इस बार का चुनाव धर्म, धंधा, पनौती और लोक लुभावन योजनाओं से भरा हुआ है

नई दिल्ली। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अब अंतिम दौर में हैं। इन पांच राज्यों के चुनाव में मिजोरम विधानसभा का चुनाव आकर्षण और बहस की न्यूनतम औपचारिकता से भी बाहर रहा। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ होते हुए जब चुनाव राजस्थान पहुंचा, तब तक साफ हो चुका था कांग्रेस की तरफ से इस चुनाव अभियान की कमान अब राहुल गांधी के हाथ में पहुंच चुकी है। प्रियंका गांधी उनके साथ-साथ चुनावी अभियान के तापमान को बनाये रखने की हर कोशिश में लगी रहीं।

राजस्थान चुनाव में दूसरे दौर के अभियान के दौरान जैसे ही राहुल गांधी को लगा कि कमान अब उनके हाथ में हैं, तो उन्होंने ‘पनौती’ का खेल खेल दिया। वह पूरी तरह से बहस के केंद्र में आ गये। यह ऐसा शब्द था, जिसमें नरेंद्र मोदी की असफलताओं का घड़ा भरा था। वह अब नरेंद्र मोदी को सीधे चुनौती दे रहे थे। इस दौरान प्रियंका गांधी अपने परिवार के इतिहास को भारत के इतिहास के साथ जोड़ते हुए उस पर गर्व करने का कारण बता रही थीं। भाई और बहन खुलकर एक साथ चुनाव प्रचार करते हुए परिवारवाद के आरोप को सीधी चुनौती दे रहे थे।

यह आरोप कांग्रेस के भीतर से रहा हो या भाजपा और विपक्ष की अन्य पार्टियों की ओर से, अब दोनों भाई-बहन बिना हिचक चुनाव प्रचार में ललकार रहे थे और परिवार को एक विरासत की तरह पेश कर रहे थे। साथ ही, कांग्रेस की बिखर रही संगठनात्मक संरचना को अब वे बड़े दावे के साथ संभालने और बनाने में भी लग गये थे। कांग्रेस एक पार्टी के तौर पर दिख रही थी, हालांकि उसकी दरारें अब चुनाव के दौरान भी झांकने से बाज नहीं आईं।

इस बार के पांच राज्यों के चुनाव में मोदी चेहरा होने के बाद भी मुख्य चेहरा नहीं बन पाये। मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान ने चुनाव की बाजी पलटने के लिए अंततः अपना चेहरा ही पेश करने को मजबूर हुए। छत्तीसगढ़ में भी स्थिति यही रही। चेहरा या मुखौटा संघ का एक पुराना शगल रहा है। लेकिन, नरेंद्र मोदी ने चेहरा या मुखौटा को एक ऐसे असल में बदल दिया, जिसके सामने वास्तविक चेहरों की भी हैसियत नहीं रह गई।

पिछले दस सालों में संघ के इस शगल को उन्होंने उस मुकाम तक पहुंचा दिया है, जिसमें कई सारे वास्तविक जीते जागते नेता मुखौटों में बदल गये। राजस्थान तक जाते-जाते वहां भाजपा का चेहरा मोदी इतनी कमजोर स्थिति में बदल गया था, कि राहुल गांधी ने उसे ‘पनौती’ ही बोल दिया है। तेलंगाना के चुनाव में क्या स्थिति रहेगी, यह अभी देखना है। लेकिन, इतना साफ दिख रहा है कि वहां चुनाव के तीन ध्रुव हैं जिसमें भाजपा की कोई जगह नहीं दिख रही है।

रणनीति बनाम कार्यनीति

चुनाव लड़ने वाली पार्टियां की रणनीति और कार्यनीति का अलग करना बेहद मुश्किल होता है। लगातार चलते रहने वाले चुनावों में विधानसभा और लोकसभा चुनावों में बहुत फर्क नहीं रह गया है। चुनाव में वोट के पैटर्न में थोड़े फर्क दिखते हैं, लेकिन प्रचार के दौरान कोई फर्क नहीं दिखता है। भाजपा धर्म के ध्रुवीकरण पर ज्यादा जोर देती रही है। हालांकि पिछले दस सालों में इसने इस ध्रुवीकरण को एक ऐसे चुनावी मशीन में बदल दिया जिसका सीधा असर सामाजिक और धार्मिक जीवन पर सीधा पड़ने लगा था।

भाजपा ने राज्य की मशीनरी को चुनावी हितों के अनुकूल ढालने का एक खतरनाक प्रयोग किया, जिसमें हिंसा का प्रयोग भी निहित था। इनके साथ गोरक्षा से जुड़े संगठनों ने जुड़कर इस मशीनरी और हिंसा को समाज के सबसे अंतिम पायदान पर बैठे लोगों तक पहुंचा दिया। इसी तरह, भ्रष्टाचार से भरी राजनीति में राज्य मशीनरी का प्रयोग विपक्ष की पार्टियों से आगे बढ़कर उनके आम समर्थकों तक पर होने लगा।

संसद में भी कथित आरोपों के आधार पर सांसदों की सदस्यता को ही चुनौती दी गई। ये प्रयोग इस हद तक खुला और हिंसक था, कि इसमें इतिहास में फासीवादी प्रयोगों के स्पष्ट चिन्ह दिखने लगे। लेकिन, जैसे-जैसे पांच राज्यों के चुनाव आगे बढ़े, इन प्रयोगों की संख्या में थोड़ी सी गिरावट आई, लेकिन प्रयोग जारी रहा। इन प्रयोगों को चुनौती देते हुए राहुल गांधी मंच से बार बार दोहराते रहे- मैं बोलना जारी रखूंगा, मैं किसी से नहीं डरता।

राहुल गांधी एक स्टार प्रचारक की तरह लगे रहे। इस बार उन्हें जब भी मौका मिला, धर्म से भरे इस देश में उन्होंने धर्म का सहारा लेना कभी नहीं छोड़ा। वह एकदम शुरुआती दौर में अमृतसर गये। वहां उन्होंने कार सेवा किया। वह शिव आराधना में डूबे। वह केदारनाथ गये और वहां दर्शन किया और फिर वहां भी कार सेवा की। वे हर प्रसिद्ध मंदिर में जा रहे थे, पूजा पाठ कर रहे थे। यही काम प्रियंका गांधी भी कर रही थीं।

शिव की आराधना में डूबे भाई-बहन ने मोदी के धार्मिक कर्मकांडों और फोटोग्राफी से भरे हिंदू अवतार के रूप में दिखने को ज़रूर पीछे छोड़ दिया। इस बार दोनों भाई-बहन एक तरफ दूसरे मंडल कमीशन को लागू करने का वादा कर रहे थे, जाति जनगणना के पक्ष में बोल रहे थे और दूसरी तरफ उन्होंने कसकर कमंडल को थाम रखा था। वह भाजपा को मंडल बनाम कमंडल बनाने का मौका नहीं देना चाहते थे, दोनों ने इन दोनों को कसकर पकड़कर रखा। इन पांच राज्यों में हो रहे चुनाव में इतना साफ हो गया कि जाति जनगणना और हिंदू धर्म की एकता पर कांग्रेस अपनी रणनीति और कार्यनीति के स्तर पर भाजपा को पीछे छोड़ गई।

दूसरा बड़ा मसला कॉरपोरेटाइजेशन का है। राहुल गांधी ने अडानी के खिलाफ जो अभियान छेड़ा, उसे उन्होंने धीरे-धीरे कॉरपोरेटाइजेशन के खिलाफ अभियान में बदल दिया। यह बिग बुर्जुआ बनाम बिग बुर्जुआ का मसला ही है। लेकिन, इस अभियान के पीछे का राजनीतिक अर्थशास्त्र भाजपा की उन नीतियों में छिपा हुआ है, जिसमें नोटबंदी और लॉकडाउन से मध्यम और उससे बड़े पूंजीपति डूबने लगे। वे न सिर्फ वित्तीय तौर पर बर्बाद हुए, वे पूंजीगत लागत के आधार पर श्रम के भयावह शोषण के बावजूद मुनाफा के उस स्तर पर नहीं पहुंच पा रहे हैं, जितनी मुनाफा की आमद है।

मोदी के राज में बैंकों की भूमिका बेहद संदेहास्पद रही है। साथ, कोऑपरेटिव बैंक और संस्थानों में भी कई सारे ऐसे तरफदारी भरे काम हुए जिससे बड़े और धनी किसानों के एक बड़े हिस्से को नुकसान पहुंचा है। राजनीतिक रंग ने भी बिग बुर्जुआ समुदाय को नुकसान पहुंचाया है और लुटियन्स दिल्ली के एक बड़े तबके को क्रोनी कैपिटलिज्म के फायदों से बाहर कर दिया। खासकर निजी विश्वविद्यालय और मेडिकल कॉलेजों के एक बड़े नेटवर्क में विस्तार की संभावनाएं तेजी से गिरी हैं।

मुनाफे के विशाल स्रोतों के बने रहने के बावजूद, उससे वंचित कर दिया जाना भारतीय अभिजात और मध्यवर्ग के लिए असहनीय है। लेकिन, इस संदर्भ में अपने हिस्से तक गढ़ना आसान नहीं है। यह समुदाय खुद ही धुर दक्षिणपंथी है और वह कल्याणकारी योजनाओं से ऐसे बिदकता है, मानो उसके घर में सांप घुस आया हो। भाजपा के और दक्षिणपंथी रुख का अर्थ होगा, फासीवादी राज्य का आरम्भ, जिसमें उसके फायदा होने की गुंजाइश फिलहाल नहीं दिख रही है। ऐसे में, राहुल गांधी का सूत्र ही सबसे उपयुक्त है- ‘जितना अडानी को वे देते हैं, वह हम तुम्हें दे देंगे।’

जनता को कल्याणकारी योजनाओं का वायदा एक ऐसी रणनीति है जो आने वाले 2024 के चुनाव का केंद्रीय विषय होगा। राजनीतिक अर्थशास्त्र में यह अधिक से अधिक कार्यनीति का हिस्सा है। दरअसल, यह लुभावना नारे से अधिक नहीं है। यह इंदिरा गांधी के समय चलाये गये गरीबी हटाओ जैसा नारा भी नहीं है। लेकिन, इस बार कांग्रेस इसे वैसे ही पेश कर रही है। प्रियंका गांधी का इस दौरान लगातार अपनी दादी को याद करना, संभव है यह उनकी अपनी संवेदना के साथ जुड़कर आ रहा हो, लेकिन राजनीति में इसके निहितार्थ अपने चेहरे से उन दिनों को याद दिलाना भी है, जिन्हें अभी भी इन चुनावों से कोई उम्मीद बनी हुई है।

अशोक गुलाटी जैसे चिंतक को लग रहा है कि यह ‘विकास’ को प्रभावित करेगा। उन्हीं के शब्दों में, ‘चुनाव के तापमान में लोगों को चांद लाने का वादा करने में सतर्क रहना चाहिए। इससे भारत के विकास को लंबा नुकसान पहुंच सकता है। यदि राजनीतिक पार्टियों का दिल गरीबों के लिए पसीज रहा है तो उनकी आय या निवेश में बजट के माध्यम से सहयोग करिये।’ उनके शब्दों में समर्थन से ज्यादा निवेश अधिक बेहतर होता है।

कॉरपोरेटाइजेशन के अगुआ चिंतकों में से एक अशोक गुलाटी कोई नई भाषा नहीं बोल रहे हैं। ऐसी बातें 1950 के दशक में भी हुईं और हर आने वाले दशकों में होती रही हैं। इसमें नई बात यह है कि यह बात वे कांग्रेस को समझा रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में कोई खास फर्क नहीं रहा है। व्यवहारगत मसलों पर जरूर फर्क दिखता है और वह है बिग बुर्जुआ के साथ रिश्ता।

भारत का बिग बुर्जुआ हिंदुत्व से भरा हुआ दक्षिणपंथी सोच का ही रहा है और वह राजनीतिक तौर पर मुख्यतः कांग्रेस की व्यवस्था में विकसित हुआ है। संघ उसे अब अपनी गोदी में बिठा लेना चाहता है, वह अपने लोगों के रूप उसे देखना चाहता है और उसे अपने तरीके से चलाना चाहता है।

बिग बुर्जुआ हमेशा एक सुरक्षित राजनीतिक व्यवस्था और एक मजबूत नेतृत्व की तलाश में रहा है। अब संभव है कि उसे यह व्यवस्था कांग्रेस में दिख जाये और राहुल गांधी एक नेता की तरह दिखने लगें। संभव है, उसकी पसंद प्रियंका गांधी हो जाएं या वह मल्लिकार्जुन खड़़गे को एक दलित नेता की तरह खड़ा कर भारत के इस संकटग्रस्त समय में एक नई उम्मीद पैदा कर दे।

लेकिन, इतना साफ है कि भाजपा के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं रह गया है। राहुल गांधी की ओर से लगातार कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा, जाति जनगणना का वादा इस बार बुर्जुआ समुदाय के लिए वैसी बेचैनी पैदा करते हुए नहीं दिख रहा है, जैसा 1990 के दशक में देखा गया। इस बार स्वीकृति का भाव ज्यादा दिख रहा है।

इस बार अडानी पर राहुल गांधी का हमला भाजपा के लिए जितना भी नागवार गुजरे, लेकिन अब इसे आमतौर पर एक स्वीकृत एजेंडा मान लिया गया है। और, यह भी मान लिया गया है कि अडानी का मसला मोदी नामक कल्ट से व्यक्तिगत तौर पर जुड़ गया है। आने वाले दिनों में यह संदर्भ और भी ठोस रूप लेगा।

कांग्रेस ने अपने स्थानीय नेताओं के माध्यम से स्थानीयता को पहचान के साथ जोड़कर अपनी ही पुरानी रणनीति के उलट रास्ता लिया। दरअसल, भारतीय राजसत्ता की केंद्रीयता राष्ट्रीयता और क्षेत्रीय पहचान के साथ हमेशा ही टकराहट की स्थिति में रहती है और एक न होने वाले सवाल के तरह संविधान और गैर-संवैधानिक दायरे में बनी रहती है।

भाजपा ने कई सारे राज्यों की सरकारों का गिराने से लेकर राष्ट्रीयता के मसले पर जिस तरह का दमनकारी और एकाधिकारवादी प्रवृत्ति का प्रदर्शन किया उसे कांग्रेस बेहद सतर्कता के साथ एक एजेंडा बनाया है। इसे वह मानवीय संकट और संवैधानिक उसूलों के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। इसे हम मणिपुर के मसले से लेकर महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में राज्य सरकारों के निर्माण में देख सकते हैं।

कांग्रेस ने कर्नाटक में कन्नड़ अस्मिता के सवाल को उठाया। इसके बाद इसने छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश होते हुए चुनाव के अंतिम दिनों में गुजराती बनाम राजस्थानी बनाने का प्रयास किया। यह अलग बात है कि इस अस्मिता के दायरे में आदिवासी और जल, जंगल, जमीन का मसला नदारद था।

नागार्जुन के शून्यवाद पर विमर्श से चलकर राहुल गांधी अब ठेठ माधवाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद तक पहुंच चुके हैं। वह अब बड़ी आसानी से शैववादी होते हैं और साथ ही अज्ञेयवादी भी। वह तप की बात कर रहे हैं और लोगों को अहसास करा रहे हैं कि वही सही हैं। वह पत्रकारों को जाति जनगणना पर चुप करा सकते हैं, वह खुद को मोदी के हमले का शिकार एक ऐसे इंसान के रूप में भी प्रचार करा सकते हैं, जिससे उनका कम लोगों का ज्यादा नुकसान हुआ।

वह मंच पर बोलते हैं- ‘आज मेरी बात भले न मानो, कल जरूर मानोगे।’ भारतीय समाज में एक साथ मंडल और कमंडल को साधने का प्रयास भारतीय संसदीय राजनीति में एक नायाब प्रयोग होगा और इसका परिणाम हिंदुत्व की ब्राम्हणवादी एकाधिकारी राजनीति के नये रूप में दिखेगा। यह जातियों के संहिताकरण और पूंजी के अधिक आक्रामक रूप को लेकर सामने आयेगा।

कल्याणकारी योजनाओं की पीठ पर सवारी करते हुए कांग्रेस की यह रणनीति 2024 में भाजपा के लिए निश्चित ही चुनौती बनकर सामने आयेगी और भारतीय बिग बुर्जुआ के लिए एक नये तरह का अवसर प्रदान करेगी। जनता के हिस्से वह अधिकतम वही आयेगा जो इंदिरा गांधी के समय चले कल्याणकारी योजनाओं से मिला था, हां, राजनीतिक परिणाम उससे अधिक दक्षिणपंथी रुख लिए हुए आयेगा।

वोटों को खरीदने की कोशिश पांच साल में सात गुना बढ़ी

फासीवाद के आसार जितने साफ होते दिखे, वोट को लेकर लोकतंत्र के कसीदे काढ़ने वालों में भी संदेह बढ़ गया और बहुत से वामपंथियों में यह उम्मीद भी पैदा करने लगा। किसान आंदोलन के समय में संगठनों के बीच हुए बहस और विभाजन को हम देख सकते हैं। वहीं, वोट और संख्या के बीच के रिश्ते को लेकर लोकतंत्र की चुनावगत प्रणाली पर वे लोग सवाल उठाने लगे जिन्हें हम संसदीय राजनीति का पुरोधा मानते रहे हैं।

बहरहाल, इन पांच राज्यों में हो रहे चुनाव में वोट का प्रतिशत बढ़ता हुआ दिख रहा है। यदि हम 1990 के बाद के वोट पैटर्न को देखें, तब हम वोट के प्रतिशत में बढ़ोत्तरी को देख सकते हैं। इसमें, चुनाव आयोग द्वारा युवाओं में किया गया प्रचार, वोट पहचान पत्र और चुनाव आयोग द्वारा निष्पक्ष चुनाव कराने का दावा, ऐसे कुछ आधार हैं जिसके आधार पर पूर्व चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी का दावा है कि वोटों के प्रति भरोसा बढ़ा।

एक दूसरा दावा शहरीकरण की प्रक्रिया और ग्राम पंचायतों के चुनाव को लेकर भी है। वोट के प्रति रुझान के साथ संसद और विधानसभा चुनावों के खर्चों में अकूत बढ़ोत्तरी, करोड़पतियों और अपराधी या उस तरह के लोगों के उम्मीदवार बनने और चुने जाने में वृद्धि, चुनाव के दौरान अवैध तरीकों, हिंसा और भ्रष्टाचार में वृद्धि को साथ-साथ रख कर देखने से लोकतंत्र का ग्राफ कहीं और जाता दिखता है।

इस बार भी, जबकि अभी पांच राज्यों का चुनाव खत्म नहीं हुआ है, चुनाव आयोग ने जो आंकड़ा पेश किया वह डराने वाला है। 20 नवम्बर, 2023 को भारत के चुनाव आयोग ने अपने बयान में बताया कि 9 अक्टूबर, 2023 को चुनाव प्रक्रिया घोषित होने के बाद से अब तक नगद, शराब और कीमती धातु के रूप में जो कुछ पकड़ा गया है, उसका मूल्य 1,760 करोड़ रुपये से अधिक है। यह 2018 में हुए चुनावों के मुकाबले सात गुना अधिक है। उस समय तक सबसे ऊपर तेलंगाना 659.2 करोड़ रुपये के साथ सबसे ऊपर था, दूसरे नम्बर पर राजस्थान था, 650.7 करोड़ रुपये। ड्रग का वोटों के लिए प्रयोग एक खतरनाक मसला है।

संसदीय लोकतंत्र, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया माना जाता है, जिसके बल पर मोदी ने भारत को लोकतंत्र की मां बता दिया, उसकी सच्चाई को उपरोक्त आंकड़ों में देखने की जरूरत है। मसला, सिर्फ उपरोक्त तक ही नहीं है। पार्टियों को मिलने वाले चंदे और खर्च में एक बड़ा गैप दिखता है। वहीं पार्टियों को मिलने वाला चंदा और उस पर भाजपा का एकाधिकार भी एक ऐसा ग्राफ बनाता है, जो बढ़ते वोट के अनुपात में ठीक नहीं बैठता है।

हर चुनाव कुछ कहता है

नीरजा चौधरी अपने कॉलम में लिखती हैं- ‘हर चुनाव सूक्ष्म और स्थूल सामाजिक और राजनीतिक बदलाव को चिन्हित करता है। यह 3 दिसम्बर भी अपवाद नहीं होगा।’ निश्चय ही 3 दिसम्बर के परिणाम कुछ बात कहेंगे। लेकिन, बहुत सारी बातें इस प्रक्रिया में ही सामने आ जाती हैं। जिसके बारे में हमने बात की है। यहां मसला यह नहीं है कि कांग्रेस राज्यों में बहुमत लेकर आती है या भाजपा। ये परिणाम उस राजनीतिक अर्थव्यवस्था को लेकर सामने आने वाले हैं, जो आगामी दिनों में हमारे ऊपर असर डालेंगे।

यहां हम एक बात पर यदि ध्यान दें। इजरायल द्वारा गाजा पर हमला और फिर एक अस्पताल को नष्ट करते हुए बच्चों को मार डालने की घटना पर राहुल गांधी का चुप रह जाना और शिवसेना के संजय राउत द्वारा इस संवेदनशील मसले पर हस्तक्षेप करना, एक बड़ी राजनीतिक समस्या को दिखा रहा है। संजय राउत पर मुंबई के सांप्रदायिक दंगों के दौरान एक समुदाय के खिलाफ हिंसा करने का आरोप रहा है। जबकि राहुल गांधी पर इस तरह के आरोप भी नहीं है।

गाजा में फिलिस्तीनी बच्चों को मार डालने की घटना पर एक उभरते राष्ट्रीय नेता की ओर से बयान न देना, कई सवाल उठाता है। यह हमें आशंका से भर देता है, कि आगामी दिनों में राहुल गांधी का हिंसा के प्रति क्या रुख होगा। हमने मणिपुर में हिंसा को लेकर उनका बयान पढ़ा है, जिसमें वह इसे रोकने के लिए फौज की सेवा लेने को उत्सुक थे। वह भाजपा को लेकर जिस तर्कशीलता और तप का सहारा लेते हैं और एक विकल्प देने की बात करते हैं, उसमें ऐसे किसी विकल्प का रूप नहीं दिखता जो भाजपा के इस तरह के राज से बहुत अलग होने वाला है।

बतौर एक राजनीतिक पार्टी और एक राजनीतिक नेतृत्व के राहुल गांधी का दूसरी पार्टियों के साथ बर्ताव अभी एक रहस्य से भरा हुआ ही दिख रहा है। भारत में 1980 के बाद गठबंधन की राजनीति में उभार हुआ। उसके पहले इस तरह के गठजोड़ को अवसरवाद की तरह ही देखा गया। 1950 के दशक से भारतीय राजनीति में पार्टियों के बीच के संबंध को एक ‘प्रक्रिया’ की तरह देखा गया जिससे आम सहमति एक मुख्य एजेंडा था।

आज के समय राहुल गांधी के नेतृत्व में जिस कांग्रेस का उभार होने की उम्मीद की जा रही है, उसमें या तो बेहद घनिष्टता और बेहद पारिवारिक रिश्तों का रूप लेकर दिखाई दे रहा है या निहायत संवादहीनता की स्थिति देखी जा रही है। हम इसे लालू यादव के साथ उनके रिश्तों को देख सकते हैं, और साथ ही उनके नीतीश कुमार और अखिलेश यादव के साथ की संवादहीनता को भी परख सकते हैं।

बहरहाल, भारतीय राजनीति में दो तरह की एकाधिकारवादी संरचना वाली पार्टियों की टकराहट में एक बड़ा मसला जाति जनगणना का आ चुका है। इसके साथ ही कल्याणकारी योजनाओं की ज़रूरत भी आ खड़ी हुई है। बेरोजगारी और परिवार की घटती आय को देखते हुए कांग्रेस ने इसे मुद्दा बना लिया है। भाजपा की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति को तोड़ने के लिए स्थानीयता भी एक मुद्दा बनाया गया है।

लेकिन, भारत के बिग बुर्जुआ की आधार भूमि मजदूरों के श्रम और उसके अधिकारों को लेकर कोई एजेंडा नहीं है। राजनीतिक अर्थशास्त्र में वह राजनीति का विषय नहीं है। बिग बुर्जुआ को उस पर अधिकार बिना शर्त चाहिए। हां, उसे लोगों की बचत और खरीद क्षमता में वृद्धि का अर्थशास्त्र ज़रूर चाहिए। उसे ऐसी पार्टी चाहिए जो उसके अधिकार क्षेत्र में संकीर्ण और राजनीतिक तौर पर भेदभाव पूर्ण तरीके से काम न करे।

यदि यह मांग मजबूत होती है और राहुल गांधी इसे पूरा करने की ओर जाते हैं, तब निश्चय ही कांग्रेस का रास्ता साफ होगा। पांच राज्यों के चुनाव इस दिशा को साफ करने वाले हैं। हां, इसके साथ यह ज़रूर सोचना है कि इन चुनावी नतीजों से मजदूर और किसान को क्या मिलेगा? सिर्फ कल्याणकारी योजना, कुछ अनाज और जीने का थोड़ा अवसर..। निश्चित ही यह विकल्प नहीं है। लेकिन, सच्चाई यही है कि देश की बड़ी आबादी चुनावी वायदों और उसकी प्रक्रियाओं में, जो बेहद जटिल और भ्रष्टाचार से भरी हुई है, के नीचे से गुजर रही है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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