विश्व जलवायु सम्मेलन में शामिल देशों के बीच एक कामचलाऊ समझौता शनिवार को संपन्न हुआ जिसमें वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री की सीमा में रखने के लिए लगातार कठोर प्रयास करने और दो साल में स्थिति की समीक्षा करने की सहमति बनी। इस समझौते को बहुत सफल भले नहीं कहा जाए, पर कम से कम 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को स्वीकार करने से एक शुरुआत जरूर हो गई है। दिलचस्प कोयला से बिजली बनाने पर रोक लगाने के प्रस्ताव के विरोध में भारत और चीन का एक साथ आना है। कुछ दूसरे देश भी इस मुद्दे पर उनके साथ थे। बाद में कोयला पर ‘रोक लगाने’ के बजाए ‘उपयोग घटाने’ पर सहमति बनी। कुछ अन्य शब्दों में भी हेरफेर करना पड़ा।
संयुक्त राष्ट्र सचिवालय ने बयान दिया कि विभिन्न देशों की महत्वाकांक्षी घोषणाओं और कार्रवाइयों का मतलब है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य सामने है जिसे केवल ठोस और कारगर वैश्विक प्रयासों से हासिल किया जा सकता है। 2015 में हुए पेरिस समझौते ने विभिन्न देशों को उत्सर्जन में कमी लाने के लिए प्रेरित किया ताकि वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को शताब्दी के आखिर तक 1.5 डिग्री से कम रखा जा सका। उल्लेखनीय है कि अभी तक के शोध-अध्ययन 2100 तक वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से पार कर जाने की आशंका जताते हैं।
समझौते के मसौदे के एक पाराग्राफ में ‘कोयला से बिजली बनाना समाप्त करने और जीवाश्म इंधनों पर सरकारी रियायत के बंद’ करने का उल्लेख था। इसी पैराग्राफ पर सम्मेलन के आखिरी क्षणों तक रस्साकस्सी चलती रही। आखिरकार भारत के सुझाव पर इसे खत्म करने शब्द को बदलकर कम करना कर दिया गया, फिर मसौदा मंजूर हो सका। हालांकि इसके पीछे भारत के जो तर्क थे, उसे नागरिक समाज के संगठनों ने विचित्र बताया है। बल्कि कुछ संगठनों की ओर से विरोध के स्वर मुखर भी हुए। फिर भी छोटा ही सही, पर सही दिशा में बढ़ा कदम मानते हुए समझौते को स्वीकार कर लिया गया। यह जरूर जोड़ दिया गया कि दो साल के भीतर इसकी समीक्षा की जाएगी।
कोयला व दूसरे जीवाश्म ईंधनों से संबंधित प्रावधानों के बारे में भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव का कहना था कि विकास को गति देने और गरीबों की सहायता करने के लिए विकासशील देश अभी जीवाश्म ईंधनों पर पाबंदी नहीं लगा सकते। विभिन्न देश अपनी राष्ट्रीय जरूरतों, ताकत और कमजोरियों के अनुसार उत्सर्जन के नेट-जीरो लक्ष्य निर्धारित और प्राप्त करेंगे। सभी देशों को जीवाश्म ईंधनों का जिम्मेवार उपयोग करने का अधिकार है। विकासशील देशों को अभी विकास और गरीबी उन्मूलन की योजनाओं को पूरा करना है। यादव ने एलपीजी गैस पर दी जाने वाली रियायत का उदाहरण दिया जिससे गरीब घरों में भोजन बनाने के लिए बायोमास को जलाना बंद हो गया है। इससे घरेलू प्रदूषण में कमी आई है और ग्रामीणों का स्वास्थ्य बेहतर हुआ है।
सम्मेलन में विवाद का दूसरा मुद्दा जलवायु-बजट के मद में विकसित देशों का योगदान शुरू नहीं होना था। पेरिस समझौता 2015 में तय हुआ था। जिसके तहत यह बात शामिल थी कि जो विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन घटाने और स्वच्छतर तकनीकों का उपयोग करने की लागत नहीं उठा सकते, उनकी सहायता करने के लिए विकसित देश 100अरब डालर सालाना की व्यवस्था करेंगे। इसे 2020 से शुरू हो जाना था। पर ग्लासगो सम्मेलन के कुछ पहले इस समय सीमा को तीन साल आगे बढ़ा दिया गया। सम्मेलन में भारत समेत करीब-करीब सभी विकासशील देशों ने पेरिस समझौते के इस मुद्दे को उठाया। भारत ने कहा कि एक सौ अरब डालर की रकम 2015 में तय की गई थी। आज की परिस्थितियों में इसे बढ़ाने की जरूरत है। उसने इसे बढ़ाकर एक सौ खरब (एक ट्रिलियन) करने की जरूरत बताई।
विकसित देशों की तरफ से विकासशील देशों की सहायता के इस प्रतिबध्दता के मुद्दे पर ग्लासगो समझौते में अफसोस जताया गया है और विकसित देशों से इस दिशा में कार्रवाई करने की अपील की गई है। कुल मिलाकर ग्लासगो सम्मेलन में कई अनुत्तरित मसलों के रह जाने के बावजूद वैश्विक स्तर पर ऐसा माहौल जरूर बना है जिसमें जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरुकता का विस्तार हो सकता है।
(अमरनाथ झा वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ पर्यावरण मामलों के जानकार हैं।)