और ओबीसी नेताओं की नपुंसकता, सौदेबाजी और व्यक्तिगत स्वार्थ से जुड़ा मामला है। वे अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारते दिख रहे हैं। बेशक उन्हें ‘स्टूल मंत्री’ कहलाने से भी परहेज नहीं है। इसलिए जीतन राम मांझी को एक बार फिर अपमान का अंतिम घूंट पीना पडे़ तो इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

बहुजन राजनीति करने वाली पार्टियों के इस पतन की दिशा को बहुत पहले सीपीआई (माले) के तत्कालीन महासचिव विनोद मिश्र ने रेखांकित करते हुए कहा था कि बसपा जैसी जातिगत राजनैतिक पार्टी का अंत कांग्रेस या भाजपा जैसी सवर्ण समर्थित पार्टियों में हो जायेगा। तब यह बात बहुतों को नागवार लगी थी। आज बहनजी जहां बैठी हुई हैं, उस बात की अहमियत आसानी से समझी जा सकती है।

(सुभाष चन्द्र कुशवाहा लेखक एवं इतिहासकार हैं।)

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ARUN KHOTE
ARUN KHOTE
Guest
10 months ago

बहुजन राजनीति पर बहुत अच्छी समीक्षा है l लेकिन यह एक पक्ष है l बहुजन समुदाय और अवसरवादी कुकुरमुत्तों के बीच की कड़ी ब्लाक और ग्राम पंचायत स्तर के राजनैतिक सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं l जो हमेशा से ठगे गये हैं l आज के समय में सबसे ख़राब स्थिति उन्हीं की है l वह लोग पूरी बहुजन राजनीति की विवेचना और समीक्षा से बाहर हैं l अपने वजूद के संघर्ष में यह लोग NGO नेटवर्क के प्रोजेक्ट लागु करने वाले स्थानीय प्रतिनिधि या इन्ही बहुजन अवसरवादियों के प्रतिनिधि बनकर रह गये हैंl दूसरी तरफ वैचारिक रूप से कमजोर होने के कारण वह इन तथाकथित बहुजन नेतृत्व के पिछलग्गू बनकर रह गये हैं l पिछले डेढ़ वर्षों से मैं लगभग 20 जिलों के इन कार्यकर्ताओं से मिला और हाल ही में उनके क्षेत्रों में उनके साथ घुमा हूँ l बहुत मायूसी और पीड़ा के साथ वह अपना दर्द बयान करते हैंl

आपसे यह आपेक्षा जरुर रहेगी कि वामपंथी दलों से (वामपंथ से नहीं ) दलित कार्यकर्ताओं के मोहभंग पर भी कुछ जरुर लिखें l

सुभाष जी को साधुवाद !

Subhash Chandra Kushwaha
Subhash Chandra Kushwaha
Guest
Reply to  ARUN KHOTE
10 months ago

शुक्रिया। जरूरी टिप्पणी के लिए। सुझाव स्वीकार्य है।

Manoj manav
Manoj manav
Guest
10 months ago

Pls join us