अनुच्छेद 370 को बेअसर करने से कुछ हासिल नहीं हुआ

”कश्मीर पर बल द्वारा नहीं, केवल पुण्य द्वारा ही विजय पाई जा सकती है। यहां के निवासी केवल परलोक से भयभीत होते हैं, न कि शस्त्रधारियों से।’’ बारहवीं शताब्दी के मध्य में प्रसिद्ध कश्मीरी कवि और इतिहासकार कल्हण द्वारा रचित संस्कृत ग्रंथ ‘राजतरंगिणी’ में कही गई यह बात कश्मीर के ताजा हालात के संदर्भ में आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है। लेकिन हकीकत यह है कि भारत की आजादी और भारतीय संघ में कश्मीर के विलय के बाद से ही कश्मीर लगातार बल और छल का शिकार होता रहा है- कभी कम तो कभी ज्यादा। 

यही वजह है कि कश्मीरी अवाम भी हमेशा दिल्ली के शासकों को और यहां तक कि शेष भारत को भी शक की नजर से देखता रहा है, भले ही हम मौके-बेमौके यह दोहराते रहें कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। आज तो कश्मीरी अवाम इतना क्षुब्ध और बेचैन है कि वह भारत के साथ रहना ही नहीं चाहता। 

कश्मीर को ताकत के जरिए वश में करने का प्रलाप करने वाले लोग हमारे देश में कम नहीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोगों के अलावा कुछ अन्य तबकों में भी इस तरह के लोग बड़ी संख्या में मिल जाएंगे। लेकिन ऐसा प्रलाप सिवाय पागलपन के कुछ नहीं है। किसी भी राज्य या राज्य के हिस्से को बल-प्रयोग से काबू में नहीं रखा जा सकता। अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ जैसी महाशक्तियों का वियतनाम, अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में क्या हस्र हुआ, उसे याद रख कर उससे सीखा जा सकता है। 

किसी को अपना बनाने के दो ही रास्ते दुनिया में अपनाए गए हैं- या तो हिंसा का या प्रेम का रास्ता। हिंसा का रास्ता कभी सफल नहीं हुआ है। अत: प्रेम का रास्ता ही एकमात्र विकल्प है। भारत के ही संदर्भ में देखें तो पिछले चार दशकों के दौरान मिजोरम में ललडेंगा, नगालैंड में इसहाक-मुइवा गुट, पंजाब में अकाली दल (लोंगोवाल) और असम में आंदोलनकारी छात्रों तथा बोडो उग्रवादियों से भी तो आखिर बातचीत के माध्यम से ही मसलों का हल निकाला गया और उन्हें हथियार त्यागने पर राजी किया। 

कश्मीर के संदर्भ में भी मौजूदा सरकार से पहले वाली सभी सरकारें यह बात मानती रही हैं। केंद्र में चाहे जिस दल या गठबंधन की सरकार रही हो, सभी ने कश्मीर के लिए और अधिक स्वायत्तता या आजादी की मांग करने वाले विभिन्न समूहों से बातचीत की है- भले ही वह बातचीत बेनतीजा रही हो। अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने तो अलगावादी समूहों के गठबंधन यानी हुर्रियत के नेताओं से ही नहीं बल्कि हिज्बुल मुजाहिदीन जैसे उग्रवादी संगठन से भी बातचीत की थी और उसे संघर्ष विराम के लिए राजी कर लिया था। 

उस बातचीत में सरकार का प्रतिनिधित्व तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने किया था। यह बातचीत का ही नतीजा था कि 2016 के पहले तक पाकिस्तान प्रेरित आतंकवादी वारदातों के बावजूद वहां पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में लोग आतंकवादियों की धमकियों के बावजूद बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे थे। इस दौरान भाजपा ने भी मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती के साथ मिल कर सत्ता में भागीदारी की थी।

बहरहाल इस बात में कोई शक नहीं कि कश्मीर का मसला अपनी विकृति की चरम अवस्था में पहुंच गया है। केंद्र की मौजूदा सरकार और सत्ताधारी दल के तेवरों को देखते हुए इस स्थिति का कोई तुरत-फुरत हल दिखाई नहीं देता। केंद्र सरकार ने पिछले छह वर्षों के दौरान कश्मीर को लेकर जितने भी प्रयोग किए हैं, उससे तो मसला सुलझने के बजाय इतना ज्यादा उलझ गया है कि कश्मीर अब देश के लिए समस्या नहीं रहा बल्कि एक गंभीर प्रश्न बन गया है। वैसे यह प्रश्न बीज रूप में तो हमेशा ही मौजूद रहा लेकिन हाल के वर्षों में इसे विकसित करने का श्रेय उन नीतियों को है, जो अंध राष्ट्रवाद और संकुचित लोकतंत्र की देन है। 

आज से ठीक तीन साल पहले 5 अगस्त 2019 को जब केंद्र सरकार ने अपने संसदीय बहुमत के दम पर संविधान के अनुच्छेद 370 पर कुल्हाड़ी चला कर जम्मू-कश्मीर का पूर्ण और विशेष राज्य का दर्जा खत्म करते हुए उसके दो टुकड़े कर दिए थे तो उसे मालूम था कि इसका कश्मीर घाटी में भारी विरोध होगा। उस विरोध को दबाने के लिए ही अगले कई महीनों के लिए समूचे कश्मीर को एक बड़ी और खुली जेल में तब्दील कर प्रमुख नेताओं को नजरबंद कर दिया गया था, सार्वजनिक तौर पर लोगों के मिलने-जुलने और सभाएं करने पर रोक लगा दी गई थी, इंटरनेट और फोन सेवाएं ठप कर दी गई थीं और कदम-कदम पर अर्ध सैनिक बलों के जवान तैनात कर दिए गए थे। यह सब इसलिए किया गया था कि आम लोग आक्रोश में आकर हिंसक न हो जाएं और पुलिस व सेना की कार्रवाई में बड़ी संख्या में बेगुनाह लोगों को जान से हाथ न धोना पड़े, ऐसा सरकार की ओर से कहा गया था। 

फौरी तौर सरकार की इस कार्रवाई का असर सही रहा। कहीं से किसी हिंसक प्रतिक्रिया की खबर नहीं आई। घाटी के बाशिंदों का त्वरित आक्रोश जो उनके सीने में ही दबकर रह गया, उसे सरकार ने खत्म हुआ मान लिया। सरकारी आतंक और दमन के दम पर कायम हुई इस शांति को सरकारी रंग में रंगे मीडिया ने भी सरकार की बड़ी कामयाबी के रूप में पेश किया। सरकार की ओर से बढ़-चढ़ कर दावे किए गए कि अब देश के बाकी हिस्सों के निवेशक यहां उद्योग-धंधे स्थापित कर सकेंगे जिससे घाटी के नौजवानों के लिए रोजगार के अवसर पैदा होंगे, घाटी में विकास की गतिविधियां तेज हो सकेंगी और आतंकवाद खत्म हो जाएगा। 

लेकिन ऐसा न तो होना था और न हुआ। इस दमन के चलते उग्र कश्मीरी युवाओं के मन में दबे आक्रोश ने एक भयानक रूप ले लिया जो अनुच्छेद 370 को बेअसर करने के तीन ही महीने बाद देश के दूसरे हिस्सों से घाटी में आए मज़दूरों की हत्या के रूप में सामने आया। यह कश्मीर में हिंसक प्रतिरोध का एक नया रूप था जो अगस्त 2019 के बाद शुरू हुआ था। अनुच्छेद 370 को जिस तरह सरकार ने बेअसर किया और किसी भी राजनीतिक दल की ओर से उसका प्रभावी विरोध नहीं हुआ, उससे कश्मीरियों को लगने लगा कि पूरे भारत ने उन्हें धोखा दिया है। 

आम कश्मीरी के मन में यह बात घर कर गई कि 1950 में अनुच्छेद 370 के रूप में जो एक विशेष दर्जा बतौर उपहार उन्हें भारत में शामिल होने के बदले मिला था, वह छल-कपट और बंदूकों के बल पर उनसे छीन लिया गया। उन्हें यह भी लगने लगा कि इस जोर-जबरदस्ती में पूरा देश सरकार के साथ है। इसी वजह से बंगाल, झारखंड, बिहार और राजस्थान से वहां आए निरीह मजदूर उनके आक्रोश का शिकार हो गए। 

अगस्त 2019 से पहले तक अलगाववादी समूहों और स्थानीय आतंकवादियों की लड़ाई शेष भारतीयों से नहीं बल्कि भारत सरकार और उसके आदेश पर काम करने वाले सशस्त्रबलों से थी। यहां तक कि आजाद कश्मीर की लड़ाई में कभी उनके साथ नहीं रहे कश्मीरी पंडितों को भी निशाना बनाए जाने की घटनाएं पिछले कई सालों से कम ही देखने-सुनने में आ रही थीं, लेकिन अगस्त 2019 ने सब कुछ उलट-पुलट कर दिया। इसने कश्मीरी पंडितों समेत सारे भारतीयों को कश्मीर घाटी के बाशिंदों का दुश्मन बना दिया और उनको अपना ग़ुस्सा निकालने के लिए एक आसान निशाना दे दिया।

कश्मीर की आज़ादी के लिए आज जिन नौजवानों ने हथियार हाथ में उठा रखे हैं, वे जानते हैं कि उनकी संख्या बहुत कम है। पाकिस्तान से थोड़ी-बहुत मदद मिल भी जाए तो भी वे भारतीय सशस्त्र बलों का मुक़ाबला नहीं कर सकते। यही वजह है कि वे अब सशस्त्र बलों या उनके ठिकानों पर हमले नहीं करते। इसके बदले वे उन कमजोर लोगों को निशाना बनाते हैं जो उनकी नज़र में सरकार के साथ हैं। मसलन पुलिस में काम करने वाले कश्मीरी मुसलमान, जिनको वे ग़द्दार समझते हैं या वे हिंदू जो सरकारी कर्मचारी के तौर पर घाटी में तैनात हैं।

केंद्र सरकार और भाजपा के नेता भले ही अनुच्छेद 370 बेअसर किए जाने को अपनी ऐतिहासिक जीत बताते रहे, लेकिन हकीकत यह है कि पारंपरिक तौर पर भाजपा के प्रभाव वाले जम्मू इलाके के लोग भी सरकार के इस कदम को सही नहीं मानते हैं। इसके अलावा कश्मीर में आम लोगों को निशाना बनाए जाने के बाद कश्मीरी पंडितों को भी लगने लगा है कि अनुच्छेद 370 को हटाया जाना और भाजपा के नेताओं का इसे भारी जीत बताना ख़ुद उनके लिए घाटे का सौदा साबित हो रहा है। इसी कारण जुलाई 2020 में ही पंडितों के एक संगठन ने मांग की थी कि अनुच्छेद 370 को पुनर्जीवित किया जाए।

लेकिन अनुच्छेद 370 को नाक का सवाल बनाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ऐसा कुछ करेंगे, यह नामुमकिन है। अलबत्ता अगर सुप्रीम कोर्ट ऐसा कुछ फ़ैसला दे दे तो अलग बात है लेकिन वह फैसला कब आएगा और उसमें क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। सो अब स्थिति यह है कि अनुच्छेद 370 को बेअसर किए जाने के बाद शुरू हुई नई तरह की यह जंग यूं ही चलती रहेगी। अलगाव की आग में कश्मीर घाटी झुलसती रहेगी, जिसके शिकार वे सभी निरीह और निहत्थे लोग होते रहेंगे जो आतंकवादियों की निगाह में उनके दुश्मन के साथ हैं। वे चाहे कश्मीरी पंडित हों, मुसलमान हों, कश्मीर पुलिस के जवान हों या फिर प्रवासी मजदूर हों।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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