नई दिल्ली। औद्योगीकरण और मुनाफे की होड़ और बढ़ते तापमान के दुष्चक्र में फंसी दुनिया के लिए फिलहाल बहुत राहत की खबर नहीं है। दुनिया भर के राष्ट्रीय और व्यावसायिक पूंजीवादी घरानों के प्रतिनिधियों को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में चलने वाले इस सम्मेलन को लेकर काफी उम्मीदें थीं।
यह गुजरता साल इतिहास का सबसे गर्म साल का इतिहास रच रहा है। पहाड़ दरक रहे हैं। समुद्र की सतह गर्म हो रही है। जंगलों में आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। और, सदानीरा मानी जाने वाली नदियां सूखने लगी हैं। पर्यावरण की उथल पुथल चंद लोगों की जिंदगी को ही नहीं, अब तो पूरे के पूरे देशों को अपने गिरफ्त में लेने लगी है।
सीओपी-28 की तैयारियों के दौर से इसकी शुरूआत मानें तो यह मीटिंग लगभग 45 दिन तक चली है। इस बार का सबसे बड़ा मसला कार्बन उत्सर्जन को लेकर था। इसके साथ ही, पर्यावरण नुकसान से निपटने के लिए कोष निर्माण करना था। तीसरे नम्बर पर रिन्यूएबल एनर्जी और उससे जुड़ी तकनीकों का प्रयोग था। चौथे नम्बर पर खेती को भी जोड़ लिया गया था।
सीओपी-28 की मीटिंग की शुरुआत कार्बन उत्सर्जन को ‘खत्म करने की ओर जाने’ की घोषणा के साथ हुआ। इसके लिए फॉसिल फ्यूल- कोयला, तेल, गैस जैसे उत्पादों के प्रयोग को कम करते हुए खत्म करने की ओर जाने का लक्ष्य रखा गया। जब मीटिंग खत्म हो रही थी, तब इस शब्द को ‘ट्रांजिशनिंग अवे’ अर्थात प्रयोग से दूर होते जाने में बदल दिया गया।
यह सिर्फ विकसित बनाम विकासशील देशों के बीच का विवाद ही नहीं था, खुद विकसित देश भी इसके प्रयोग को फिलहाल रोकने के लिए तैयार नहीं दिख रहे हैं। फिर भी इस मीटिंग के प्रस्ताव में फॉसिल फ्यूल के प्रयोग को 2050 तक शून्य प्रयोग तक ले जाने की उम्मीदें दी गईं। जाहिर है, यह सिर्फ उम्मीद है, कार्यक्रम के साथ इसकी अनुरूपता नहीं दिख रही है।
निश्चित ही, ग्लासगो में हुए सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन से संबंधित जो प्रस्ताव पारित किया गया था, इस बार का सम्मेलन उसके निर्णयों से पीछे गया है। दरअसल, इन बिल्ट कार्बन उत्सर्जन कैप्चर और स्टोरेज की तकनीक का हस्तांतरण भी एक बड़ा मसला है। ऐसा लगता है कि इस सदंर्भ में जिस उच्च तकनीक की जरूरत है, उसे हस्तांतरित करने के लिए फिलहाल विकसित देश तैयार नहीं दिख रहे हैं।
यह सिर्फ राज्यों का ही नहीं, पूंजीवादी कॉरपोरेट घरानों का भी मसला है। इस संदर्भ में धरती बचाने के संदर्भ में राज्यों को जितना कठोर होकर निर्णय लेना चाहिए, जिसमें भविष्य की तकनीक का विकास भी शामिल है, वह अभी नहीं दिख रहा है। पूंजी निवेश और मुनाफे के बीच का संबंध फिलहाल किसी अग्रिम निर्णय को रोक देने में सफल होता हुआ दिख रहा है।
सीओपी-28 मीटिंग में एक ऐसा निर्णय जरूर हुआ है जिसका पालन संभव है, वह है रिन्यूएबल एनर्जी यानी अकार्बनिक ऊर्जा स्रोतों के प्रयोग को 2030 तक तीन गुना करना। यदि ऐसा किया जाता है तो इससे जो ऊर्जा निर्माण होगा उससे 7 बिलियन टन कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्पादन नहीं होगा।
यहां यह अनुमान एक निरपेक्षता के आधार पर लगाया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि कुल कार्बन उत्सर्जन इतना कम हो जाएगा। दरअसल, ऊर्जा की खपत बढ़ती जा रही है। इस बढ़ती ऊर्जा खपत में रिन्यूएबल ऊर्जा के स्रोतों के प्रयोग को बढ़ाने के संदर्भ में यह आंकड़ा और उम्मीदें दिखाई गई हैं।
लेकिन, यहां यह स्पष्ट तय नहीं किया गया है कि इसे तीन गुना कैसे किया जाएगा? पेरिस सम्मेलन के दौरान रिन्यूएबल ऊर्जा को बढ़ाने वाली और कार्बन उत्सर्जन को कम करने वाली तकनीक को विकसित देशों द्वारा जरूरतमंद देशों को हस्तांतरित करना था। लगभग 10 साल गुजर जाने के बावजूद भी यह हस्तांतरण बेहद धीमा है।
यहां यह जानना जरूरी है कि पूंजी में तकनीक एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। यदि तकनीक महंगी होगी तो यह मुनाफा कम कर देती है। ऐसे में पूंजीपति इसके प्रयोग से बचता है। इसके लिए दो जरूरी पक्ष हैं। पहला, विकसित देश तकनीक का हस्तांरण करें और दूसरा, इसे मुनाफे के नजरिये से नहीं पर्यावरण के नजरिये से देखा जाए।
मसलन, भारत में सौर ऊर्जा का प्रयोग एक महत्वपूर्ण पक्ष है। इसमें विकास की संभावना अधिक है। लेकिन, इसमें तकनीक की कमजोरियों और निजी उद्यमियों द्वारा इसे मुनाफे की संभावना के तहत बढ़ाना इसके विकास में सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है।
अभी हाल ही में, अडानी की ओर से कई बयान आये जिसमें उन्होंने सीओपी-28 की मीटिंगों के संदर्भ में दावा किया कि वह पर्यावरण अनुकूलनीय ऊर्जा विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं। दरअसल, भारत सरकार के सहयोग से उन्हें बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा क्षेत्र में काम करने का मौका मिला है और इस सदंर्भ में इसे और आगे ले जाने के लिए बेहतर तकनीक की उम्मीद कर रहे हैं।
इस संदर्भ में भारत की ओर से सीओपी-28 की मीटिंगों में रिन्यूएबल ऊर्जा तकनीक को हस्तांतरित करने के मामले को जोर शोर से उठाया गया। सौर ऊर्जा के लिए जमीन अधिग्रहण और तकनीक मुख्य भूमिका निभाते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इस दिशा में यदि तकनीक मिल जाये, तो शेष सारे कार्य सरकार के नियोजन में करना बेहद आसान होगा।
यह अलग बात है कि इस नियोजन में जमीन के मालिकों को कितना नुकसान होगा और कितना फायदा, यह परियोजनाओं के संदर्भ में ही देखा जा सकेगा। लेकिन, इतना साफ है कि यह भी एक पूंजी आधारित ऊर्जा परियोजना ही है।
इस सम्मेलन में 700 मिलियन डॉलर का कोष बनाने का संकल्प जरूर सामने आया है जिसे पर्यावरण से होने वाले नुकसान की भरपाई करने में खर्च किया जाएगा। साथ ही कांगों बेसिन के अध्ययन करने के लिए भी योजनाएं बनाई गईं। यह एक जरूरी पहल है। लेकिन, अध्ययन और रिपोर्ट के संदर्भ में देखें तो अमेजन बेसिन से संबंधित रिपोर्ट पर क्या कार्रवाई होगी, यह स्पष्ट नहीं है।
पर्यावरण में होने वाले बदलाव का सबसे बुरा असर अफ्रीका और लातिन अमेरीकी देशों में देखने को मिल रहा है। इसमें सिर्फ कार्बन उत्सर्जन का ही मसला नहीं है, बल्कि विकसित देशों द्वारा वहां किये जा रहे पर्यावरणीय क्षति की वजह से भी कई देशों की स्थितियां बदतर होती गई हैं।
पर्यावरण के अनुकूल जीवन और उससे बनी राज्य व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप करते हुए वहां के कच्चे माल का दोहन और साथ ही उसे एक बाजार की तरह विकसित करने की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं ने न सिर्फ प्राकृतिक संकट को जन्म दिया है, वहां गृहयुद्ध और अकाल की स्थितियों को भी बनाया। निश्चित ही, वहां इस सदंर्भ में एक बड़े सहयोग की जरूरत है।
सीओपी-28 में इस बार कृषि के मसले को तरजीह दी गई है। इसमें सिर्फ मीथेन गैस के पैदा होने के संदर्भ में ही नहीं, पर्यावरण से होने वाले इस क्षेत्र के नुकसान को भी शामिल किया गया। खासकर, खेती पर आधारित आबादी पर्यावरण से न सिर्फ सीधे नुकसान सह रही है, इससे पैदा होने वाली बीमारियों का भी शिकार भी हो रही है।
उम्मीद है, कि आने वाले समय में इस पर और भी स्पष्टता और ठोस कार्यक्रम सामने आयेंगे। फिलहाल, इस संदर्भ में और भी अध्ययन को आगे बढ़ाने की जरूरत है।
सीओपी-28 की मीटिंग बड़े स्तर के शीर्ष प्रतिनिधियों को लेकर होती है। इसमें पर्यावरणविदों और सोशल एंथ्रोपोलॉजिस्टों की आवाज बेहद कमजोर होती है। ज्यादातर उनका काम रिपोर्ट प्रस्तुत करने और पास हो रहे प्रस्तावों पर टिप्पणी करने से अधिक नहीं होता। कार्यकर्ता सिर्फ विरोध में कुछ आवाज उठाते हैं, जिसे ज्यादातर अनुसुना कर दिया जाता है।
धरती बचाने के कार्यभार वाले इस कार्यक्रम के संचालक वहीं हैं जो इस धरती को बर्बाद कर रहे हैं और अपने मुनाफे की चाह में धरती को और भी बदतर बना रहे हैं। इस धरती को बचाने के लिए नागरिकों की पहलकदमी न सिर्फ जरूरी है, इसके सामानान्तर सम्मेलनों और अन्य प्रयासों की भी सख्त जरूरत है। उम्मीद है, आने वाले समय में इस दिशा में नागरिकों की ओर से जरूर पहलकदमी होगी।
(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)