जेटली के रवैए से अर्थव्यवस्था सुधरने की बजाए आरबीआई के ध्वस्त होने का खतरा

मुकेश असीम

पिछले एक सप्ताह से मोदी सरकार के वित्त मंत्रालय तथा रिजर्व बैंक के बीच कभी शीत तो कभी उष्ण युद्ध का माहौल बना हुआ है। मजेदार बात यह है कि पिछले रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन की तरह यहां कांग्रेस नियुक्त व्यक्ति के साथ टकराव का भी मामला नहीं है क्योंकि वर्तमान गवर्नर ऊर्जित पटेल और उनकी ओर से सार्वजनिक मोर्चा खोलने वाले डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य दोनों ही न केवल वर्तमान सरकार की पसंद रहे हैं बल्कि अब तक इस सरकार की नीतियों को फर्माबरदारी के साथ लागू किए जाने के लिए जाने जाते रहे हैं।

यह मुद्दा तब आम चर्चा में आया जब 26 अक्तूबर को आचार्य ने एक भाषण में कह दिया कि केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता का सम्मान न करने वाली सरकारें देर-सबेर वित्तीय बाज़ारों के गुस्से का शिकार होती हैं,अर्थव्यवस्था के तले अग्नि प्रज्ज्वलित करती हैं और एक अहम नियामक निकाय को कमजोर करने के लिए एक दिन पश्चाताप करने को मजबूर होती हैं। इसके जवाब में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी रिजर्व बैंक पर तीखा हमला किया और उस पर खुले हाथ कर्ज बांटकर बरबाद होती बैंकिंग व्यवस्था की ओर से आंखे बंद करने का आरोप लगाया। यह भी सामने आया कि वित्त मंत्रालय अब तक तीन पत्र लिखकर रिजर्व बैंक कानून की धारा 7 का प्रयोग कर रिजर्व बैंक को निर्देश देने के अपने अधिकार के इस्तेमाल की धमकी दे चुका है।

गौरतलब है कि आज तक किसी सरकार ने इस अधिकार का प्रयोग नहीं किया है। इससे यहां तक खबरें आने लगीं कि सरकार ऊर्जित पटेल को बर्खास्त कर सकती है या वे खुद ही इस्तीफा दे सकते हैं। यह विवाद इतना उग्र क्यों हुआ इसके लिए हमें इसमें शामिल मुद्दों को समझना जरूरी है।

प्रथम मुद्दा तो लगभग ढाई लाख करोड़ के कर्ज वाले विद्युत उत्पादन संयंत्रों का है जो अपने बैंक कर्ज वापस नहीं कर पा रहे हैं मगर इन कर्जों को अभी तक भी बैंकों ने औपचारिक रूप से एनपीए घोषित नहीं किया है।12 फरवरी के रिजर्व बैंक के सर्कुलर के अनुसार 6 महीने में कर्ज वसूली नियमित न होने पर इन्हें एनपीए घोषित कर बैंकों को इनके खिलाफ दिवालिया कानून के प्रावधानों के अंतर्गत कार्रवाई करनी थी। मगर सरकार ऐसा नहीं चाहती बल्कि उल्टे वित्त मंत्रालय के निर्देशानुसार खुद एसबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को कहा है कि वह इन कर्जों का एक हिस्सा (अदानी, टाटा और एस्सार के कर्ज इसमें शामिल हैं) माफ करने को तैयार है।

दूसरा मुद्दा, बुरी तरह संकट में घिरे 11 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का है जिनके पास पूंजी की सख्त कमी है । जिसके चलते रिजर्व बैंक ने उन पर नए कर्ज देने पर रोक लगा दी है। इस रोक को हटवाकर इन बैंकों द्वारा लघु उद्योग क्षेत्र को ऋण दिलवाना सरकार की मंशा है। अरुण जेटली की असली शिकायत यह नहीं है कि यूपीए के समय बैंकों ने संकट टालने के लिए खुले हाथ कर्ज क्यों बांटे।

जेटली की कुंठा की वजह अब बैंकों का ऐसा न कर पाना है जबकि संकट सिर पर चढ़ बैठा है। आरबीआई के सामने समस्या है कि सरमायेदारों की लूट के बाद सार्वजनिक बैंकों की ऐसी हालत ही नहीं बची है जो वे ज्यादा कर्ज दे सकें। दूसरे, नोटबंदी, जीएसटी के असर से अर्थव्यवस्था में इजारेदारी बढ़ने से लघु.मध्यम कारोबार पर जो गहरी चोट पड़ी है उससे संघ के पुराने वफादार टुटपुंजिया तबके में बेचैनी तो है ही। मुद्रा स्कीम के जुमले से इन्हें लुभाया नहीं जा सका है। ठीक चुनाव से पहले इन्हें खुश करने के लिए बीजेपी एमएसएमई कारोबारियों को बैंक ऋण की शर्तों में ढील देना चाहती है।   

तीसरा मसला यह है कि बैंकों से गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों तक पूरे वित्तीय क्षेत्र में ऋण व नकदी का घोर संकट जारी है। उससे निपटने के लिए सरकार व रिजर्व बैंक दोनों लाखों करोड़ रुपये की नकदी उपलब्ध करा रहे हैं, पर संकट है कि बढ़ता जाता है।

संकट के समाधान के उपायों पर मोदी-जेटली का कांग्रेस नियुक्त रघुराम राजन ही नहीं अपनी चहेती नियुक्ति वाले पनगढ़िया- अरविंद सुब्रमनियम के बाद अब ऊर्जित पटेल-विरल आचार्य से भी टकराव व मनमुटाव हो चुका है, पर इलाज़ का उपाय नहीं मिला। क्योंकि पूंजीवाद में संकट की वजह नकदी, ऋण व मुद्रा की कमी नहीं है। ये तो संकट का लक्षण तथा नतीजा हैं।

संकट की वजह तो पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में है जहां प्रत्येक पूंजीपति अधिक मुनाफे के लिए अचर या स्थिर पूंजी– मशीनों /तकनीक – में अधिकाधिक निवेश कर कम चर पूंजी या श्रम शक्ति के प्रयोग से अधिकाधिक उत्पादन करने का प्रयास करता है। इसके लिए पूंजी भारी मात्रा में वित्तीय क्षेत्र से ऋण लेकर एकत्र की जाती है। लेकिन बढ़ती अचर पूंजी पर मुनाफा पाने के लिए बिक्री भी उसी अनुपात में बढ़नी चाहिए। पर सभी पूंजीपतियों के ऐसा करने पर सबकी बिक्री बढ़ना मुमकिन नहीं होता क्योंकि आवश्यकता होने पर भी लोग क्रय क्षमता के अभाव में बाजार में पटे पड़े माल को खरीद नहीं सकते। यही पूंजीवाद का अति.उत्पादन है। यही स्थिति आज सामने है।

पिछले वित्तीय संकट को टालने के लिए सरकार और रिजर्व बैंक के प्रोत्साहन पर सार्वजनिक क्षेत्र के भारतीय बैंकों ने पूंजीपतियों को उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज दिये। पर इस बढ़ी हुई उत्पादन क्षमता के उत्पाद बाजार में बिक न सके। कई साल से उद्योग लगभग 70 प्रतिशत क्षमता पर ही काम कर पा रहे हैं, अतः उनकी मुनाफा दर घटने लगी और वे कर्ज की किश्त/ब्याज चुकाने में असमर्थ हो गए। यही ऋण व नकदी संकट का मूल कारण है, जिसे सिर्फ रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा प्रसार बढ़ाने से हल नहीं किया जा सकता।

इसी सितंबर में समाप्त तिमाही के कंपनियों के नतीजों को देखें। 236 बड़ी कंपनियों के नतीजों के विश्लेषण से पता चलता है कि अगर दो सबसे बड़ी फर्म रिलायंस व टीसीएसए को छोड़ दें तो बाकी का शुद्ध मुनाफा 4.6 प्रतिशत घटा है। न बिक्री की मात्रा ही बढ़ पा रही है, न ही वे अपने उत्पादों के दाम बढ़ती पूंजी लागत के मुताबिक बढ़ा पा रही हैं। अगर कीमतें ज्यादा बढ़ाएं तो खरीदार सस्ता वाला उत्पाद खरीदने लगते हैं। मांग में कमी की इस समस्या के चलते सीमेंट, इस्पात, विद्युत, पेंट, कार,मोटरसाइकिल तमाम उद्योगों में बिक्री, नकदी व मुनाफे का संकट है और ऋण की किश्त/ब्याज जमा करना मुश्किल है।

जब संकट उत्पादन व्यवस्था में हो तो ऋण व मुद्रा प्रसार से उसको टाला तो जा सकता है, हल नहीं किया जा सकता। पर वो टालने का काम भी मनमोहन सिंह के वक्त में हो चुका, अब वह भी नहीं हो पा रहा है। अब पूंजीवादी व्यवस्था में इसका एक ही समाधान है- कुछ उद्योगों का दिवालिया होकर बंद हो जाना, बेरोजगारी का बेतहाशा बढ़ना। वही चल रहा है। इस हालत में रघुराम राजन रहते या ऊर्जित पटेल या मोदी अब किसी और को ढूंढ लाएं- सबके पास अपने अलग नीम हकीमी नुस्खे हैं, पर इस बीमारी का इलाज़ किसी के पास नहीं, क्योंकि बीमारी तो खुद पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था है।

चौथा मुख्य मुद्दा भुगतान क्षेत्र के लिए अलग नियामक का प्रस्ताव है। इसमें एक चर्चा मुकेश अंबानी के भुगतान बैंक की भी है। पिछले वर्ष मुकेश अंबानी को एक पेमेंट बैंक का लाइसेंस मिला है। पर समस्या यह है कि पेमेंट बैंक सिर्फ 1 लाख रु तक की जमाराशि ले सकता है, कर्ज नहीं दे सकता, निवेश के लिए उसे किसी पूर्ण बैंक के जरिये काम करना होगा, जिसके लिए अरुंधति भट्टाचार्य ने उसे एसबीआई का आधार दिया और बदले में रिलायंस में डाइरेक्टरी पाई। कुल मिलाकर भुगतान बैंक सिर्फ एक सीमित दायरे में ही कारोबार कर सकता है। अब अंबानी बैंकिंग क्षेत्र में भी वही करना चाहता है जो उसने टेलीकॉम में जियो के जरिये किया अर्थात चोर दरवाजे से घुसपैठ। लेकिन किसी उद्योगपति को बैंक लाइसेंस न देने की आरबीआई ही नहीं काफी दूसरे केंद्रीय बैंकों की भी स्थापित नीति है। दूसरे, बैंक वित्त क्षेत्र के अन्य पूंजीपति भी इसके विरोध में हैं। कुछ साल पहले बैंक लाइसेंस देने की नई नीति के वक्त भी अंबानीए मित्तलए टाटा जैसे उद्योगपतियों का बहुत दबाव था कि उन्हें बैंक चलाने का मौका मिलना चाहिए पर आखिर समझौता इस पर हुआ कि उन्हें भुगतान बैंक का सीमित लाइसेंस ही दिया जाए। टाटा ने तो अपना भुगतान बैंक का लाइसेंस वापस कर दिया पर अंबानी व मित्तल अभी मैदान में हैं।

भुगतान बैंक के कारोबार की हद से पार पाने के लिए अब नई चाल चली गई है कि भुगतान क्षेत्र के नियमन का काम आरबीआई से लेकर एक अलग नियामक को दे दिया जाए जो बाद में नियम बदल कर रिलायंस बैंक के काम का दायरा विस्तारित कर दे। पर भुगतान क्षेत्र को हाथ से बाहर जाने देने से आरबीआई का अधिकार क्षेत्र सीमित हो जाएगाए जो उसके कर्ताधर्ताओं को मंजूर नहीं। उधर वित्त मंत्रालय अलग नियामक चाहता है क्योंकि तब उसको इस क्षेत्र में हस्तक्षेप का अधिक मौका मिलेगा।

अब इसमें रिजर्व बैंक की पूंजी की मात्रा व सार्वजनिक बैंकों पर नियंत्रण के मुद्दे भी जुड़ गए हैं। वृद्धि के बड़े.बड़े दावों के बावजूद सरकार की टैक्स वसूली बढ़ नहीं रही है जबकि चुनावी साल में भारी खर्च सामने है। अतः भारी वित्तीय घाटे का सामना कर रही सरकार रिजर्व बैंक की तीन लाख करोड़ से अधिक की रिजर्व पूंजी के एक हिस्से को लाभांश के रूप में दिये जाने दबाव डाल रही हैए जिससे रिजर्व बैंक सहमत नहीं है क्योंकि उसकी राय में तब आगामी संकटों से निपटने के लिए उसके पास रिजर्व कोष समाप्त हो जाएगा।

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