जलवायु परिवर्तन के लिहाज से उम्मीद की किरण हैं परंपरागत प्रणाली

जलवायु परिवर्तन के संकट का मुकाबला करने में भारत की स्थिति पूरी तरह निराशाजनक नहीं है। परंपरागत प्रणालियों में उम्मीद की किरण दिखती है। आईपीसीसी की छठी रिपोर्ट के लेखकों में शामिल अंजल प्रकाश कहते हैं कि अनुकूलन या तालमेल बिठाने की बेहतर नीतियों के माध्यम से अधिक सुरक्षित और टिकाऊ भविष्य को हासिल किया जा सकता है।

रिपोर्ट में इसके कुछ उदाहरण दिए गए हैं जिनसे पता चलता है कि अनुकूलन से स्थानीय निकायों को आर्थिक फायदे हुए हैं। सूरत, इंदौर और भुवनेश्वर के स्थानीय निकायों ने विकास की जरूरतों के लिए मानव व वित्तीय संसाधनों का विभिन्न स्तरों पर रूपांतरण करने का प्रयोग किया है। सूरत में राजनीतिक नेतृत्व ने अनुकूलन की नीतियों का समर्थन राष्ट्रीय नीतियों से आगे बढ़कर किया है।

इमारतों को प्राकृतिक रूप से हवादार व ठंडा बनाने के लिए सहनशील शीतलीकरण की तकनीक का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर होता रहा है ताकि शहरी इलाके में आवासीय व व्यावसायिक परिसरों को गर्मी से बचाया जा सके। प्राचीन काल में भवनों की डिजायन में इस तरह की तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता था। इसे जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिहाज से आधुनिक इमारतों में भी अपनाया जा सकता है।

शहरी क्षेत्रों की जलापूर्ति व्यवस्था को टिकाऊ बनाने के लिए भी परंपरागत जल-प्रबंधन प्रणालियों को अपनाया जा सकता है। रिपोर्ट में बंगलोर का उदाहरण दिया गया है जहां तालाबों का संजाल होता था जिससे शहर में पानी की कमी कभी नहीं होती थी, साथ ही वायुमंडल भी बेहतरीन रहता था। परन्तु पिछली आधी शताब्दी में हुए विकास कार्यों की वजह से यह परंपरागत प्रणाली संकटग्रस्त हो गई है। आज बंगलोर शहर बहुत दूर से पानी ढोकर लाने पर निर्भर है जिसकी वजह से राजनीतिक विवाद भी होते रहते हैं। इसके अलावा निजी नलकूप भी बडे पैमाने पर लगाए गए हैं जिससे भूजल भंडार का बेतहाशा दोहन होता है। तालाबों के संजाल की पुनर्बहाली अधिक टिकाऊ और सामाजिक रूप से अधिक न्याससंगत विकल्प प्रदान कर सकता है।

कुल मिलाकर, महानगरों व दूसरे शहरी क्षेत्रों को प्राकृति सम्मत सामाजिक व भौतिक अधिसंरचनाओं को अपनाना होगा। भारत के शहरों में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों व जोखिमों का मुकाबला करने के लिए शून्य-उत्सर्जन क्षेत्र बनाने की दीर्घकालीन योजनाओं और अल्पकालीन कार्यक्रमों का चुनाव करना होगा।

(अमरनाथ झा वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ पर्यावरण मामलों के जानकार भी हैं। आप आजकल पटना में रहते हैं।)

अमरनाथ झा
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