जंगल का राजा बाजार की डस्टबिन में तलाश रहा था खाना, लेकिन मिली इंसान की बंदूक से निकली गोली

देहरादून। जंगल में अपनी दहाड़ से इलाके को थर्रा देने वाले एक टाइगर के इतने बुरे दिन आ गए कि वह भूख से बिलबिलाती हालत में बाजार की दुकानों के बाहर रखे कूड़े के डिब्बों में भोजन तलाशने को मजबूर हो गया। लेकिन यहां जंगल के इस बादशाह को इंसानों की बंदूक से निकली गोलियों की बौछार का सामना करना पड़ा। जिसमें इसकी दर्दनाक मौत हो गई। जंगल से निकलकर इंसानी बस्ती में अपनी भूख मिटाने आए इस टाइगर की मौत के लिए जंगलों में बढ़ती इनकी आबादी को जिम्मेदार समझा जा रहा है।

यह मामला उत्तराखंड के कॉर्बेट टाइगर रिजर्व से लगे अल्मोड़ा जिले की सीमा में स्थित मरचूला बाजार का है। जिसके दो वीडियो फिलहाल पब्लिक डोमेन में हैं। एक वीडियो में यह बाघ सड़क किनारे के भवनों से सटकर चल रहा है। पार्श्व में धमाकों की आवाज आ रही है। जो निश्चित तौर पर गोलियों की ही है। बेहद कमजोर यह बाघ अपनी जान बचाने के लिए दुबकने की जगह तलाश करता नजर आ रहा है। जबकि दूसरा जो वीडियो सामने आया है उसमें बाघ हमलावर स्थिति में एक बुलेरो कार के सामने खड़ा होकर गुर्रा रहा है। इस बुलेरो कार के एक झरोखे से 12 बोर की एक बंदूक झांक रही है। बंदूक से निकला फायर बाघ को छूते हुए निकलने पर फायर झोंकने वाले व्यक्ति का साथी उसका निशाना चूकने का उलाहना देते हुए उसे ठीक फायर करने के लिए प्रेरित कर रहा है। जिसके बाद इस बंदूक से निकली दूसरी गोली बाघ के पिछले पैर के ऊपरी हिस्से में लगती दिख रही है। इसके बाद यह बाघ यहां से ओझल होता दिखता है।

सोमवार की रात इस बाघ पर गोलियां दागने वाले लोग सरकारी कर्मचारी हैं या निजी लोग, यह साफ नहीं हो पाया है। लेकिन उनके दौरान हो रही बातचीत का आत्मविश्वास इनके सरकारी आदमी होने की चुगली करता प्रतीत हो रहा है। इस मामले में बेहद भरोसेमंद सूत्रों का नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर कहना है कि वनकर्मियों ने बाघ को गोली मारने की स्वीकारोक्ति कर ली है। जिस जगह यह फायरिंग की घटना हुई है, वह कालागढ़ वन प्रभाग की मंदाल रेंज से जुड़ा है। मंगलवार की सुबह इस बाघिन की लाश को रामनगर लाया गया। जहां ढेला में इसका पोस्टमार्टम किया जा रहा है। जंगल में अपनी गरिमा और सम्मान के साथ जीवन गुजारने वाली बाघिन की इस हालत के लिए जंगलों में बढ़ती इनकी संख्या को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।

बताते चलें कि वर्ष 2010 में रूस के पीट्सबर्ग में बाघों के लिए पहली बार हुई ग्लोबल टाइगर समिट में बाघों को बचाने के लिए अगले बारह सालों में इनकी मौजूदा संख्या को दुगुना करने का लक्ष्य लिया गया था। विश्व के कुल जिन तेरह देशों भारत, थाईलैंड, नेपाल, रूस, मलेशिया, म्यांमार, चीन, इंडोनेशिया, लाओ पीडीआर, बांग्ला देश, भूटान, कंबोडिया में बाघ पाया जाता है, इन सभी देशों के प्रतिनिधियों ने इस समिट में हिस्सा लेते हुए यह लक्ष्य निर्धारित किया था। 

भारत में वर्ष 2010 में बाघों की संख्या 1706 थी। लेकिन बाघों के संरक्षण के लिए किए जाने वाले उपायों के चलते चार साल बाद यह संख्या 2226 तो फिर अगले चार साल यानी 2018 में यह संख्या बढ़कर 2967 हो गई। इन आठ साल में देश में बाघों की संख्या 74 प्रतिशत बढ़ी। इन 2967 बाघों में से आधे से भी ज्यादा, मतलब कुल 1492 बाघ केवल तीन राज्यों मध्य प्रदेश, कर्नाटक और उत्तराखंड में हैं, जबकि भारत के कुल बीस राज्यों में ही बाघ पाए जाते हैं। यह संख्या अगर भारत के कुल बाघों की संख्या की आधे से अधिक है तो वैश्विक तौर पर बाघों की कुल संख्या का 35 प्रतिशत है। बाघों की गणना के हर चार साल में आने वाले इन आंकड़ों के बाद 2022 के आंकड़े आने अभी बाकी हैं।

देश में बाघों की संख्या जहां 74 फीसदी बढ़ी तो उत्तराखंड में यह करीब दुगुनी (195 प्रतिशत) हो चुकी है। यहां साल 2010 में 227 बाघ थे तो 2014 में 340 और 2018 में यह संख्या 526 हो चुकी थी। जबकि मध्य प्रदेश में तो यह दुगुने से भी अधिक (2010 में 257, 2014 में 308 और 2018 में 526) पहुंच गई है। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार बाघ की 9 फीसदी से कम की ग्रोथ रेट से भी बारह साल में यह लक्ष्य पाया जा सकता है, जबकि हमारे देश में यह ग्रोथ रेट 9 फीसदी से अधिक है। जिसका अर्थ है कि बारह साल पहले की पीट्सबर्ग की ग्लोबल टाइगर समिट में लिए गए लक्ष्य को भारत 2022 में आसानी से पार करने वाला है। 

बात कॉर्बेट टाइगर रिजर्व की करें तो ताजा आंकड़े इस रिजर्व में बाघों की संख्या 252 और रिजर्व से सटे इलाकों को मिलाकर 266 बताते हैं। जबकि अपुष्ट सूत्रों के हवाले से रिजर्व की यह संख्या 300 बताई जाती है। एक बाघ की टेरेटरी जंगल में उपलब्ध शिकार और जंगल की डेंसिटी से तय होती है। कॉर्बेट जैसे आदर्श जंगल में औसतन 12 किमी. का क्षेत्र बाघ के लिए पर्याप्त माना जाता है। विश्व प्रकृति निधि के मिराज अनवर के मुताबिक अनुकूल परिस्थितियों में बाघ 6 किमी. के दायरे में भी प्राकृतिक जीवन जी सकता है।

मरचूला में बाघ की इस दुर्गति से आहत वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट और फोटोग्राफर दीप रजवार का कहना है कि कॉर्बेट के घनत्व के लिहाज से यहां 175 बाघों की संख्या पर्याप्त है। इससे ज्यादा होने की स्थिति में बाघों में आपसी टकराव बढ़ता है। एक बाघ अपने इलाके में दूसरे बाघ की उपस्थिति को अमूमन सहन नहीं करता है। ऐसी स्थिति आने पर एक कमजोर बाघ को या तो दूसरे बाघ के साथ संघर्ष में अपनी जान गंवानी पड़ती है। या फिर जान बचाने के लिए उसे जंगल से बाहर ठिकाना तलाश करना होता है। 

दीप रजवार के मुताबिक मर्चूला बाजार में घूमने वाला बाघ काफ़ी कमज़ोर लग रहा है, जो खाने की तलाश में बीच बाज़ार में आ गया था। यह बाघ देखने में ही इतना कमज़ोर दिख रहा है कि इसमें बाघ जैसे कोई गुण ही नज़र नहीं आ रहे हैं। बाघों के व्यवहार पर रजवार का कहना है कि आमतौर पर बाघ बड़े एकाकी और शर्मीले होते हैं और छुप के शिकार करते हैं। लेकिन यहाँ साफ़ देखा जा सकता है कि बाघ की भूख ने इसको बाज़ार में आने पर मज़बूर कर दिया। जंगल से निकलकर इंसानी बस्ती में इस बाघ की मौजूदगी को रजवार कॉर्बेट में बाघों की बढ़ती हुई संख्या के तौर पर देखते हुए कहते हैं कि “यह साइड इफ़ेक्ट है बाघ की संख्या बढ़ने का। कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के घनत्व के हिसाब से बाघों की रहने की जो आदर्श संख्या है वह 175 से ज़्यादा नहीं है। लेकिन अभी पार्क में 300 के क़रीब बाघ हैं। इससे बाघों का रहने का क्षेत्रफल सिकुड़ रहा है। 

इसी के कारण इनके बीच आपसी संघर्ष भी बढ़ रहा है। ऐसी परिस्थिति में जो ताकतवर है वही जंगल के अंदर रहेगा। जो शारीरिक तौर पर कमज़ोर है, वह बाहर की ओर को भागेगा अपने को ज़िंदा रखने के लिए। जीवन हर कोई जीना चाहता है। मर्चूला बाजार में घूमते इस बाघ जैसे कई वीडियो आगे निकट भविष्य में और भी देखने को मिल सकते हैं। क्योंकि हर कोई जीव अपने को हर हाल में ज़िंदा रखना चाहता है चाहे वो इंसान हो या जानवर। 

जंगल में बाघों की स्थिति यह है कि आम तौर पर पहाड़ों पर बाघ नहीं मिलता। लेकिन अब केदारनाथ तक में इसकी उपस्थिति देखी गई है। बाघों को बचाए रखने के लिए रजवार जरूरत से ज्यादा होने पर उनकी शिफ्टिंग को ही इस समस्या का इलाज बताते हुए कहते हैं कि मानव वन्यजीव संघर्ष को रोकने के लिए बाघों की संख्या एक अनुपात से अधिक बढ़ने पर उसे दूसरे इलाकों में रिलोकेट किया जा सकता है। अन्यथा खुद जंगल से बाहर आने पर वह या तो इंसानों के लिए खतरा बनेगा या फिर उसे अपनी जान गंवानी पड़ेगी। जैसा कि इस घटना में हुआ है।

वाइल्ड लाइफ से जुड़े एक अन्य व्यक्ति जो नहीं चाहते कि उनका नाम सार्वजनिक किया जाए, का कहना है कि कॉर्बेट इलाके में काम करने वाले कई वन्यजीव विशेषज्ञ कई साल से इस बात पर एक राय हैं कि यहां बाघों की बढ़ती संख्या का कोई ठोस उपाय किया जाए। कॉर्बेट नेशनल पार्क का जंगल अपनी जैव विविधता में इतना धनी है कि वह कई टाइगर अपनी गोद में पालने की सामर्थ्य रखता है। लेकिन इसकी भी आखिर कोई सीमा तो होगी ही। हम इंसानों को भी न्यूनतम 8 बाई 8 का स्पेस जिंदा रहने को चाहिए। जबकि बाघ तो जंगल का निवासी है। हम उससे कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह अपनी प्रकृति के साथ समझौता करे। समस्या के समाधान के तौर पर इनकी राय भी रजवार से जुदा नहीं है। 

बाघों को रिलोकेट करने की ही बात को दोहराते हुए उनका कहना है कि स्वार्थों के चलते लोग खुद ऐसा नहीं चाहते। पहले यहां से कुछ टाइगर को राजाजी नेशनल पार्क भेजा जाना था। लेकिन अपने कारोबार का हवाला देते हुए लोग आंदोलन पर उतारू हो गए। जबकि बिहार के पालमाऊ टाइगर रिजर्व में पिछले तीन सालों से आधिकारिक तौर पर बाघ नहीं हैं। देश में कई जंगल ऐसे हैं, जहां बाघों की जंगल के घनत्व अनुपात के मुकाबले कमी है। जिन इलाकों में बाघ ज्यादा हैं, वहां से उनको दूसरे इलाकों में शिफ्ट किया जा सकता है। लेकिन इसका फैसला स्थानीय स्तर पर बैठे किसी डीएफओ के हाथ में नहीं है। यह निर्णय नई दिल्ली में बैठे लोग ही कर सकते हैं। लेकिन देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बाघों और चीतों में दिखती दिलचस्पी के कारण दिल्ली में बैठे बड़े अधिकारी भी, बाघों के हित में लीक से हटकर कोई फैसला ले सकेंगे, इस पर संशय है।

(पत्रकार सलीम मलिक की रिपोर्ट।)

सलीम मलिक
Published by
सलीम मलिक