जंगलों और पारिस्थितिकी के लिए खतरे की घंटी है वन संरक्षण कानून 1980 में प्रस्तावित संशोधन

हाल ही में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वन संरक्षण अधिनियम 1980 में प्रस्तावित संशोधनों को लेकर प्रकाशित मसौदा दस्तावेज पर हिमाचल प्रदेश के विभिन्न पर्यावरणवादियों और सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने अपनी आपत्तियां जाहिर की हैं। उनका कहना है कि वन संरक्षण कानून 1980 में प्रस्तावित संशोधन गैर लोकतांत्रिक है, इस से जंगलों पर आश्रित लोगों एवं हिमाचल की संवेदनशील पारिस्थितिकी पर विपरीत असर पड़ेगा।

हिमाचल के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 2/3 भाग वनों के दायरे में आता है। 90% आबादी ग्रामीण है जो वन अधिकार कानून 2006 के अंतर्गत अनु सूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों की श्रेणियों के तहत आती है। मसौदा मंत्रालय की वेबसाइट पर अंग्रेजी में प्रकाशित किया गया और टिप्पणियों के लिए केवल 1 नवंबर तक का समय दिया गया है। इसकी प्रक्रिया ने उस लोकतांत्रिक प्रक्रिया की संभावना को खारिज कर दिया है जहां लोग अपनी बात रख सकें।

हिमाचल प्रदेश वन्य जीव जंतुओं, वनस्पतियों और विभिन्न किस्म के जंगलों से भरी जैव विविधता का गढ़ है, लेकिन बड़े पैमाने पर निर्मित हो रहे बांधों, फॉर लेन राजमार्गों, खदानों व अन्य ढांचागत परियोजनाओं के चलते इस पर लगातार खतरा मंडरा रहा है। इस से भी बढ़कर राज्य पिछले दशक से ही लगातार जलवायु संकट के गंभीर प्रभावों के चलते विशेषकर आपदाओं, सार्वजनिक संपत्ति और जान-माल की हानि का सामना कर रहा है। इसके बचाव के लिए कुंजीभूत उपाय हैं बचे हुए जंगलों की सुरक्षा करना और वन संसाधनों के प्रबंधन और स्वामित्व पर स्थानीय समुदायों के अधिकार को मजबूत करना।

हिमधारा की संस्थापक मानशी अशेर का कहना है कि मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित संशोधन निजी कंपनियों के हितों के फायदे के लिए अनुमति प्रक्रिया (clearance process) को नियमन से बहार कर रही है। उदाहरण के तौर पर सीमा क्षेत्र में ढांचागत परियोजनाओं के लिए केंद्र सरकार से ली जाने वाली वन अनुमित को रद्द किया जा रहा है। इस तरह का संशोधन किसी आपदा से कम नहीं है। हिमाचल प्रदेश में अत्यधिक नाजुक ऊंचाई वाले क्षेत्र हैं जहां पर जंगल बहुत थोड़े हैं, जो इस तरह के क्षेत्र के पारिस्थितिक तंत्र का संतुलन बनाए रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। ज्ञान में कहा गया है कि यहां पर पहले से ही विकास गतिविधियों के लिए काटे गए जंगलों के चलते, जंगल पहले से ही खतरे की स्थिति में है।

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि यह इलाका आदिवासी जिलों में पड़ता है जहां पर मूल निवासी समुदाय के वन अधिकार कानून 2006 के अंतर्गत अधिकार हैं और जो लागू होने की प्रक्रिया में हैं। भूमि के इस्तेमाल में बदलाव और अन्य परियोजनाओं के लिए जंगलों को काटने आदि के लिए यहां पर ग्राम सभा की अनुमति जरूरी होती है। और इस प्रावधान को बदला नहीं जा सकता।

संशोधन प्रस्ताव में यहां तक कहा गया है कि बिना वन परिवर्तन (फारेस्ट क्लियरेंस) की अनुमति जंगलों में भूमिगत गतिविधियां जैसे तेल आदि दोहन के लिए ड्रीलिंग भी की जा सकती है जो कि समस्या जनक है। अगर हम पर्वतीय दृष्टिकोण से देखें तो इसमें भू विज्ञान, भू जल विज्ञान, टोपोग्राफी और पारिस्थितिकी विज्ञान महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यहां पर इस के भारी मात्रा में सबूत हैं कि किसी भी तरह के भूमिगत निर्माण प्राकृतिक भूगोलीय संरचना और भू जलीय संरचना दोनों को नुकसान पहुंचाते हैं, बाद में जो जमीन में दरारों, भू स्खलनों, झरनों के सूखने और जमीन पर वनस्पति के सूख जाने के तौर पर दिखाई देते हैं।

जब परियोजना के मालिक (और उनके ठेकेदार) किसी भी तकनीक का उपयोग करते हैं तो उनका प्राथमिक उद्देश्य दक्षता और समय पर अपनी परियोजना के लक्ष्य को पूरा करना होता है ताकि लागत में वृद्धि से बचा जा सके और लाभ सुनिश्चित किया जा सके। वे अपने कार्य में न तो विज्ञान के नियमों को लागू करते और न ही कानून का पालन करते। इस में कोई संदेह नहीं है कि भूमिगत गतिविधियों का पारिस्थितिकी तंत्र पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा और इसको एफसीए के प्रावधानों से छूट नहीं दी जानी चाहिए।

लोक कृषि वैज्ञानिक नेकराम शर्मा, भाकपा के राज्य सचिव श्याम सिंह चौहान ने कहा ये वृक्षारोपण गतिविधियों के लिए वनों की परिभाषा से ‘निजी वनों’ को हटाने के प्रस्ताव पर भी सवाल उठाता है। इस तरह के निजी वन कई वर्ग किलोमीटर के इलाके में फैले हुए होते हैं। उदाहरण के तौर पर शामलाती वन जो 2001 में पुनः निजी भूमि धारकों को पास चला गया। यह जमीन भूमिहीन समुदाय सामूहिक और अन्य उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करते हैं जिनके इस पर अधिकार भी हैं। कुछ मामलों में वे संरक्षित और आरक्षित वनों के आसपास होते हैं और आजीविका के उद्देश्यों के लिए उपयोग किए जाने के अलावा उस क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

आरएस नोगी, हिमलोक जागृति मंच किन्नौर, कुलभुषण उपमन्यू, हिमाचल बचाओ समिति, जिया लाल नेगी, जिला वन अधिकार संघर्ष समिति किन्नौर के अनुसार निजी वनों पर इस कानून को लागू करने से पहले सामाजिक- आर्थिक और पारिस्थितिक तंत्रीय सेवाओं का विस्तृत समझदारी, अध्ययन की जरूरत है। तथाकथित मालिकों को इस तरह के जंगलों पर खुला हाथ देने से, ऐसी जमीनों पर ढांचे खड़ा करने देने से विभिन्न किस्म के झगड़े बढ़ने की संभावनाएं हैं। एमओईएफएंडसीसी अचानक आखिर क्यों इस तरह के मनमाने संशोधन करने पर उतारू है?

बंसी लाल, समाजसेवी करसोग, मंडी ने कहा ये बहुत हैरान करने वाला है कि न तमाम वर्षों में आदिवासी, वनों पर आश्रित जनता एफसीए के कठोर नियमों का परिणाम भुगत रही है और उसको एफसीए के संशोधनों में कोई राहत देने के लिए सुझाव नहीं दिए गये हैं। अंततः वन अधिकार कानून 2006 के तहत, ऐतिहासिक अन्याय को दूर करते हुए उनको हिस्सेदार बनाया गया लेकिन मंत्रालय द्वारा जारी मसौदा वन अधिकार कानून के बारे में चुप्पी साधे हुए है।

सुखदेव विश्व प्रेमी, आर्थिक-सामाजिक समानता का जन अभियान, कांगड़ा ने कहा जिस तरह एफसीए ने 2017 के संशोधित नियमों में वन मंजूरी के लिए एफआरए, 2006 के प्रावधानों के तहत अधिकारों देने की शर्त और ग्राम सभा की एनओसी को शामिल किया है; मूल एफसीए, 1980 में भी एफआरए के प्रावधानों को शामिल करने की आवश्यकता है। तभी एफआरए, 2006 के प्रावधानों का पूरी तरह से पालन किया जा सकेगा। वन भूमि पर कोई भी गतिविधि, भले ही वह वृक्षारोपण हो, ग्राम सभा के माध्यम से यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वनों और स्थानीय हितों की रक्षा हो।

सभी का कहना है कि हम मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित मसौदे पर अपनी चिंता व्यक्त करते हैं जो कुछ गतिविधियों/भूमि के उपयोग को केंद्र सरकार की अनुमति लेने से छूट देता है। यह चौंकाने वाली बात है कि इन सभी वर्षों में, आदिवासी और वननिवासियों को एफसीए के सख्त प्रावधानों का परिणाम भुगतना पड़ा और उन्हें एफसीए में संशोधन प्रस्तावित कर कोई राहत नहीं दी गई। उदाहरण के लिए – हिमाचल प्रदेश राज्य में भूमिहीनों को जमीन देने के लिए नौतोड़ नियम बनाए गए थे। लेकिन वन संरक्षण कानून 1980 आने के बाद दशकों तक ये अधर में लटके हुए हैं। बहुत सारे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के कब्जों को नियमित नहीं किया गया। जबकि वन अधिकार कानून (एफआरए) 2005 से पहले के कब्जों में कुछ राहत प्रदान करता है, जबकि एफसीए में नए आवंटन असंभव हैं। हालांकि ये ऐसे समुदाय हैं जो सरकार की प्राथमिकता में होनी चाहिए थे लेकिन मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित मसौदा एफआरए के प्रावधानों पर तो चुप्पी साधे हुए है जबकि बड़े निजी खिलाड़ियों और कंपनियों के व्यापारिक हितों के पक्ष में खड़ा हुआ है।

हस्ताक्षर कर्ता

आरएस नोगी, हिमलोक जागृति मंच किन्नौर

आल इंडिया गुज्जर महासभा, चम्बा

किरपा राम समाजसेवी बढ़ो रोहड़ा , मंडी

किशोरी लाल, जिला परिषद मेंबर, वार्ड सराहान जिला मंडी

कुलभूषण उपमन्यू, हिमाचल बचाओ समिति

जिया लाल नेगी, जिला वन अधिकार संघर्ष समिति किन्नौर

ताकपा तेनजिन, स्पिति सिविल सोसाइटी, लाहुल स्पिति

धनी राम, सिरमौर वन अधिकार मंच

नेक राम शर्मा, लोक कृषि वैज्ञानिक नांज, करसोग, मंडी

प्रेम कटोच, सेव लाहुल स्पिति, लाहुल-स्पिति

बंसी लाल, समाजसेवी करसोग, मंडी

मनोज, चम्बा वन अधिकार मंच

मानशी अशेर, हिमधरा, कांगड़ा

मीतू शर्मा, लेखिका, करसोग मंडी

मुनीश कास्त्रो, रिजनल कार्डिनेटर देश की बात फाउंडेशन, बिलासपुर

रविकुमार दलित भीम आर्मी हिमाचल प्रदेश

रोहित आजाद, हिमाचल नागरिक सभा, मंडी

लाल हुसैन, गुज्जर समाज एंव कल्याण सभा, चम्बा

श्याम सिंह चौहान, राज्य सचिव, भाकपा हिमाचल प्रदेश

संत राम, समाजसेवी, चरखड़ी, मंडी

सुखदेव विश्व प्रेमी, आर्थिक-सामाजिक समानता का जन अभियान, कांगड़ा,

सुरेश कुमार, अध्यक्ष, राइट फाउंडेशन, हिमाचल प्रदेश

हिमालयन स्टूडेंट एन्सेंबेल, हिमाचल

शांता नेगी, अध्यक्ष, हंगरांग समिति किन्नौर

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