राजस्थान सरकार का ‘गिग वर्कर्स बिल’ क्यों नाकाफी है?

24 जुलाई को राजस्थान विधानसभा में प्लेटफ़ार्म आधारित ‘गिग वर्कर्स बिल’ पास होने के बाद से ही इस बिल की चर्चा चारों ओर सुनाई दे रही है। राजस्थान सरकार के साथ ही राहुल गांधी समेत कांग्रेस पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व, सिविल सोसायटी से जुड़े लोग और केन्द्रीय ट्रेड यूनियन भी इसे ‘गिग वर्कर्स’ के पक्ष में एक बड़ा कदम बता रहे हैं।

कौन होता है ‘गिग वर्कर’?

‘गिग वर्कर’ शब्द ना केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए भी काफ़ी नया है। इसकी जड़ें अमेरिका के पॉप-कल्चर से जुड़ी हैं। अमेरिका और उसके बाद पश्चिम के अन्य देशों में रेस्टोरेन्ट और बार में हर शाम कुछ समय परफ़ॉर्म करने वाले संगीत और कॉमेडी से जुड़े कलाकारों के लिए गिग शब्द का इस्तेमाल किया जाता था, बाद में गिग शब्द का अर्थ विस्तार करते हुए इसका इस्तेमाल उन सारे श्रमिकों के लिए किया जाने लगा जिनका रोज़गार अनियमित प्रकृति का होता है।

भारत में इस शब्द का प्रयोग इन्टरनेट आधारित सर्विस प्लेटफ़ार्म के ईजाद के बाद होने लगा है, मुख्यतया इसमें वे श्रमिक आते हैं जो स्विगी, जोमेटो, उबर जैसे एप्प के ज़रिए सामान पहुंचाने या शहर के भीतर लोगों को वाहनों के ज़रिए यातायात उपलब्ध करवाते हैं। इन ऐप्स की पूरी निर्मिति ही उनके लिए काम करने वाले श्रमिकों के शोषण के लिए की गई है। ये प्लेटफ़ार्म्स अपने लिए काम करने वाले श्रमिकों को कर्मचारी ना मानकर ‘पार्टनर’ की तरह सम्बोधित करते हैं। इससे वे तमाम हक़ जो एक श्रमिक को मिलना चाहिए उनसे वे महरूम रह जाते हैं।

पार्टनर कहे जाने वाले इन श्रमिकों को न्यूनतम मज़दूरी, बोनस, पीएफ, यूनियन बनाने का अधिकार, आठ घंटे का काम और अधिक काम करने पर ऑवरटाइम जैसा कोई अधिकार नहीं मिलता। पारम्परिक एम्प्लॉयर-एम्प्लॉयी के बजाय एग्रीगेटर-पार्टनर होने के कारण महज़ एक मोबाइल नोटिफिकेशन के ज़रिए उनकी आईडी ब्लॉक कर उन्हें काम के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है।

वहीं इन ऐप्स के एल्गोरिदम का डिज़ाइन भी श्रमिकों के हक में नहीं है। राजस्थान सरकार की ही मानें तो राजस्थान में अभी 3 से 4 लाख के बीच में गिग वर्कर्स होने का अनुमान है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट की मानें तो आने वाले 8 सालों में भारत में ढाई करोड़ से भी अधिक गिग वर्कर हो जाएंगे।

क्या है प्लेटफ़ॉर्म बेस्ड गिग वर्कर्स बिल?

राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘राजस्थान प्लेटफ़ार्म आधारित गिग वर्कर्स बिल (पंजियन एवं कल्याण)’ विधानसभा में बिना किसी संशोधन के ही पास हो गया। इस बिल के अनुसार सरकार राज्य में एक गिग वर्कर्स कल्याणकारी बोर्ड की स्थापना करेगी। पांच सदस्यों वाले इस बोर्ड में एक सदस्य गिग वर्कर, एक किसी एग्रीगेटर प्लेटफ़ार्म की तरफ़ से प्रतिनिधि, दो नागरिक समाज के लोग और सम्बन्धित विभाग के मंत्री या अधिकारी होंगे।

इसके अंतर्गत सारे गिग वर्कर्स का पंजीयन कर कार्ड बनाया जाएगा, जिससे वे राजस्थान सरकार की कई जनकल्याणकारी योजनाओं- प्रमुख तौर पर ‘मुख्यमंत्री दुर्घटना बीमा योजना’ के लिए प्रार्थी हो जाएंगे। यह बोर्ड गिग वर्कर्स की शिकायत सुन कर उनका निवारण करेगा, साथ ही प्रत्येक प्लेटफ़ार्म को 1-2% सेस प्रति ऑर्डर इस बोर्ड को देने होंगे, जिसका उपयोग गिग वर्कर्स के कल्याण के लिए किया जाएगा।

सेस का भुगतान समय पर नहीं करने पर एग्रीगेटर को 12% की ब्याज दर से भुगतान करना होगा। बोर्ड के पास एग्रीगेटर पर जुर्माना लगाने का भी अधिकार होगा, बोर्ड चाहे तो 5 लाख से 50 लाख तक का जुर्माना लगा सकेगा।

क्या सच में यह कोई ‘बड़ा कदम’ है?

सरकार के प्रशंसक इस बिल को ‘दुनिया में पहली बार’, ‘माइलस्टोन’ और ‘बड़ा कदम’ की उपमाएं दे रहे हैं, लेकिन जानकार बताते हैं कि यह गिग वर्कर्स के बजाय तथाकथित एग्रीगेटर के हक में साबित होगा।

गिग वर्कर्स के संगठन ‘डिलीवरी वॉइस’ से जुड़े संगठनकर्ता सौम्य बताते हैं कि “भले ही राजस्थान सरकार इसे क्रांतिकारी कदम बता रही हो, लेकिन यह क़ानून अंदर से बहुत खोखला है। वैश्विक पूंजी से बने ये डिजीटल सर्विस प्लेटफ़ार्म श्रमिकों का और अधिक शोषण करने के लिए उन्हें अपना कर्मचारी ना मान कर ‘पार्टनर’ मानते हैं, वहीं केन्द्र सरकार द्वारा लाए गए चार श्रम कोड भी मानते हैं कि गिग वर्कर्स को पारम्परिक एम्प्लॉयर-एम्प्लॉयी की तरह नहीं देखा जा सकता, इसलिए इस क्षेत्र को असंगठित श्रम क्षेत्र की तरह चिन्हित किया गया है।”

सौम्य कहते हैं कि “राजस्थान सरकार का यह बिल भी गिग वर्कर को असंगठित क्षेत्र की तरह देख कर पूंजीपतियों और केन्द्र सरकार के साथ खड़ा दिखाई पड़ता है। लेकिन गिग वर्कर असंगठित क्षेत्र के बजाय संगठित क्षेत्र है, वो सारे अधिकार जो एक संगठित क्षेत्र के श्रमिक को मिलने चाहिए उनके वो हक़दार है”।

वहीं जेनयू से जुड़े शोधार्थी सौर्य मजूमदार बताते हैं कि “यह बिल BOCWW (Board of Construction Workers Welfare) की तर्ज़ पर बनाया गया है। एक तरफ़ तो यह एक संगठनात्मक श्रम को अंसगठित क्षेत्र की तरह देखता है ही, अगर इस प्रकार के बोर्ड से जुड़े पहले के अनुभवों को देखें तो वह अधिकतर पूंजीपतियों के पक्ष में ही साबित हुए हैं। अगर कई बार अपवाद स्वरूप वे श्रमिकों के पक्ष में होते भी हैं तो उसके लिए सामूहिक दबाव की आवश्यकता पड़ती है।”

सौर्य मजूमदार कहते हैं कि “ट्रेड यूनियन के बजाय सिर्फ एक ‘गिग वर्कर’ को बोर्ड में शामिल करना भी बताता है कि ऐसे बोर्ड श्रमिकों के पक्ष में ज़्यादा शक्तिशाली नहीं साबित हो पाएंगे। सेस का उपयोग भी अधिकतर श्रम मंत्री और नौकरशाह अपने मन से करते हैं। कई बार उसका उपयोग श्रम विभाग के अपने दूसरे कामों में कर लिया जाता है।”

इन बातों से स्पष्ट होता है कि भले ही राजस्थान सरकार और कांग्रेस पार्टी इसको बड़ा कदम बताएं लेकिन यह गिग वर्कर्स की मूल समस्य को केन्द्र में रखकर नहीं बनाया गया है। यह गिग वर्कर को असंगठित क्षेत्र का श्रमिक बताने की पूंजीपतियों की धारणा पर सरकारी मोहर लगाता है। वहीं पहले से चल रही राज्य कल्याणकारी योजनाओं में गिग वर्कर्स को जोड़ना (अधिकांश तो उन योजनाओं के पहले से ही प्रार्थी है) भी कोई बहुत बड़ा कदम नज़र नहीं आता।

इन सब सवालों के चलते चुनावी साल में राजस्थान की कांग्रेस सरकार का यह कदम महज़ एक हेडलाइन बनाने और सुर्ख़ियां बटोरने का प्रयास है, इससे ‘गिग-वर्कर’ कहकर अपने अधिकारों से नकार दिए गए श्रमिकों के सरोकार बहुत कम जुड़े हैं।

(विभांशु कल्ला ने मॉस्को के हायर स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से डेवलपमेंट स्टडीज़ में मास्टर्स किया है, और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर लिखते रहे हैं।)

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Rajesh
Rajesh
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8 months ago

Rajasthan sarkaar ka geeg workers ke baarey mei souchana bada kadam hai, ummid hai ki samay samay par ismey sudhaar hoga or baaki rajayo ki sarkaar v ish sandarbh mei kanoon banaygi..