बीजेपी के लिए खतरे की घंटी हैं इलाहाबाद में छात्रसंघ चुनाव के नतीजे

रमा शंकर

इलाहाबाद। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के 2017-18 शैक्षिक सत्र के छात्र संघ चुनावों के परिणाम देर रात घोषित कर दिए गए हैं। समाजवादी पार्टी की छात्र इकाई समाजवादी छात्र सभा ने अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सांस्कृतिक सचिव और उपमंत्री के पद पर जीत दर्ज़ की है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) केवल महामंत्री पद पर चुनाव जीत सकी है। एबीवीपी छात्र संघ के अध्यक्ष पद पर बढ़-चढ़ कर दावा पेश कर रही थी। इसके लिए उसके पास पर्याप्त कारण भी थे। उसने पिछला चुनाव जीता था, केंद्र और राज्य में उसकी सरकार है। स्वयं प्रधानमंत्री को भी एबीवीपी की राजनीति से कुछ न कुछ अच्छा करने की आशा थी। अभी हाल ही में दिल्ली में एक कार्यक्रम में छात्रसंघ के भूतपूर्व अध्यक्ष रोहित मिश्र ने उन्हें अंगवस्त्रम भेंट करने का दुर्लभ सम्मान हासिल किया था।

इस माहौल में यदि एबीवीपी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चुनाव हार गयी है तो यह भाजपा के राजनीतिक भविष्य के लिए अच्छी बात तो बिलकुल नहीं है, खासकर फूलपुर में संसदीय उपचुनाव सिर पर है। लगातार जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एबीवीपी की हार ने भाजपा की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। तेजी से खिसक रहे युवा जनाधार को फिर से कायम करना उसके लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकती है।

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इस चुनाव की खास बात यह भी रही है कि एबीवीपी कायदे से चुनाव भी नहीं हार पायी। उसकी हार भी छोटी हो गयी। अध्यक्ष पद पर मृत्युंजय राव परमार ने उसे तीसरे स्थान पर धकेल दिया। यद्यपि ऐसा माना जा रहा था कि उन्हें एबीवीपी से टिकट मिल जाएगा, वे इसके लिए प्रयासरत भी दिखे। ऐसी बात स्वयं एबीवीपी की अध्यक्ष पद की प्रत्याशी प्रियंका सिंह ने छात्र संघ के अपने दक्षता भाषण में कही थी। फिर भी अब एबीवीपी अपनी हार की जिम्मेवारी लेने से बच नहीं सकती है। अध्यक्ष पद पर एनएसयूआई के सूरज दूबे चौथे स्थान पर, भारतीय विद्यार्थी मोर्चा के विकास कुमार पांचवे स्थान पर, आइसा के शक्ति रजवार छठे स्थान पर, सातवें स्थान पर नोटा का विकल्प तथा इंकलाबी छात्र मोर्चा के सुजीत यादव आठवें स्थान पर रहे।

कांग्रेस पार्टी की छात्र इकाई एनएसयूआई, सीपीएम की छात्र इकाई एसएफआई, सीपीआई(एमएल) की छात्र इकाई आइसा एक भी पद न तो जीत पायी और न ही इस लड़ाई में बेहतर प्रदर्शन कर सकी। इससे यह भी स्पष्ट है कि इन समूहों को अपनी रणनीति में बदलाव लाने की जरूरत है।

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी छात्र संघ चुनाव परिणाम

अध्यक्ष – अवनीश कुमार यादव (समाजवादी छात्र सभा) : 3226, निकटतम प्रतिद्वंदी मृत्युंजय राव परमार, स्वतंत्र प्रत्याशी 2674

उपाध्यक्ष – चंद्रशेखर चौधरी (समाजवादी छात्र सभा): 2249, निकटतम प्रतिद्वंदी शिवम कुमार तिवारी, एबीवीपी, 2177

महामंत्री – निर्भय कुमार द्विवेदी(एबीवीपी): 2132, निकटतम प्रतिद्वंदी अर्पित सिंह राजकुमार, एनएसयूआई, 2071

संयुक्त सचिव/उपमंत्री- भरत सिंह (समाजवादी छात्र सभा): 2051, निकटतम प्रतिद्वंदी आदर्श शुक्ल, स्वतंत्र प्रत्याशी 1421   

सांस्कृतिक सचिव – अवधेश कुमार पटेल (समाजवादी छात्र सभा): 3801, निकटतम प्रतिद्वंदी अभिषेक कुमार अवस्थी, एबीवीपी 2889

परिसर का राजनीतिकरण और जनतंत्र

शोध छात्र अंकित पाठक कहते हैं- ‘’जो लोग हारे हैं और जो लोग जीते हैं- इन दोनों के मायने हैं। आप केवल एबीवीपी की हार पर खुश न होइए। समाजवादी छात्र सभा का चुनाव काफिला लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों की खिल्ली उड़ा रहा था। खुद एबीवीपी और कई अन्य छात्र संगठनों ने अपार पैसा खर्च किया। वहीं आइसा, एसएफआई और एआईडीएसओ के छात्र नेताओं ने चंदा जुटाकर, साइकिल और पैदल प्रचार किया। वे चुनाव हार गए लेकिन उन्होंने अपनी बात रखी।’’ सतीश खरवार कहते हैं- “इन हार गए लोगों को आप खारिज नहीं कर सकते हैं। अगर आप इन्हें खारिज कर रहे हैं तो आप एक शुचितापूर्ण और जनधर्मी छात्र वैचारिकी को भी खारिज कर रहे हैं।” एसएफआई से जुड़े और 2014 में छात्र संघ में अध्यक्ष पद का चुनाव हार चुके छात्र नेता विकास स्वरूप कहते हैं- “केवल चुनाव जीतना ही महत्वपूर्ण नहीं है, छात्रों को राजनीतिक बनाना जरुरी बात है।”

पहले की अपेक्षा आज छात्रों को राजनीतिक बनाना कठिन काम हो गया है। शिक्षा को निजी हाथों में लगातार सौंपा जा रहा है, रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं। परिसरों में भेदभाव और बहिष्करण की घटनाएँ आम हो गयी हैं। इन सबको लेकर हाशियाकृत तबकों में बेचैनी बढ़ी है। ऐसे में छात्रसंघ की राजनीति इस सबसे निपटने के एक हथियार के रूप में विकसित हुई है। यह अनायास नहीं है कि देश के जिन विश्वविद्यालय परिसरों में चुनाव हो रहे हैं, वहां पर अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्संख्यक वर्गों के छात्र अपने साथ हो रहे किसी भी प्रकार के अन्याय के प्रति मुखर हो रहे हैं।

क्या छात्र संघ चुनाव बंद कर देना चाहिए?

नहीं, छात्र संघ का चुनाव बंद नही होना चाहिए। डाक्टर भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि भारत में जनतंत्र उसकी मूलभावना में नहीं बल्कि उसे ऊपर से छिड़का गया है। इसके लिए डाक्टर आंबेडकर ‘टॉप ड्रेसिंग’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं। यदि शिक्षा जनतंत्र और आधुनिकता को बढ़ाने वाली कोई युक्ति है तो हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत के शैक्षिक संस्थान अपने रोजमर्रा के कार्य-व्यापार एवं संघटन में घोर गैर जनतांत्रिक हैं। विद्यार्थी क्या पढ़ेगा, फीस कितनी होगी, उसे कौन पढ़ाएगा? यह सब उससे कभी पूछा ही नहीं जाता है। ऐसे में वह अपने आपको एक बेगानी शिक्षा व्यवस्था में पाता है।

जब भारत में पंचायतीराज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिया गया था तो इसे जनतंत्र की दूसरी लहर कहा गया था। आज देश में, 21 जुलाई 2015 की स्थिति के अनुसार,  कुल 727 विश्वविद्यालय हैं जिनमें 46 केंद्रीय विश्वविद्यालय, 332 राज्य विश्वविद्यालय, 127 डीम्ड विश्वविद्यालय और 222 निजी विश्वविद्यालय हैं। यदि इन परिसरों में छात्र संघ बहाल किए जाएं, शुचितापूर्ण और पारदर्शी छात्र संघ चुनाव हों तो देश जनतंत्र के एक नए दौर में प्रवेश कर जाएगा। राजनीति अच्छी चीज है।

(रमाशंकर सिंह, स्वतंत्र शोधकर्ता हैं और इलाहाबाद में रहते हैं।)

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