जलवायु परिवर्तन: अपने वायदों को कैसे पूरा करेगा भारत

आज जब लाखों लोग जलवायु परिवर्तन की वजह से तबाह हो रहे हैं, इसकी अनदेखी करना असंभव हो गया है। ऐसे में जोखिम घटाने, लचीलापन बनाने, अनुकूलन में सहायता करने, आपदा की पूर्व-तैयारी करने और दूसरे उपायों पर ध्यान केन्द्रित करना अत्यधिक जरूरी है। पर हैरानी की बात है कि राष्ट्रीय जलवायु कार्य योजना के लिए देश के बजट में महज 30 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है। बीते वर्ष (2021-22) की बजट के मुकाबले कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है, बल्कि जरूरत की तुलना में यह रकम बहुत ही मामूली है।

वैसे अर्थव्यवस्था की कार्बन निर्भरता कम करने के लिए अनेक कार्रवाइयों को बजट में शामिल किया गया है जिसमें बिजलीघरों के लिए बायोमास, बैटरी को बढ़ावा, बिजली-खर्च में किफायती वंदेभारत ट्रेनें, बड़े व्यावसायिक इमारतों में बिजली की किफायत करने, ग्रीनबॉंन्डस और अक्षय ऊर्जा में उल्लेखनीय बढ़ोतरी आदि शामिल हैं। हालांकि पर्यावरण कार्यकर्ता सौम्य दत्ता का कहना है कि जलवायु समस्याओं का सामना करने के तौर तरीकों में बजट और सरकार का पाखंड नजर आता है। प्रस्तावित उपायों से अगर कुछ लाभ होने वाला भी होगा तो अर्थव्यवस्था के ‘जो चलता है उसे चलने देने’ के रवैए से वह बेमतलब हो जाएगा, खासकर अधिसंरचना विकास पर अत्यधिक जोर देने की वजह से।

भारत का लक्ष्य वर्ष 2030 तक कुल ऊर्जा उत्पादन का पचास प्रतिशत हिस्सा गैर-जीवाश्म इंधनों से करने का है। प्रधानमंत्री ने ग्लासगोव के विश्व जलवायु सम्मेलन में जो पांच घोषणाएं की, उसमें यह प्रमुख है। परन्तु इस मामले में विशाल सौर्य-पार्क व पवन ऊर्जा पार्क, परमाणु और बड़ी पनबिजली परियोजनाओं पर निर्भरता है। वे सभी पारिस्थितिकी के लिहाज से विनाशकारी हैं। साथ ही किसानों व मछुआरों, चरवाहों व आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने और पानी छिनने वाले हैं। भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों को विकेन्द्रित ढंग से पूरा करने की राह अपना सकता है जिसका पारिस्थितिकीय प्रभाव कम होगा और जिसपर समुदाय का अधिक नियंत्रण होगा। पर इसे पहले की तरह ही नजरअंदाज कर दिया गया है। हालांकि किसानों को सौर्य पंप देने और छतों पर सौर्य संयंत्र लगाना सराहनीय है लेकिन इनके लिए बड़ी परियोजनाओं की तुलना में बहुत कम आवंटन किया है।

टिकाऊ विकास के लिहाज से सबसे नुकसानदेह अधिसंरचनाओं के विकास पर जबरदस्त बजटीय आवंटन है। ऐसा आर्थिक प्रगति और टिकाऊ विकास के दोहरे लक्ष्य को हासिल करने के नाम पर हुआ है। आर्थिक प्रगति के सात चालक चुने गए हैं-सड़क, रेलवे, हवाई अड्डा, बंदरगाह, सार्वजनिक परिवहन, जलमार्ग और साजसज्जा  का विकास। विकास के पश्चिमी प्रचलित मॉडल के लिहाज से यह सब बेहद सुहाना है। पर देश के टिकाऊ विकास और सामाजिक-आर्थिक न्याय के लिहाज से बेहद नुकसानदेह।

इसमें कोई शक नहीं कि देश के कई हिस्सों में खासकर गांवों व छोटे शहरों में बेहतर अधिसंरचनाओं की जरूरत है। लेकिन सरकार का अधिक जोर विशाल परियोजनाओं  जैसे-पच्चीस हजार किलोमीटर लंबा राजमार्ग पर है। राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकार के लिए बजट का आवंटन समूचे पर्यावरण मंत्रालय के 40 गुना अधिक है। राजमार्ग व रेलमार्गों का पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव पड़ता है जिसमें पारिस्थितिकी प्रणाली का विखंडन, नदियों में लाखों टन कचरा गिरना व भूस्खलन आदि शामिल हैं। विडंबना है कि ऐसी परियोजनाओं को पर्यावरणीय आकलन व अनुमति प्रक्रिया से मुक्त रखा जाता है। इनका लोगों की आजीविका पर भी गंभीर नकारात्मक प्रभाव होता है, जिसमें विस्थापन और भूमि अधिग्रहण शामिल है। पहाडी इलाकों के लिए सडकों के विकल्प के रूप में रोपवे का प्रस्ताव जरूर किया गया है।

इस बजट में नदी जोड़ योजना पर काफी जोर दिया गया है। इसका विचार प्रारंभिक रूप से 1980 में आया था, पर सन 2000 के दशक में इस विचार को खासतौर से आगे बढ़ाया गया। राष्ट्रीय नदी जोड़ परियोजना में विभिन्न नदी-घाटियों के बीच जल-अंतरण करने की योजना बनाई गई। इसके लिए विभिन्न नदियों को नहरों के माध्यम से जोड़ने की बात है। योजना सामने आने के समय से ही अनेक अध्येताओं व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसके पारिस्थितिकीय व सामाजिक परिणामों को लेकर आशंकाएं जताई हैं। परन्तु विशाल परियोजनाओं पर मुग्ध सरकारें इनसे डिगने के लिए तैयार नहीं हैं। बजट में मध्य भारत के केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना के लिए भारी आवंटन किया गया है। जबकि परियोजना को अभी पूरी वैधानिक मंजूरी नहीं मिली है। शोधकर्ताओं ने इस परियोजना के नुकसानदेह पर्यावरणीय प्रभाव को लेकर चेतावनी दी है जिसमें बाघों के बसोवास क्षेत्र पर प्रभाव व आदिवासियों के विस्थापन के खतरे की बात है। परन्तु बजट में केवल यही परियोजना नहीं, पांच अन्य नदी जोड़ परियोजनाओं की सहायता करने का उल्लेख है।

चिंता समुद्री व तटीय इलाकों के लिए योजनाओं को लेकर भी जताई जा रही है। गहरे समुद्र के लिए एक मिशन की शुरुआत 2021-22 में की गई थी। संरक्षण के घोषित उदेश्य से शुरू इस योजना का असली मकसद खनिज पदार्थों की खोज, दोहन व दूसरे संसाधनों का दोहन रह गया है। इसके लिए बजटीय आवंटन बढाया गया है। इसी तरह मत्स्य उत्पादन को बढ़ाने के लिए नीली क्रांति का आवंटन बढ़ाया गया है। इस क्षेत्र में कार्यरत देबोदित्य सिन्हा का कहना है कि इसका गंभीर प्रभाव तटीय व गहरे समुद्र की जैव-विविधता पर पड़ेगा और इनपर निर्भर लाखों छोटे मछुआरों की आजीविका नष्ट होगी। लाभ केवल व्यावसायिक ट्रॉवलर के मालिकों, मत्स्य व खनन कंपनियों का होगा।

इसी तरह, जल जीवन मिशन के लिए आवंटन बढ़ाया गया है जो कई इलाकों में पेयजल की किल्लत को देखते हुए निश्चित ही सराहनीय कदम है, पर इस योजना का कार्यान्वयन जिस तरह से हो रहा है, उसका फायदा मोटे तौर पर पीवीसी पाइप बनाने वाली कंपनियों का हो रहा है और योजना में भूजल पर अत्यधिक निर्भरता से भूजल-चक्र पर खराब प्रभाव की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

कुल मिलाकर इस बजट में अर्थव्यवस्था को टिकाऊ विकास की ओर मोड़ने का कोई वास्तविक प्रयास नहीं दिखता। कृषि व जलवायु परिवर्तन के मामले में कुछ सराहनीय आवंटन जरूर हैं। पर पर्यावरण हाशिए का विषय बना हुआ है, उसे महज कुछ प्रतीकात्मक महत्व दिया गया है। अधिकतर वित्तीय आवंटन ऐसी अर्थव्यवस्था को ताकत देने के लिए हुआ है जो प्राथमिक रूप से टिकाऊ नहीं है। जिन मुद्दों पर वर्षों से बात होती रही है, उन कुछ प्रमुख मुद्दों को भी महत्व नहीं दिया गया है। उनमें एक मुद्दा ग्रीन एकाउंटिक का है जिसपर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। यही हालत पर्यावरण के क्षेत्र में रोजगार (ग्रीन जॉब्स) की है। इसका मतलब प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर आधारित आजीविका है। भूस्खलन से ग्रस्त जमीन का पुनरुद्धार और उत्पादन, सेवा व दूसरे क्षेत्रों में जलवायु, पर्यावरण से संबंधित काम इसमें ही रखे जाएंगे। पर हालत तो यह है कि रोजगार देने वाला सबसे बड़ा कार्यक्रम महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम के लिए आवंटन भी घट गया है। बेरोजगारी की हालत को देखते हुए उम्मीद तो शहरी इलाकों के लिए भी इस तरह का कार्यक्रम शुरू होने की थी, पर बजट से निराशा हाथ लगी। इसी तरह, विविधतापूर्ण घरेलू कारीगरी को पुनर्जीवित करने के प्रयासों की उम्मीद भी थी ताकि कोरोना की वजह से उत्पन्न रोजगार व आजीविका के संकट का मुकाबला किया जा सके। यह पर्यावरण संरक्षण के साथ आजीविका प्रदान कर सकता था, पर सरकार ने इस बारे में लगता है कोई विचार ही नहीं किया है।

भारत की सरकार पिछले दो वर्षों में कोरोना महामारी की वजह से हुए लॉकडाउन के नुकसानों से उबरने के लिए पर्यावरण, आजीविका व सामुदायिक पहलकदमी को जोड़कर सार्थक प्रयास कर सकती थी। इस दौरान अनेक सकारात्मक सामुदायिक पहल शुरू हुई थीं, पर लगातार दो बजटों में आत्मनिर्भरता का सिर्फ ढिंढोरा पीटा गया है, जमीन पर इसके लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया, और कोई उम्मीद भी नहीं जगाई गई है।

(अमरनाथ झा वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ पर्यावरण मामलों के जानकार भी हैं। आप आजकल पटना में रहते हैं।)

अमरनाथ झा
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