बीबीसी डॉक्यूमेंटरी: सवाल सिर्फ मोदी का नहीं है

अगर मंशा और प्रसारण के समय के सवाल को छोड़ दिया जाए, तो इसमें कोई शक नहीं है कि बीबीसी डॉक्यूमेंटरी-द मोदी क्वेश्चन-ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय समाज में गहराए सांप्रदायिक विभाजन और भारतीय राज्य-व्यवस्था के उभरे बहुसंख्यक वर्चस्ववादी रूप को बारीक ढंग से दुनिया के सामने पेश किया है। खासकर इसके दूसरे भाग में उन परिघटनाओं की प्रभावशाली प्रस्तुति की गई है, जिन्होंने पिछले पौने नौ साल में भारत की पहचान को बदल डाला है।

डॉक्यूमेंटरी निर्माताओं ने इसके लिए तीन परिघटनाओं का चयन किया है। गोमांस खाने के आरोप में मुस्लिम समुदाय के लोगों की हुई लिंचिंग, भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म करने और उससे संबंधित घटनाएं, तथा एनआरसी (नेशनल रजिस्ट्रेशन ऑफ सिटीजन्स) सहित नागरिकता कानून में संशोधन से जुड़ी घटनाओं को डॉक्यूमेंटरी ने एक बड़ी कहानी के अध्याय के रूप में पेश किया गया है।

डॉक्यूमेंटरी के पहले भाग में 2002 के गुजरात दंगों और उससे आगे बढ़ी बहस से मिली ताकत के आधार पर राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के हुए उदय की कहानी बताई गई। दूसरे भाग में प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के कार्यकाल में आगे बढ़ी उस कहानी का चित्रण किया गया है। इस रूप में बीबीसी की डॉक्यूमेंटरी ने कुछ नया नहीं बताया है। उसने दो दशक से चल रही एक परिघटनाओं की सिलसिलेवार प्रस्तुति भर की है। इसलिए अगर भारत सरकार इसे प्रतिबंधित करने की कोशिश नहीं करती, तो संभवतः यह डॉक्यूमेंटरी दुनिया के स्तर पर शायद उतनी चर्चित नहीं होती, जितनी अब हो गई है। अंतरराष्ट्रीय/पश्चिमी मीडिया में इसकी चर्चा प्रतिबंध के सिलसिले में ही हुई है और इसी कारण विभिन्न देशों की प्रतिक्रिया भी सामने आ रही है।

वरना, बाकी दुनिया के साथ-साथ पश्चिमी देश भी भारत में हुई तमाम तरह की क्रूरताओं के बावजूद इस कहानी के आगे बढ़ने के दौर में मूक दर्शक बने रहे हैं। पश्चिमी देशों का यह अलग से जिक्र इसलिए जरूरी है, क्योंकि लोकतंत्र और मानव अधिकारों के नाम पर उनका शासन-तंत्र अपनी जनता के साथ-साथ बाकी दुनिया की निगाहों में भी वैधता (legitimacy) पाने की कोशिश करता है। अमेरिका में 2020 के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान जो बाइडेन ने कहा था कि राष्ट्रपति बनने पर मानव अधिकारों को उनकी विदेश नीति में केंद्रीय स्थान दिया जाएगा।

मगर हकीकत क्या है? द मोदी क्वेश्चन के दूसरे भाग के बिल्कुल आखिरी हिस्से में फ्रेंच राजनीतिक शास्त्री क्रिस्टोफ जाफ्रेलॉट यह कहते सुने गए कि पश्चिमी देश चीन की ताकत को संतुलित करने में भारत की मदद ले रहे हैं। इसलिए भारत में जो कुछ हो रहा है, उसको लेकर वे भारत सरकार की आलोचना नहीं करते। उन्होंने कहा-‘मानव अधिकार अब पश्चिमी देशों के एजेंडे में मौजूद नहीं रह गए हैं।’यह एक बड़ी टिप्पणी है। वैसे ‘अब नहीं रह गया’ (anymore) की धारणा को अवश्य चुनौती दी जाएगी। पूछा यह जाएगा कि क्या कोई ऐसा वक्त था, जब पश्चिमी देशों के एजेंडे में सचमुच मानव अधिकारों की चिंता मौजूद थी?

दरअसल, दूसरे विश्व युद्ध के पहले लोकतंत्र और मानव अधिकारों की ‘चिंता’ वैश्विक चर्चा का हिस्सा नहीं थी। दूसरे विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र के गठन के साथ यह चर्चा और ‘चिंता’ शुरू हुई। संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार घोषणापत्र में सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को शामिल करने को लेकर सोवियत संघ के साथ अमेरिका और उसके साथी देशों का जो विवाद हुआ था, वह इतिहास में दर्ज है। पश्चिमी पूंजीवादी देशों को ये अधिकार हमेशा ही कांटों की तरह चुभे हैं। इन अधिकारों को चर्चा से बाहर रखने और सिर्फ राजनीतिक और नागरिक अधिकारों को मानव अधिकार के रूप में पेश करने की उन्होंने कोशिश की है। मीडिया पर अपने वर्चस्व के कारण दुनिया में वे ऐसी धारणा बनाने में एक हद तक सफल रहे हैँ कि ये देश मानव अधिकारों और लोकतंत्र के समर्थक हैं।

लेकिन असल में राजनीतिक और नागरिक अधिकार हमेशा उनके लिए एक हथियार की तरह रहे हैं। इसके जरिए उन्होंने विश्व जनमत के बीच सोवियत संघ और अन्य कम्युनिस्ट देशों और इस्लामी राज्य-व्यवस्था वाले देशों की वैधता नष्ट करने की कोशिश की है। लेकिन ऐसी कोशिश भी कभी समान रूप से नहीं की गई है। इतिहास यह है कि जिस समय ईरान में मानव अधिकार का कथित हनन का वो हल्ला मचाते रहे, उसी समय सऊदी अरब ‘मानव अधिकारों को आगे बढ़ाने’ में उनका साथी बना रहा। और आज चीन के शिनजियांग प्रांत में वीगर मुसलमानों का मानव अधिकार उनके लिए सर्वोच्च चिंता है, लेकिन भारत के मुसलमान उनकी प्राथमिकता नहीं है।

बीबीसी अगर अपनी डॉक्यूमेंटरी में इस सवाल की और पड़ताल करता, तो उसके इस प्रयास की साख बन सकती थी। कहा जा सकता है कि क्रिस्टोफ जाफ्रेलॉट ने अपनी टिप्पणी से उसे एक ओपनिंग दी है। अगर बीबीसी सचमुच धर्मनिरपेक्ष भारत के हिंदू वर्चस्व वाले देश में बदलने से चिंतित है, तो उसे इस प्रश्न को आगे बढ़ाना चाहिए। वरना, उसकी मंशा पर जो सवाल उठे हैं (या इस डॉक्यूमेंटरी के सिलसिले में दोहराए गए हैं), वे उसकी साख को कठघरे में खड़ा किए रहेंगे।

भारत में सरकारी तंत्र ने जिस ढंग ने लोगों को डॉक्यूमेंटरी देखने से रोकने की कोशिश की है, उससे फिलहाल बीबीसी से संबंधित प्रश्न पृष्ठभूमि में चले गए हैं। बेशक, डॉक्यूमेंटरी चाहे जिस मकसद से बनाई गई हो, किसी को उसे देखने से रोकने का कोई तर्क नहीं हो सकता। यह लोगों के अपने विवेक पर है कि वे किसी फिल्म, किताब या किसी अन्य माध्यम से हुई अभिव्यक्ति को किस रूप में लें। उचित ही इस सिलसिले में समाज के कई हलकों से यह कहा गया है कि डॉक्यूमेंटरी को देखना उनका या सभी भारतीय नागरिकों का अधिकार है।

अगर भारतीय संविधान के अनुरूप सोचा जाए, तो बेशक यह ऐसा अधिकार है, जिससे नागरिकों को वंचित नहीं किया जाना चाहिए। इसके बावजूद अगर ऐसा किया जा रहा है, तो यह सवाल उठता है कि क्या जिन अधिकारों की बात हम करते हैं, उनका सचमुच अस्तित्व रह गया है? यह गौरतलब है कि किसी अधिकार की मांग किसी समूह या नागरिक की तरफ से की जा सकती है, लेकिन असल में वे अधिकार के रूप में मान्य और सुरक्षित तभी होते हैं, जब लोग संबंधित राज्य व्यवस्था को उस अधिकार को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर देते हैँ। भारत में आज की कहानी यह है कि जिन अधिकारों को राज्य ने स्वीकार किया था, उस मानने से अब वह इनकार रहा है।

यह स्थिति भारत की तमाम विपक्षी राजनीतिक ताकतों और जन अधिकारों के समर्थक जन समूहों के लिए एक बड़ी चुनौती है। यह उनके सामने एक बड़ा प्रश्न भी है। आखिर वर्तमान सरकार निर्भय हो कर उन अधिकारों से भी लोगों को वंचित करने में सफल क्यों हो रही है, जिन्हें भारतीय संविधान में स्वीकृत कर लिया गया था? इस प्रश्न को दरकिनार कर आज फिर से अधिकारों को प्राप्त करने का कोई रास्ता नहीं निकल सकता।

इस संदर्भ में विचारणीय यह भी होगा कि क्या भारत में भी नागरिक अधिकार इसलिए खतरे में पड़ गए, क्योंकि भारत की राजनीतिक ताकतों ने राजनीतिक लोकतंत्र और नागरिक अधिकारो को सब कुछ मान लिया? अगर आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रताओं से आम जन वंचित रहें, तो आम जन के लिए धीरे-धीरे राजनीतिक स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार इसलिए भी मतलब खो देते हैं, क्योंकि असल में वे इन अधिकारों का उपयोग करने की स्थिति में नहीं होते हैं।

इसी कारण खुद पश्चिमी देशों का लोकतंत्र आज इसीलिए संकट में है। इसी कारण वे समाज कल्चर वॉर में उलझे हुए हैँ। इसलिए भारत के अल्पसंख्यक उनसे कोई उम्मीद नहीं जोड़ सकते। दरअसल, मुस्लिम समुदाय के लोग इस्लामी देशों से भी कोई उम्मीद नहीं रख सकते। आखिर बीते पौने नौ साल में ये देश भी सिर्फ एक मौके को छोड़ कर खामोश ही रहे हैं। उनकी जुबान भी सिर्फ तब खुली, जब पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ टिप्पणी की गई। लिंचिंग, सीएए या धारा 370 से जुड़ी घटनाएं उनकी चिंता नहीं हैं, जिनका संबंध राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के हनन से है।

बीबीसी की डॉक्यूमेंटरी पर चर्चा अगर इन पहलुओं तक पहुंचती है, तो वह इसका एक सकारात्मक योगदान होगा, क्योंकि तब भारत में लोकतंत्र समर्थक के तमाम समूह यह समझ पाएंगे कि समाधान कहां है? स्पष्टतः समाधान एक बड़ी लड़ाई में है, जिसके पहलू देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था (political economy) से जुड़ते हैं। बिना, राजनीतिक अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदले असल में किसी वंचित या उत्पीड़ित समूह के अधिकारों की रक्षा नहीं हो सकती है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

सत्येंद्र रंजन
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