जनजातीय गौरव दिवस: ‘जनजाति’ शब्द को इतिहास का अंग बनाने और आदिवासियत मिटाने का खेल

रांची। 15 नवम्बर यानी धरती आबा बिरसा मुंडा की जयंती तथा झारखंड स्थापना दिवस के दिन मोदी सरकार द्वारा “जनजातीय गौरव दिवस” मनाने के पीछे आरएसएस की आदिवासियों की आदिवासियत का हिन्दूकरण करने की नीयत साफ झलकती है। वास्तव में बिरसा जयंती के बहाने “जनजाति” शब्द को सरकारी खर्चे से वैधानिकता देना इतिहास का अंग बनाने का खेल है।

कहना ना होगा कि जनजाति शब्द को हजारों बार दोहराने, उसे आदिवासियों की नई पीढ़ी के दिमाग में लगातार डालने और बिरसा सहित तमाम आदिवासी नायकों से अभिन्न रूप से जुड़ी हुए “आदिवासी” शब्द को धीरे-धीरे करके पूरी तरह अलग-थलग करने का यह शातिर खेल का हिस्सा है।

आदिवासी यानी indigenous, aboriginal, native शब्द एक डीएनए वाले वंश-समूह का परिचायक शब्द है, जो आज मान्यता प्राप्त पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रचलित है। प्राचीन काल से भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाला प्राचीन समाज ही आधुनिक भारतीय इतिहास में आदिवासी कहलाता है जो आधुनिक भारतीय समाज की मौलिक जड़ है।

इस बावत नेह इंदवार लिखते हैं- भारतीय उपमहाद्वीप के हजारों पहाड़ी गुफाओं, कंदराओं में 15-20 हजार वर्ष पुराने भित्ति चित्र और श्मशानों में ससम्मान दफनाए गए पुरखों की याद में लगाए गए पत्थलगड़ी, आदिवासी समाज के प्राचीनता के साक्षी हैं। मध्य-प्राचीन काल के मोहनजोदड़ो, हड़प्पा के खंडहर और आज के आदिवासी समाज के डीएनए, चेहरे-मोहरे, कदकाठी, रंग और मानसिक प्रकृति से मेल खाते राखीगढ़ी के डीएनए इसका सबूत हैं।

आदिवासियों की विशिष्ट रूढ़ि परंपरा, रीति रिवाज, नेग दस्तुर, पर्व त्यौहार, जीवन मूल्य, जीवन दृष्टि, प्राकृतिक पूजा, मानवीय समानता का व्यवहार, पशु-पक्षियों और खेत-खलिहानों की सामूहिकता आदिवासी सभ्यता की विशिष्टता है। यह उनके अलग सभ्यता के वाहक होने की निशानी है। आधुनिक काल में भी आदिवासी समाज अपने प्राचीनतम सभ्यता की निशानी को अपने सामाजिक, धार्मिक कार्यकलापों के खांचे में बचा कर रखा है। वे आज भी अपनी विशिष्ट पहचान को बाहरी प्रभाव और आघात से बचा कर रखने के लिए संघर्षरत हैं। लेकिन उनके अस्तित्व और सभ्यता को खत्म करने के आधात भी कम नहीं हो रहे हैं।

आधुनिक इतिहास लेखन में जब से आर्यों को मध्य एशिया के मैदानी भाग से आने वाला घुमंतु समुदाय और आदिवासियों को इस देश के देशज समाज के रूप में तमाम सबूतों के द्वारा निरूपित किया गया है, तब से अपने को मूल भारतीय साबित करने के प्रयास में बाहरी आर्य सभ्यता के वाहक विभिन्न प्रकार के षड़यंत्र में रत हो गए हैं। आरएसएस नामक ब्राह्मण सामाजिक संगठन आर्यों को इस देश का मूल निवासी साबित करने के खेल में हर उस पैंतरे को आजमा रहा है, जो न सिर्फ नैतिक और ऐतिहासिक रूप से जालसाजी है, बल्कि इसके लिए वह अपने पेट से निकली बीजेपी पार्टी और सरकार को भी इस कार्य में जोत दिया है।

विडंबना यह है कि इसमें आदिवासी सभ्यता से पालित और पोषित व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को साधने वाले व्यक्तियों का साथ भी उन्हें मिल रहा है। आरएसएस ने भारत में ही नहीं, बल्कि यूरोप और अमेरिका तक में इतिहास लेखन को बदलने और अपने को भारतीय सिद्ध करवाने के लिए बौद्धिक ग्रुप बना कर रखा है, ताकि उन रिपोर्टों को आधुनिक शोध का जामा पहनाया जा सके। इसमें भारी वेतन लेने वाले पश्चिम के तथाकथित शोधार्थी भी शामिल हैं।

इस संगठन ने आदिवासियों के आदिवासियत यानी उसकी प्राचीन सभ्यता को खत्म करने के लिए राजनीति, कुटनीति, आर्थिक, सामाजिक साम, दाम, दंड भेद की नीतियों को अपना लिया है। इन्होंने इसके लिए कई प्रकार के प्रारूप और मॉडल तैयार किए हैं। वनवासी शब्द आदिवासी शब्द को खत्म करने का एक सुनियोजित प्रयास था। उससे गिरीजन शब्द चलन में आ चुका था।

इसके पश्चात संविधान सभा में आदिवासी शब्द को शामिल करने की मुहिम को ऊंच-नीच से सराबोर जंगली मानसिकता ने पलीता लगाया था। क्योंकि इस शब्द के शामिल होने मात्र से शेष जनसंख्या बाहरी हो जाती। फिर महौल में वनवासी शब्द को लाया गया और करोड़ों खर्च करके वनवासी आश्रम बनाया गया और देश भर में इसे फैलाया गया।

लेकिन सोशल मीडिया के अविर्भाव के बाद भारतीय मीडिया का एकतरफा दबदबा तिरोहित हो गया और बड़ी संख्या में शिक्षित आदिवासियों के सोशल मीडिया में आने के कारण वनवासी शब्दों पर प्रचंड प्रहार होने लगा और इसका सीधा प्रभाव बीजेपी की चुनावी रणनीति पर पड़ने लगा, तो आरएसएस ने इस मुहीम को ठण्डे बस्ते में डाल दिया। उन्हें वनवासी शब्द के विकल्प में कोई शब्द मिल नहीं रहे थे, तो उन्होंने अनुसूचित जनजाति शब्द को ही विकल्प के रूप में चुना और पिछले तीन चार सालों से इस शब्द का प्रचलन कुछ लोगों के द्वारा बढ़ गया।

आदिवासी शब्द को पदच्यूत नहीं कर पाने के कारण आरएसएस ने अब इस मामले को आगे बढ़ाने के लिए सरकार को ही आगे कर दिया है और तमाम सरकारी भोंपू में जनजाति शब्द को प्रोपोगेट करने के लिए धरती आबा बिरसा मुंडा की आड़ लिया जाएगा। इसमें भी अरबों का खेल खेला जाएगा। सभ्यता के संघर्ष में अरबों-खरबों का खर्च हर युग में हर लड़ाई में किया गया है।

नेह इंदवार लिखते हैं – संविधान सभा में आदिवासी शब्द के बदले अनुसूचित जनजाति शब्द को रखने के कई दूरगामी उद्देश्य शामिल थे। इसका प्रथम उद्देश्य प्राचीन भारतीय समुदाय की स्वाभाविक पहचान को छीन कर उसे एक इतिहास-हीन और अधिकार-विहीन नया नाम देना था। ताकि जातिवादी-वर्णवादी धरती पर उन्हें सबसे नीचे के पायदान में रखा जा सके और उनके अस्तित्व को कमजोर किया जा सके।

इसके साथ उन लोगों के माथे से “बाहरी” शब्द को मिटाना भी था, जो बाहर से आकर इस देश में अपने छल-बल, प्रपंच, कुटनीति से देश की हर संपदा और अधिकार की कुर्सी पर नयी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मानसिक व्यवस्था के तहत शासक बन बैठे हैं।

अनुसूचित जनजाति शब्द को नौकरी और चुनावी राजनीति से जोड़ कर उसे स्थायित्व देने की नीति बना ली गई थी। भारत देश के प्रथम नागरिकता अधिकार रखने वाले, देश के सबसे प्राचीन मालिकों (आदिवासियों) को हिन्दू धर्म के शोषणवादी, जंगलीपन से सने हुए जातिवादी खांचे में सबसे नीचे के पायदान में रखने की चालें इससे स्थायित्व पाती हैं। इसे प्रगाढ़ बनाने के लिए साहित्य रचे गए, मीडिया और अखबारों में बार-बार उन्हें सबसे नीचे के पायदान वाले के रूप में उल्लेख करके उनका खूब प्रचार-प्रसार किया गया।

बाकी लोगों को उनसे ऊपर रख कर उन्हें आदिवासियों से आगे दिखाया जाता रहा। सीढ़ीनुमा जातिवादी सभ्यता से जुड़ी हुई तमाम शोषणमूलक ढांचे को देश के प्रथम नागरिकता के अधिकार रखने वाले आदिवासियों पर थोपने के पूरजोर सामूहिक प्रयास किए गए। अखबार और साहित्य की शोषणवादी शक्ति से अनजान चिंतनहीन आदिवासी भी मानसिक रूप से इसे स्वीकार करने लग गए थे। सब कुछ वैसा ही चल रहा था, जैसा बाहरी सभ्यता ने देसी सभ्यता को नष्ट करने के लिए धार्मिक और मानसिक पृष्टभूमि तैयार की थी। अधिकार-विहीन रखने की शैतानी चाल को स्थायित्व पाते “आदिवासी” शब्द ने बिगाड़ कर रख दिया है।

“आदिवासी” शब्द जब प्राचीन सभ्यता के वंश-समुदाय की पहचान बन गया और आदिवासी शब्द हिचकोले खाते हुए पारिभाषिक शब्द बन गया तो षड़यंत्री दिमाग चिंतित हो गए। वे आदिवासी शब्द को पिछड़ापन, जंगलीपन, नंगापन, गरीबी, कंगाली से जोड़ कर “शब्द” के साथ खिलवाड़ करने लग गए। उसे Indigenous अर्थ से अलग रंग-रूप देने लग लगे। क्योंकि मुद्दइयों के पास साहित्य और मीडिया की शक्ति थी।

चूंकि यह शब्द अंग्रेजी के Indigenous के समानार्थी बन चुका था और यूएनओ में Indigenous शब्द को लेकर तमाम बैठकें होने लगी थीं। यूएनओ के माध्यम से सभी आधुनिक देशों में आदिवासी समुदायों के अधिकारों को मान्यता दी जाने लगी थी और राष्ट्रीय सम्पदाओं पर उनके प्रथम अधिकार को स्वीकार किया जाने लगा था। भारत भी Indigenous rights पर एक हस्ताक्षरी बन गया था।

लेकिन अन्यायी सरकार ने आदिवासियों को उनके प्रथम अधिकार से वंचित करने के लिए यूएनओ में कह दिया कि भारत में कोई आदिवासी समुदाय नहीं है ओर भारत में जातिवादी व्यवस्था में जो समुदाय पिछड़ गए हैं, उन्हें आरक्षण देकर उनके विकास और अधिकारों को सुनिश्चित किया जा रहा है।

आदिवासी शब्द उनके लिए कितना सर दर्द बन गया है, इसे इस नजरिए से भी देखा जा सकता है। Indigenous rights लागू हो जाएं तो पांचवी अनुसूची के इलाकों में खनिज संपदाओं की लूट रुक जा सकती है। राखीगढ़ी में मिले डीएनए, पहाड़ों की गुफाओं-कंदराओं में मिले अति प्राचीन भीति चित्र आदि को यूएनए में पूरी तरह नाकार दिया गया।

चूंकि आरक्षण और चुनावी खेल अनुसूचित जनजाति के नाम से चलते हैं। इसलिए इसी शब्द को स्थायी रूप से प्राचीन वंशीय समुदाय का परिचय बना दिया जाए और बाजार में चला कर “आदिवासी” शब्द को विस्थापित करने की चालें चलने का निश्चय किया गया। इस शब्द को आदिवासी शब्द की जगह बार-बार चलाने, उसे पूरी तरह प्रचलित करने का प्रयास फिलहाल जोरों पर चल रहा है। आदिवासी क्रांतिसूर्य बने बिरसा के नाम के साथ इस शब्द को जोड़ दिया जाए तो यह लुढ़कने के बजाय दौड़ने लग जाएगा। लगता है ऐसे ही विचारों से प्रेरित है यह नया पैंतरा शुरू किया गया है।

सभ्यता के संघर्ष पर सामुएल हटिंगटन की किताब पढ़ने वाले ही इस भारतीय सभ्यताओं के संघर्ष की बातों को जड़ से समझ सकते हैं। भारत में सभ्यताओं के संघर्ष की कहानी 2000-3000 वर्ष पुरानी है। प्राचीन काल के शांतिमय भारत वंशियों को संघर्ष से बचने और अपनी सभ्यता को बचाने के लिए हड़प्पा, मोहनजोदड़ों की घाटियों से निरंतर दक्षिण की ओर जाना पड़ा। 

लेकिन एक ऐसी स्थिति आई कि उन्हें बाहरियों के साथ सहअस्तित्व के माहौल में रहना पड़ा। लेकिन तब से एक समिश्रित, सम्मिलित समाज बनाने के बजाय बाहरियों ने देश हड़पो-सांस्कृति और धर्म हड़पो मानसिकता में एक नई लड़ाई शुरू की। जो आज भी उसी मानसिकता के साथ जारी है।

यह लड़ाई धर्म की आड़ में बड़ी चालाकी से पृष्टभूमि में चल रही थी। इतिहास में प्राचीन काल के प्राचीन वंशियों का कोई उल्लेख सम्मानित ढंग से कहीं नहीं है। जिनका डीएनए प्राचीनता के रंग से सराबोर है, उनके पास देश की संपदा का कोई उल्लेखनीय अंश और अधिकार नहीं है। हर देसी-आदिवासी पर्व त्यौहारों के साथ एक आर्य कहानियों वाली पर्व त्योहार जुड़ी हुई हैं। ये तमाम तथ्य सांस्कृतिक और धार्मिक थाती की लूट की कहानी स्पष्ट रूप से कहते हैं। आज यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि देश में सभ्यताओं के बीच वर्चस्व की एकतरफा लड़ाई चल रही है।

सभ्यताओं की लड़ाई की इस पृष्टभूमि पर बहुत कम लिखा गया। क्योंकि साहित्य और मीडिया पर लूटने वालों का अधिकार रहा है। लेकिन आजादी और आधुनिक शिक्षा ने एक कंपोजिट समाज के गठन का अवसर दिया। जिसमें सभी समाज के विशिष्टताओं की छाप होना चाहिए। सभी के अधिकारों और पहचान का सम्मान होना चाहिए। लेकिन जंगली जातिवादी, वर्णवादी मानसिकता अपनी बदमाशी को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है।

अब सभ्यता, जीवन मूल्यों, पहचान और अधिकार की लड़ाई सतह पर आ गई है।  आर्थिक और राजनीति की चालाकी व्यवस्था में पिछड़ गए प्राचीन डीएनए को ढोने वाले समुदायों को शिक्षा, आम साहित्य और मीडिया तथा हालिया सोशल मीडिया ने संघर्ष करने के कई ताकतवर हथियार दे दिए हैं।

लेकिन सबसे बडी ताकत नीलगिरी पहाड़ों के ऊपरी भाग में रहने वाले जीवित आदिवासी इरूला समुदाय के डीएनए के साथ राखीगढ़ी के डीएनए मेल ने दिया है। जो खेल आर्यों के आने के बाद आदिवासी सभ्यता को मिटाने, उसे डायलूट करने या उसमें अपनी सभ्यता के अंश को गुंफित करने का शुरू हुआ था, उसमें चेक मेट करने का माकूल अवसर आ गया है। जनजातीय गौरव दिवस भी उसी लड़ाई की एक कड़ी है।

(विशद कुमार की रिपोर्ट।)

विशद कुमार
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