देश को मरघट में बदलने के बाद लाशों से वोट मांगते शाह

निर्लज्जता, बेगैरत, बेशर्मी, बेहयापन जितने भी शब्द हैं वे कम पड़ जाएंगे कल की गृहमंत्री अमित शाह की पहल के नामकरण के लिए। घर में लाश पड़ी हो तो क्या कोई दरवाजे पर जश्न मना सकता है? वह शख्स तो कत्तई यह काम नहीं कर सकता है जो उस मौत के लिए किसी न किसी रूप में जिम्मेदार हो। देश के गृहमंत्री रहते कोविड 19 महामारी से निपटने की सीधी जिम्मेदारी अमित शाह की थी। लेकिन पिछले तीन महीनों से वह बिल्कुल लापता रहे। सामने न आने के पीछे जब उनके किसी भयंकर बीमारी से ग्रस्त होने की आशंका जतायी जाने लगी तब उन्होंने बयान जारी कर उसका खंडन किया।

उस समय भी वह सामने आना जरूरी नहीं समझे। देश भर के मजदूरों को घर वापसी के रास्ते में जिन अथाह परेशानियों का सामना करना पड़ा। उन्हें जिन क्रूर, त्रासद पूर्ण और भयानक स्थितियों से गुजरना पड़ा उसके लिए अगर सीधे किसी एक संस्था और व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है तो वह गृहमंत्रालय और अमित शाह हैं। क्योंकि यही वह मंत्रालय है जिसके तहत एनडीएमए आता है। और जिसके नेतृत्व में कोरोना संबंधी पूरी व्यवस्था काम कर रही है।

यही वह मंत्रालय है जो राज्यों के बीच समन्वय का काम करता है। यही वह महकमा है जिसको महामारी के खिलाफ जारी युद्ध को नेतृत्व देना था। अभी तो मजदूर ठीक से अपने घर भी नहीं पहुंच पाए हैं। कितने घरों में परिजन अपनों की तेरहवीं तक नहीं कर पाएं हैं। रास्ते में मृत बच्चों को जनने वाली माएं उस असह्य पीड़ा से भी नहीं उबर पायी हैं। कितने मजदूर तो अभी भी भटक रहे हैं। और कितने न जाने कहां-कहां बंधक बने हुए हैं। हर दिन बढ़ने के साथ ही हालात और बदतर होते जा रहे हैं। मरीजों को भर्ती करने के लिए अस्पतालों में जगह नहीं है। इस अस्पताल से उस अस्पताल चक्कर काटने के दौरान परिजनों की गोद में ही मरीजों की मौत हो जा रही है। मौत का साया है कि देश में लंबा होता जा रहा है।

गृहमंत्री के अपने राज्य गुजरात और उनकी खुद की अपनी कांस्टीट्यूएंसी में हालात बाकी देश से भी ज्यादा बुरे हैं। यहां मौतों की दर औसत से दुगुनी है। अस्पतालों से लोगों का भरोसा उठ गया है। हालात किस कदर बदतर हैं इसको समझने के लिए बस एक ही उदाहरण काफी है। एक बीबीसी संवाददाता अपने जीजा को साथ लेकर तीन दिनों तक अस्पतालों के चक्कर काटता रहा। लेकिन उन्हें किसी एक अस्पताल में भर्ती नहीं करा सका। इस कड़ी में उसने सीधे उप मुख्यमंत्री से लेकर अहमदाबाद के उन सभी बड़े ओहदों पर बैठे लोगों से संपर्क साधा जो हर लिहाज से सक्षम थे। बावजूद इसके वह समय पर अपने जीजा को जरूरी इलाज नहीं मुहैया करवा सका और अंत में उनकी मौत हो गयी।

अगर यह दशा उस मॉडल स्टेट में इतनी पहुंच वाली शख्सियतों की है फिर बाकी तो घास-भूसा हैं। और शायद अब उन्होंने खुद को नागरिक भी समझना छोड़ दिया है जिनका अपना कोई लोकतंत्र होता है और जिसमें उनके कुछ अधिकार भी होते हैं। सूबे के हाईकोर्ट ने जब उनको कुछ याद दिलाने की कोशिश की और इस प्रक्रिया में उसने कोविड 19 के लिए घोषित मुख्य अस्पताल को कालकोठरी से लेकर न जाने क्या-क्या ‘तमगा’ दे दिया, तो चिन्हित कर समस्या को हल करने की जगह उस बेंच को ही बदलकर चुप करा दिया गया जिसने इसकी कोशिश की थी।

लिहाजा ऐसे मौके पर अमित शाह की किसी और सूबे से ज्यादा गुजरात को जरूरत थी। लेकिन वह वहां नहीं हैं। वह इस समय बिहार की जनता से वोट मांग रहे हैं। जिस देश में लोग भूख से तड़प-तड़प कर मर गए उसका गृहमंत्री करोड़ों-करोड़ रुपये खर्च कर और जगह-जगह एलईडी टीवी लगाकर वर्चुअल रैली कर रहा है। उससे जरूर यह बात पूछी जानी चाहिए कि यही एलईडी जगह-जगह भटक रहे मजदूरों को उनके स्थानों से सुरक्षित उनके घरों तक पहुंचाने के लिए क्यों नहीं लगायी गयी? इस पूरे आयोजन में खर्च होने वाला पैसा उन गरीबों की राहत के लिए क्यों नहीं इस्तेमाल किया जा सकता था? जो दाने-दाने को मोहताज हैं और अपने बच्चों को मारने के बाद खुद भी फांसी के फंदे से झूल जा रहे हैं।

बताया गया कि असली रैली का लुक देने के लिए 72 हजार बूथों पर एलईडी लगायी गयी थी। और मित्र गिरीश मालवीय के मुताबिक इस समय 10×12 वाली लेड स्क्रीन का किराया औसतन 25 हजार रुपये है। इस हिसाब से इस रैली पर केवल एलईडी का खर्च 180 करोड़ रुपये आ जाता है। कार्यकर्ताओं के प्रबंधन से लेकर दूसर खर्चे बिल्कुल अलग हैं। एलईडी के सामने गृहमंत्री का भाषण सुनने वाले कार्यकर्ताओं को क्या पीड़ितों की सेवा में नहीं लगाया जा सकता था? इस पूरे तीन महीने के दौरान क्या किसी ने एक पार्टी के तौर पर बीजेपी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को पीड़ितों की सेवा करते देखा? दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के पास कार्यकर्ताओं का टोटा पड़ गया था या फिर वे अंडरग्राउंड हो गए थे? आरएसएस से लेकर बजरंग दल और मातृसेना से लेकर वीएचपी तक कांवड़ियों के स्वागत के लिए कुछ बाकी नहीं छोड़ते। क्या उसके खाकी पैंटधारी स्वयंसेवकों को किसी ने कहीं पीड़ितों को राहत पहुंचाते देखा?

गृहमंत्री जी और किसी से न सही खुद अपने आदर्श सरदार वल्लभ भाई पटेल से ही कुछ सीख लेते। कोई तमगा बांधने से सरदार नहीं हो जाता। गुजरात में जब प्लेग आया था तो वह अपने घर में छुप कर बैठे नहीं थे बल्कि लोगों की सेवा कर रहे थे और उनके लिए हर संभव संसाधन जुटा रहे थे। और इसी कड़ी में जब उनको भी प्लेग हो गया तो उन्होंने अपने आत्मबल और भरोसे की ताकत से उस पर विजय हासिल की।

खैर गांधी आपको सुहाते नहीं लिहाजा उनका उदाहरण देना आपके लिए बेकार है। लेकिन आपके ही राज्य से आने वाले इस खड़गधारी को जाना ही सेवा, प्रेम और सद्भाव के लिए जाता है। वह दक्षिण अफ्रीका का प्लेग हो या फिर नोआखाली में फैला दंगा ऐसे आपात मौकों पर हमेशा जनता के बीच ही रहते थे। लेकिन इस पूरे तीन महीने के दौरान क्या आप कहीं गए? किसी मरीज या फिर उसके परिजन से मुलाकात की? किसी अस्पताल का दौरा किया?

दरअसल प्रेम, सद्भाव, सेवा इन चीजों से इस जमात का दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है। ये केवल नफरत और घृणा के बीज बोना जानते हैं और उससे उगी वोट की फसल पर सत्ता हासिल कर राज करना चाहते हैं। इन तीन महीनों के दौरान भी गृहमंत्रालय ने यही किया। उसे कोविड बीमारी से निपटने और उसके लिए संभव उपाय करने से ज्यादा मामले को सांप्रदायिक रंग देने और इस कड़ी में चुन-चुन कर अपने विरोधियों और आंदोलनों में शामिल लोगों को गिरफ्तार करना जरूरी लगा। और पूरे देश के भीतर इस महासंकट के मौके पर भी घृणा और नफरत का बाजार कैसे गर्म रहे उसकी हरचंद कोशिश की गयी।

लेकिन गृहमंत्री जी, कोई राष्ट्र घृणा और नफरत से नहीं बनता है। प्रेम और सद्भाव इंसान के स्वाभाविक गुण होते हैं। और समाज आपसी प्रेम और भाईचारे से चलता है। और एक ऐसे समय में जबकि देश पर महासंकट छाया हुआ है तो इसकी जरूरत और बढ़ जाती है। लेकिन आप बिल्कुल जरूरत के उलट काम कर रहे हैं। और अभी जबकि यह तय नहीं हो पाया है कि महामारी कितने लोगों की जीवनरेखा काट देगी। गरीब तो गरीब आर्थिक संकट के चलते मध्यवर्ग तक के लोगों ने आत्महत्याएं शुरू कर दी हैं। ऐसे में न केवल सत्ता बल्कि समाज को हर जरूरतमंद के साथ खड़ा होकर इस महामारी का मुकाबला करना चाहिए। लेकिन इन तीन महीनों में देखा गया कि सत्ता ने लोगों का साथ छोड़ दिया।

समाज ने अपनी पूरी जिम्मेदारी निभायी और लोग एक दूसरे के साथ खड़े भी हुए। लेकिन सत्ता की भूमिका समाज नहीं निभा सकता है। इन सारी स्थितियों को देखते हुए एक बात पुख्ता तौर पर कही जा सकती है कि इस निजाम के बने रहने का मतलब है तबाही और हर किस्म का नुकसान। लिहाजा देश की सत्ता में बैठी इस जमात को सबसे पहले हटाए जाने की जरूरत है। और इसके लिए मोदी से तत्काल इस्तीफे की मांग शुरू की जानी चाहिए। लिहाजा अमित शाह से कहा जा सकता है कि आप हमसे वोट मांगे उससे पहले हम आप से इस्तीफा मांगते हैं।

बहरहाल, कल 45 मिनट के अपने भाषण में अमित शाह ने न केवल अपनी उपलब्धियां गिनायीं बल्कि विपक्ष पर हमले का कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा और कमियों को 70 सालों के शासन के मत्थे मढ़ दिया। हालांकि मोदी के किए गए वादों को वह स्वयं ही जुमला करार दे चुके हैं। लेकिन एक बात कम से कम दावे के साथ कही जा सकती है कि मोदी जी ने अपना एक वादा जरूर पूरा किया है और वह है गांव-गांव में श्मशान के निर्माण का। शायद ही कोई गांव बचा हो जहां इस समय इसकी जरूरत न हो। और राजधानी दिल्ली में तो लाशों की कतार लग गयी है और श्मशान में उनके लिए जगह कम पड़ गयी है।

(लेखक महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

महेंद्र मिश्र
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