2019 लोकसभा चुनाव: भाजपा के पक्ष में कई क्षेत्रों के नतीजों को किया गया था प्रभावित

देश के निजी विश्वविद्यालयों में यदि किसी एक विश्वविद्यालय के बारे में रेटिंग सबसे शीर्ष पर बनी हुई है तो वह है हरियाणा का नामचीन संस्थान अशोका विश्वविद्यालय। इसके अर्थशास्त्र विभाग के सहायक प्रोफेसर सव्यसाची दास ने सोमवार (1अगस्त) को एक शोध पत्र जारी कर 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान वोटों की गणना में अनियमितताओं के सबूत होने का दावा किया है। मामला प्रकाश में आते ही राजनीतिक रूप से काफी विवादास्पद हो गया, और विशेषकर सत्तापक्ष की ओर से सवाल खड़े किये गये। जहां कुछ लोग शोध पत्र की वैधता पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं, वहीं कुछ अन्य हैं जिन्होंने शोध-प्रबंध के ‘निष्कर्षों’ को परेशान करने वाला करार दिया है।

‘डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’ शीर्षक ‘विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतांत्रिक पतन’ शोध-प्रबंध में प्रोफेसर सब्यसाची दास ने 2019 के लोकसभा चुनावों में कई अनियमितताओं का पता लगाने की कोशिश की है, और साथ ही लिखा है कि 2014 या इससे पूर्व के चुनावों में भारत में चुनाव लगभग निष्पक्ष हुए थे।

शोधपत्र में सब्यसाची कहना है कि, “2019 के आम चुनावों में, जिन निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा उम्मीदवार और प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार के बीच कांटे की टक्कर थी, उन जगहों पर भाजपा ने पूर्व की तुलना में अधिक सीटें जीतने में सफलता हासिल की। ऐसा पैटर्न पिछले चुनावों में कभी नहीं देखा गया, न तो भाजपा और न ही कांग्रेस के पक्ष में। इसके साथ ही उन्होंने अपने निष्कर्ष में यह भी बताया है कि जिन करीबी मुकाबले वाली सीटों पर भाजपा को ये ‘अनुपातहीन’ जीत हासिल हुई थीं, वे मुख्य रूप से उस दौरान भाजपा शासित राज्यों में हासिल हुई थीं।” 

अपने शोध पत्र की शुरुआत में ही सव्यसाची लिखते हैं कि 2019 में सत्तारूढ़ पार्टी की जीत में चुनावी आंकड़ों की पड़ताल से उन्हें कुछ चौंकाने वाले नतीजे देखने को मिले हैं। इन क्षेत्रों में सत्तारूढ़ पार्टी (भाजपा) की जीत का प्रतिशत आश्चर्यजनक रूप से काफी अधिक है, जैसा पिछले आमसभा के चुनावों में देखने को नहीं मिलता है। इसके लिए विभिन्न लोकसभा क्षेत्रों के आंकड़ों का सर्वेक्षण किया गया है और इसका सांख्यिकीय विश्लेषण शामिल है।

2019 आम चुनावों के साथ-साथ लेखक का दावा है कि उन्होंने 1977-2019 के बीच हुए लोकसभा चुनावों और 2019-21 के बीच हुए विधानसभा चुनावों का भी अध्ययन किया। चुनाव में हेराफेरी की जांच के लिए चुनावों के प्रबंधन हेतु आईएएस और राज्य प्रशासन के अधिकारियों के तहत हुए चुनावों में क्या फर्क देखने को मिला है, विशेषकर भाजपा शासित राज्यों का विश्लेषण एक अलग तस्वीर पेश करता है। भाजपा शासित राज्यों के राज्य स्तरीय प्रशासनिक अधिकारियों का ज्यादा लचीला होना, मतगणना में हेराफेरी की संभावनाओं को बढ़ा देता है। 

इसके अलावा मुस्लिम मतदाताओं के खिलाफ लक्षित चुनावी भेदभाव भी एक बेहद अहम पहलू है, जिसमें मतदाता पंजीकरण के स्तर पर चुनाव में हेरफेर की जांच के लिए सभी निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं की वृद्धि दर का अध्ययन किया गया है। जिन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी की बहुतायत थी, उन निर्वाचन क्षेत्रों में नए मतदाताओं की वृद्धि दर बेहद कम थी, जिससे पता चलता है कि मुस्लिम मतदाताओं को उनके मताधिकार से वंचित किया गया था। 

चुनाव में मतदान स्तर पर हेरफेर की जांच के लिए शोधपत्र चुनाव आयोग के दो अलग-अलग आधिकारिक संस्करणों से निर्वाचन क्षेत्र-स्तरीय ईवीएम मतदान डेटा की पड़ताल करता है – चुनाव आयोग की वेबसाइट पर शुरू में जारी किए गए ईवीएम वोटों की अंतिम गिनती, और वास्तव में ईवीएम के वोटों की संख्या में अंतर। इनकी जांच करने पर दोनों आंकड़ों में हर बार मेल नहीं दिखा। दास का इस बारे में कहना है, “जब मीडिया ने इन विसंगतियों की ओर इशारा किया तो ईसीआई ने अपनी वेबसाइट से पूर्व के आंकड़े हटा दिए थे।”

36 लोकसभा क्षेत्रों में असम (2-करीमगंज, नौगाँव), गोवा(1-दक्षिणी गोवा), बिहार(1-पाटलिपुत्र), हरियाणा(1-रोहतक), झारखण्ड(3-दुमका, खुंटी, लोहरदग्गा), महाराष्ट्र(2-चंद्रपुर, नांदेड़), मणिपुर(1-इनर मणिपुर), उत्तर प्रदेश(16-सहारनपुर, मुज्जफरनगर, मेरठ, बागपत, फिरोजाबाद, बदायूं, सुल्तानपुर, कन्नौज, कौशाम्बी, श्रावस्ती, बस्ती, संत कबीर नगर, बलिया, मछलीशहर, चंदौली, भदोही), अंडमान निकोबार (1), छत्तीसगढ़(4-रायगढ़, कोरबा, बस्तर,कांकेर), दादरा नगर हवेली (1) और कर्नाटक (3-कोप्पल, बेल्लारी, तुमकुर) लोकसभा क्षेत्रों को शामिल किया गया है। 

ये निष्कर्ष अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण हैं। इस संदर्भ में दो तथ्यों पर विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है। पिछले माह जुलाई में एक संसदीय समिति ने अपने बयान में कहा था कि केंद्र सरकार ने संसद में वादा किया था कि वह 2019 लोकसभा चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) और वीवीपेट के बीच संभावित विसंगतियों के बारे में चुनाव आयोग से जानकारी प्राप्त करेगी, लेकिन पिछले चार वर्षों से उसने अभी तक कोई जवाब नहीं दिया है। लेकिन आज इस बात को चार साल बीत चुके हैं, इसके बावजूद इस पर कोई जानकारी सामने नहीं आई है। इसमें यह भी कहा गया कि मतदान प्रक्रिया की सुरक्षा के लिए ऐसे मुद्दों की पहचान करना आवश्यक है। भाजपा सांसद राजेंद्र अग्रवाल की अध्यक्षता वाली समिति को कानून मंत्रालय ने बताया कि उसने 12 मार्च 2020 को चुनाव आयोग से इस बारे में आवश्यक जानकारी मांगी थी और 3 सितंबर 2020, 19 फरवरी 2021, 7 अक्टूबर 2021, 26 नवंबर 2021 और 3 जून, 2022 को रिमाइंडर भेजे थे। मंत्रालय का इस बारे में कहना है कि चुनाव आयोग से इस बारे में जानकारी आनी अभी शेष है। 

सवाल उठता है कि चुनाव आयोग भला खुद क्यों इस बारे में 4 साल से चुप बैठी है? ईवीएम मतदान और वीवीपेट में आये मतपत्रों के मिलान में यदि कोई अनियमितता है तो उससे चुनाव आयोग का नुकसान होगा या इससे सरकार की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आने वाली है? जाहिर सी बात है चुनाव आयोग सरकार के इशारे पर ही संसदीय समिति की मांग की अनदेखी कर रही है। यदि चुनाव आयोग स्वंय निर्वाचित सांसदों के अनुरोध को 4 साल से अनसुना कर रही है, तो फिर इस देश में लोकतंत्र की क्या हैसियत बची है?

2019 में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मतदाताओं के वोटरलिस्ट से नाम गायब होने की घटना:

इस बारे में डेक्कन हेराल्ड अखबार में सबा नकवी का 14 फरवरी 2022 का लेख बेहद मौजूं है। इस खबर में बताया गया था कि 2019 लोकसभा चुनावों से पहले ‘कोई भी मतदाता छूटने न पाए’ अभियान में 12 करोड़ भारतीयों के नाम मतदाता सूची से गायब पाए गये थे। इसमें सबसे बढ़ी संख्या के रूप में 4 करोड़ दलित और 3 करोड़ मुस्लिम आबादी थी। 

उत्तर प्रदेश के अपने अनुभव को साझा करते हुए सबा नकवी लिखती हैं कि मुरादाबाद के शेर मोहम्मद मतदान से चार दिन पहले बेहद मायूस थे। इससे पहले वे हर चुनाव में वोट डालते थे, लेकिन इस बार उनका नाम वोटर लिस्ट से गायब था। इसी प्रकार वसीम अकरम की आँखों में आंसू थे, जब उन्होंने पाया कि उनके परिवार के 10 सदस्यों में सिर्फ एक का नाम ही वोटर लिस्ट में मौजूद था। वे बताती हैं कि गलियों में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता जब संभावित मतदाताओं को वोटर स्लिप दे रहे थे तो लोग यह देखकर बेहद गुस्से और हताशा में थे कि उनके नाम ही वोटर लिस्ट से गायब हैं। सिर्फ 20% लोगों के नाम ही मतदाता सूची में पाए गये, जबकि 80% लोग इस सूची से बाहर कर दिए गये थे। 

यहां पर बीएलओ (बूथ स्तर के अधिकारी) की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन बीएलओ या तो अस्थाई होता है या किसी खास विचारधारा के प्रवाह में उसकी भूमिका प्रश्नों के घेरे में बनी रहती है। मतदाता सूची में नाम न होने पर यदि इसकी सूचना/शिकायत संबंधित चुनाव आयोग अधिकारी के सामने पेश भी की जाती है तो इसमें 10-15 दिन तक का समय लग सकता है, और नाम जुड़े ही, इसकी गारंटी नहीं की जा सकती है। यह काम विपक्षी दल कर सकते हैं, लेकिन उनके सामने भी बड़ा प्रश्न पार्टी लोकसभा क्षेत्र में किस प्रत्याशी को टिकट देने जा रही है पर टिका होता है। यदि पार्टियां1-2 महीने पहले ही अपना प्रत्याशी घोषित कर दें, तो इस समस्या से काफी हद तक निपटा जा सकता है। ये बातें इस लेख से निकलकर आती हैं।

लेकिन ये तथ्य अपने आप में इस बात का सबूत हैं कि 2019 में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर लोगों के नाम मतदाता सूची से काटकर एक अलग ही तस्वीर पेश की गई थी। ये सवाल बेहद अहम हैं, जिसे संगठित रूप से राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि बूथ लेवल तक मजबूती से रखने पर ही निष्पक्ष चुनाव की गारंटी की जा सकती है। 

हालांकि शोध पत्र इस बात को भी रेखांकित करता है कि बड़े पैमाने पर इस प्रयोग को किया गया, इसका सबूत उसके पास नहीं है। दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि इसके बगैर भी भाजपा ही 2019 चुनाव की विजेता होती। लेकिन सवाल उठता है कि यदि जिस चीज को 2019 में बेहद सटीक तरीके से रणनीतिक रूप से चुनिंदा लोकसभा क्षेत्रों में आजमाया गया था, 2024 में इसे बड़े पैमाने पर नहीं अंजाम दिया जायेगा की क्या गारंटी है?

(‘डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’ शोध पत्र पर आधारित। यह शोध-पत्र अशोका यूनिवर्सिटी के इकोनामिक्स विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर ने प्रस्तुत किया है।)

रविंद्र पटवाल

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