शेर की दहाड़ और इंसान की आवाज

शेरों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। यह एक वायरल खबर थी। 2019 की संख्या में 6.7 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। हाल ही में हुई गणना के हिसाब से शेरों की संख्या 3,167 हो गई। हाल ही में भारत में लुप्त हो गये चीते को वापस लाने के लिए अफ्रीका से आयात किया गया। हाल ही में एक चीते ने जब बच्चों को जन्म दिया तब उसे राष्ट्रीय खबर की तरह प्रसारित किया गया और उसे फोटोग्राफ छापे गये।

अभी हाल में ‘एलीफैंट व्हीस्पर्स’ को आस्कर में पुरस्कृत होने के साथ हाथी, उसे पालने वाले और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्देशक तीनों ही खूब चर्चित हुए और उनके साथ फोटो खिंचाकर खुद प्रधानमंत्री ने प्रसिद्धि में एक नया आयाम जोड़ दिया।

हालांकि, उत्तर-प्रदेश में आरिफ की सारस से हुई दोस्ती विवाद का विषय बन गई। वन्य और पर्यावरण विभाग के एक अधिकारी ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि सारस पर इंसानी प्रभाव पड़ा है जिससे उसकी सामान्य जिंदगी प्रभावित हुई है। कानून की नजर में यह एक अपराध माना जाता है।

लेकिन, उत्तर-प्रदेश की राजनीति में यह विवाद सरकार बनाम विपक्ष बनाम सारस की देखभाल में बदलता हुआ दिखा, बाद में इसे विवाद को विराम दे दिया गया। हालांकि, इस दौरान एक और फिल्म ऑस्कर में नामांकित हुई लेकिन उसे ऑस्कर पुरस्कार मिलने लायक अंक नहीं मिल सका। वह थी ‘ऑल दैट ब्रेथ्स’।

दिल्ली की धुंधभरी सर्दी, आग उगलती गर्मी और धूल-धुएं से भरे आसमान में लगातर तैरती हुई चीलों पर बनी हुई यह फिल्म पर्यावरण को एक दूसरे ही तरीके देखती है। चीलें न सिर्फ दिल्ली के बदलते पर्यावरण में खुद को ढाल रही हैं, साथ ही वे हजारों टन कचरे को खत्म करने में अपनी भूमिका निभा रही हैं। यह फिल्म उस संकट के बारे में भी बात करती हैं जहां इंसान अपनी ‘मांसाहार’ की नैतिकता से इन चीलों को भी देख और उसके साथ व्यवहार करता है।

हालांकि, शेर और चीते दोनों ही मांसाहारी हैं। इसकी व्यवस्था उनके पर्यावरण के साथ करने से ही उनकी संख्या में बढ़ोत्तरी संभव है। यहां हमें यह जरूर याद कर लेना चाहिए कि जंगल, जानवर और अन्य पर्यावरण से जुड़ी समस्या को हल करने के लिए 2004 से ही प्रयास शुरू हो चुका था।

इस संदर्भ में नीतियां बनाई गईं और उसके लिए जगहें चुनी गईं। नीति और चुनाव दोनों ही विवाद के विषय बने रहे और इन्हें लेकर लोगों ने संघर्ष भी चलाये। इस समय भारत में राष्ट्रीय शेर संरक्षण प्राधिकार के तहत 54 प्राधिकृत क्षेत्र हैं।

ये रिजर्व लगभग 100 वर्ग किमी से 3000 वर्ग किमी के दायरे में फैले हुए हैं। यहां यह लिखना बार-बार दुहराने जैसी ही बात है, कि ये इलाके मुख्यतः आदिवासी इलाकों में निर्धारित किये गये। कुछ ऐसे क्षेत्र भी चुने गये जहां जंगल ज्यादा थे, हालांकि वहां खेती एक मुख्य पेशा बन चुका था। इन इलाकों में रहने वाले लोगों को अपने ही पर्यावरण से विस्थापित होने के लिए बाध्य होना पड़ा।

2020 तक 215 गांवों को रिजर्व क्षेत्र से बाहर किया गया। अभी भी लगभग 500 गांव इन इलाकों में बचे हुए हैं। यहां इन जंगलों पर आश्रित जिंदगी जीने वालों की संख्या शामिल नहीं किया गया है। गांव का निवासी होने का प्रमाण देना भी एक बड़ी मुश्किल समस्या रही है, जिसे लेकर विवाद होता रहा है। इन रिजर्व क्षेत्र के लिए बजट बढ़ोत्तरी इसके इलाकों में वृद्धि के साथ बढ़ती गई है।

यदि हम उपनिवेशिक दौर के आंकड़ों को देखें, 19वीं सदी में भारत में शेरों की संख्या 40,000 से अधिक मानी गई थी। जिम कार्बेट, जिनके नाम से उत्तराखंड में टाईगर रिजर्व है, ने उत्तराखंड के जंगल, शेर और शेरों के शिकार पर खूब लिखा है। उनकी जंगल और जंगल के जानवरों, उनकी प्रवृत्तियों खूब गहरी पकड़ थी। वह जानवरों और शेरों के दुश्मन की तरह नहीं दिखते हैं, लेकिन इंसानों की जिंदगी के रक्षक की तरह जरूर दिखते हैं।

वह मैनईटर यानी आदमखोर शेरों को मारने में उस्ताद हैं। गांव के लोग उनके पास शेरों के हमले से रक्षा के लिए आते हैं और वे इस काम में काफी उत्साह के साथ भागीदारी करते हैं। इस तरह जिम कार्बेट की रचना उपनिवेशिक दौर में इंसान और जानवरों के बीच बढ़ते अंतर्विरोध को दिखाता है, जिसमें जानवरों की संख्या तेजी से कम होती जाती है।

यदि हम राजस्व के आंकड़ों में देखें तो 1869-1874 के बीच 56 लाख का राजस्व था जो 1924-25 में 5 करोड़ 67 लाख हो गया था। इस दौर में, जंगलों में रहने वाले आदिवासी समुदायों का संघर्ष भी उतनी ही तेजी के साथ बढ़ा। यह झारखंड में संथाल विद्रोह की तरह सामने आया तो गोदावरी क्षेत्र में राम्पा विद्रोह की शक्ल ली।

यह सिलसिला खत्म नहीं हुआ। यदि हम उपनिवेशिक राज्य व्यवस्था की नीतियों के खिलाफ खड़े हुए प्रतिरोध को पर्यावरण के नजरिये से देखें, तब यह जीविका और जीवन की स्वायत्तता के साथ जुड़ता है। निश्चय ही यह सवाल पर्यावरण में रह रहे जानवरों के लिए भी उतना ही सच था। उनके लिए भी जीविका और जीवन की स्वायत्तता का सवाल मुख्य हो गया था।

तेजी से कटते जंगल, खदान, उजड़ते पहाड़, नदियों का दोहन, खेती का विस्तार और नई बसावटें आदि ने ऐसे हालात बनाते गये जिसकी वजह से सबसे पहले इंसान और उसमें रह रहे जानवरों के बीच संधर्ष होते गए, आगे चलकर य़ह और भी तीखा होता गया। यह उपनिवेशिक नीतियों से हो रहा था, लेकिन ये नीति-निर्माता दूर बैठे हुए थे। जिंदगी तो इंसान और उसके पर्यावरण के बीच चलना था। इन दोनों के बीच रक्षक की तरह उपनिवेशिक नौकरशाह, जिसमें बाद के समय में कुछ राजे-रजवाड़ों के बेटे भी उतर गये, सामने आये।

उन्होंने इन मारे गये जानवरों की खालों को अपने घरों में नुमाईश के लिए लटका दिया। इन मारे गये जानवरों के साथ उन ग्रामीणों के फोटों लिए गये, जिन्हें इन्होंने बचाया था। यह तस्वीरें आज भी उन दिनों की याद दिलाती हैं।

यहां मसला शेर की दहाड़ या चीतों की तेज रफ्तार के लौट आने का नहीं है। इंसान और जानवर के बीच का रिश्ता बेहद प्राकृतिक है, उतना ही जितना इंसान का जल और मिट्टी से है। यह भी सच्चाई है कि इन रिश्तों के बीच में पूंजी देश और वैश्विक स्तर पर भी खड़ी है। इनका एक दूसरे के विरोध में खड़ा हो जाना या कर दिया जाना खतरनाक है।

खबरों में इस तरह की घटनाएं आती रहतीं हैं। पिछले 20 सालों में भारत की पर्यावरण नीति विस्थापन, उजाड़ और जीविका के संदर्भ में विवादों में रही है। इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। निश्चय ही हाथी कुछ कहते हैं, लेकिन इसे सुनने वाले जो कान हैं वे उन्हीं जंगलों के निवासी हैं जिन्हें हम आमतौर पर आदिवासी कहते हैं।

उनकी संख्या में लगातार कमी आई है और कई बार इन्हें जानवरों का दुश्मन भी समझा गया। ये आदिवासी समूह भी कुछ कह रहे हैं, इन्हें भी सुनने के लिए कान चाहिए, पूंजी की बर्फ से भी ठंडी फितरत नहीं।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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