दावा-दवा वही, दाम सही; हकीकत-0.0002 ₹ का 12.05 ₹

इस माह के शुरुआत में ही केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के हवाले से खबर आई कि 651 दवाओं के दाम 6.57 फीसदी कम कर दिये गये हैं। इसी के साथ केन्द्र सरकार के फार्मास्युटिकल्स विभाग द्वारा बताया गया कि इससे साल भर में 3,532.24 करोड़ रुपयों की बचत होगी। कॉर्पोरेट कैंपेन के इस युग में एकबारगी यह खबर वज़नदार लगती है। वहीं नेशनल फार्मास्युटिकल्स प्राइसिंग अथॉरिटी की बेवसाइट खोलने पर ही दवा वही दाम सही लिखा मिलता है। आखिरकार इस महंगाई के समय में 3.5 हज़ार करोड़ रुपये मायने रखता है। फिर भी एक बार थोड़ी गहराई में उतरकर इसकी पड़ताल करने में क्या हर्ज है? हम पहले ही बता दें कि जो दवाओं के दाम निर्धारित करते हैं उन्हें अपने पॉकेट से खर्च करके दवा नहीं खरीदनी पड़ती है।

सरकारी रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में साल 21-22 में 1,69,170 करोड़ रुपयों की दवा बिकी थी। यदि इसे ही मानक मानकर गणना की जाये तो 3,532.24 करोड़ रुपये इसका 2.08 फीसदी होता है। इस तरह से महज 2.08 फीसदी ही दवाओं (कुल दवाओं से) के दाम कम चुकता करने पड़ेंगे। यदि 10, 20 या 30 फीसदी दवाओं के दाम कम किये जाते तो जनता को फर्क पड़ता। तब कहा जा सकता था कि सबके साथ में, सबके विकास में भागीदार।

दूसरी एक सच्चाई और है जिस ओर हम आप का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। दवाइयां बनती हैं बल्क ड्रग से। हालांकि उसे कन्वर्ट करना पड़ता है, पैक करना पड़ता है तथा परिवहन के साधनों से भेजना भी पड़ता है। फंगस की दवा फ्लुकोनाज़ोल के 150 मिलीग्राम की गोली जिसे मैनकाइंड नामक दवा कंपनी भी बनाती है, पहले इसका दाम 12.41 रुपये प्रति गोली थी जिसे कम करके 12.05 रुपये का कर दिया गया है। मुंबई ड्रग मार्केट में 11 अप्रैल 23 को इसके 5 किलो का दाम 8,300 रुपये का था। इस तरह से 1 किलो का दाम हुआ 1660 रुपये। इस 1 किलो बल्क ड्रग से बनेंगे 150 मिलीग्राम की 66 लाख 66 हजार 666 टैबलेट। और हर 150 मिलीग्राम के टैबलेट में होगा 0.0002 रुपये का बल्क ड्रग। अब कुछ-कुछ साफ हो रहा है कि मामला दरअसल क्या है।

एक दूसरा उदाहरण भी देख लेते हैं। 1 अप्रैल से पहले बुखार की दवा पैरासिटामोल के 500 मिलीग्राम की एक गोली की सीलिंग कीमत थी 1.01 रुपये जिसे घटाकर 0.89 रुपये कर दिया गया है। 11 अप्रैल 23 को मुंबई ड्रग मार्केट में पैरासिटामाल के बल्क ड्रग के 25 किलो का मूल्य था 465 रुपये। इस तरह से 1 किलो का मूल्य हुआ 18.6 रुपये। जिससे पैरासिटामाल के 500 मिलीग्राम के 2000 टैबलेट बन सकते हैं। इस प्रकार से पैरासिटामाल के एक टैबलेट में 0.0093 रुपये का बल्क ड्रग शामिल है। और उसे बेचा जा रहा है 0.89 रुपये में। अब आपको भी लगने लगा होगा कि मिट्टी को सोने-हीरे के मोल बेचा जा रहा है।

गौरतलब है कि दवाओं पर पहली बार मूल्य नियंत्रण 1962 में चीन से युद्ध के बाद लागू किया गया था। वर्तमान में दवा मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 लागू है जिसे यूपीए-2 सरकार ने लाया था। उससे पहले दवा मूल्य नियंत्रण आदेश 1995 लागू था। हम सबसे पहले 1995 के दवा मूल्य नियंत्रण आदेश में क्या था उस पर गौर कर लेते हैं उसके बाद 2013 पर आते हैं।

मूल रूप से 1995 का दवा मूल्य नियंत्रण आदेश दवाओं के लागत मूल्य के आधार पर तय किया जाता था। जिसके तहत मटेरियल कास्ट के साथ कन्वर्जन कास्ट, पैकिंग मटेरियल, पैकिंग चार्ज को जोड़ने के बाद उसका मूल्य तय किया जाता था तथा टैक्स जोड़ा जाता था। इसके बाद देशी दवाओं में 100 फीसदी ‘मैप’ (Maximum Allowable Post-manufacturing Expenses) को जोड़ने की अनुमति थी। इसी तरह से विदेशों से आयातित दवाओं के लैंडिग कास्ट में 50 फीसदी मैप की अनुमति थी।

जबकि 2013 का दवा मूल्य नियंत्रण आदेश बाजार भाव (1995 के आदेश के अनुसार भाव ) पर आधारित था। इसे यूपीए-2 सरकार ने लागू किया था जो कॉर्पोरेट परस्त नीति का हिस्सा है। इसमें जो-जो दवा, दवा बाजार के टर्नओवर के 1 फीसदी के बराबर बिकती थी उसे मूल्य नियंत्रण के दायरे में ले लिया गया। बाद में आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची की दवाओं को इसमें शामिल कर लिया गया। मान लीजिये कोई दवा उच्च रक्तचाप की है। उसके बाजार में उपलब्ध सभी दवाओं के अधिकतम खुदरा मूल्यों का औसत ही सीलिंग प्राइज होने लगा। इस तरह से दवाओं के लागत मूल्य के बजाय बाजार भाव के आधार पर मूल्य नियंत्रण का गोला दागा गया।

हाल ही में मोदी सरकार द्वारा इसी 2013 के मूल्य नियंत्रण आदेश के आधार पर दवाओं का मूल्य कम किया गया है। और उसका क्या हश्र हुआ वह हमने उपर स्पष्ट कर दिया है। यदि वाकई में जनता की भलाई चाहिये तो मोदी सरकार को फिर से दवाओं के लागत मूल्य के आधार पर मूल्य नियंत्रण लागू करना चाहिये। इसके अलावा मैप या Maximum Allowable Post-manufacturing Expenses पर शिकंजा कस देना चाहिये।

पहले मैप 100 फीसदी था। जिसमें 20 फीसदी खुदरा विक्रेता का, 10 फीसदी थोक विक्रेता का, 3 फीसदी सुपर थोक विक्रेता या सी एण्ड एफ एजेंट का तथा दवा निर्माता का 17 फीसदी मार्जिन तय कर देना चाहिये। इससे दवाओं के मूल्य 50 फीसदी तक कम हो जायेंगे। हां, चोट पड़ेगी दवा कंपनियों के मुनाफे पर जो 50 फीसदी कम हो जायेगी। तब ही माना जायेगा कि जनता के लिये दवा वही दाम सही। गौरतलब है कि विश्व-स्वास्थ्य-संगठन का साउथ-ईस्ट एशिया के बारें में कथन है कि निम्न एवं मध्यम आय के देशों में चिकित्सा-खर्च का 40 फीसदी दवाओँ पर ही खर्च करना पड़ता है वह भी अपनी जेब से।

(जयब्रत कुमार कर वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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