‘इंकलाब जिन्दाबाद’ बन गया व्यवस्था परिवर्तन और साम्राज्यवाद विरोध का नारा

भगत सिंह की देश भक्ति की तरह उनकी नास्तिकता भी निर्विवाद है। उन्होंने फांसी से कुछ समय पहले लिखा, मैं नास्तिक क्यों हूं। मानो यह भी बताने को कि देश प्रेम और धार्मिकता पृथक स्पेस हैं। इसी सहजता से अपने एक अन्य लेख में उन्होंने वर्ग चेतना को सांप्रदायिक दंगों का इलाज बताया था। आज, किसान आंदोलन में इस परिप्रेक्ष्य से भी साक्षात्कार हो गया।

क्रांति से तात्पर्य : भगत सिंह ने क्रांति को जनता के हक में व्यवस्था परिवर्तन के रूप में देखा। फ्राँसीसी क्रांति के दौर में वहां की जनता द्वारा अपनाया लिवि द रिवोल्यूसियो का उद्घोष तब से सारी दुनिया के क्रांतिकर्मियों को उत्साहित करता आया है। इसी तर्ज पर देश को इन्कलाब जिंदाबाद का नारा भगत सिंह ने दिया। साथ ही उन्होंने साम्राज्यवाद मुर्दाबाद की ललकार भी लगाई। क्रांति यानी व्यवस्था परिवर्तन  से भगत सिंह का क्या अर्थ रहा, यह जानने के लिए इन दो नारों से साक्षात्कार जरूरी है।

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 22 दिसम्बर 1929 को जेल से लिखे ‘माडर्न रिव्यू’ के सम्पादक को प्रति-उत्तर में इन्कलाब जिन्दाबाद नारे को परिभाषित करते हुए क्रांति से जोड़ा— ‘दीर्घकाल से प्रयोग में आने के कारण इस नारे को एक ऐसी विशेष भावना प्राप्त हो चुकी है, जो सम्भव है भाषा के नियमों एवं कोष के आधार पर इसके शब्दों से उचित तर्कसम्मत रूप में सिद्ध न हो पाए, परन्तु इसके साथ ही इस नारे से उन विचारों को पृथक नहीं किया जा सकता, जो इसके साथ जुड़े हुए हैं। ऐसे समस्त नारे एक ऐसे स्वीकृत अर्थ के द्योतक हैं, जो एक सीमा तक उनमें पैदा हो गए हैं तथा एक सीमा तक उनमें निहित हैं।

‘….. क्रांति (इन्कलाब) का अर्थ अनिवार्य रूप में सशस्त्र आन्दोलन नहीं होता। बम और पिस्तौल कभी-कभी क्रांति को सफल बनाने के साधन मात्र हो सकते हैं। इसमें भी सन्देह नहीं है कि कुछ आन्दोलनों में बम एवं पिस्तौल एक महत्त्वपूर्ण साधन सिद्ध होते हैं, परन्तु केवल इसी कारण से बम और पिस्तौल क्रांति के पर्यायवाची नहीं हो जाते। विद्रोह को क्रांति नहीं कहा जा सकता, यद्यपि यह हो सकता है कि विद्रोह का अन्तिम परिणाम क्रांति हो।

‘….. क्रांति  शब्द का अर्थ ‘प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा’ है। लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत दशाओं के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार मात्र से ही कांपने लगते हैं। यह एक अकर्मण्यता की भावना है, जिसके स्थान पर क्रांतिकारी भावना जाग्रत करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अकर्मण्यता का वातावरण निर्मित हो जाता है और रूढि़वादी शक्तियां मानव समाज को कुमार्ग पर ले जाती हैं। ये परिस्थितियां मानव समाज की उन्नति में गतिरोध का कारण बन जाती हैं।

‘क्रांति की इस भावना से मनुष्य जाति की आत्मा स्थाई तौर पर ओतप्रोत रहनी चाहिए, जिससे कि रूढि़वादी शक्तियां मानव समाज की प्रगति की दौड़ में बाधा डालने के लिए संगठित न हो सकें। यह आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदैव न रहे और वह नयी व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे, जिससे कि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगडऩे से रोक सके। यह है हमारा वह अभिप्राय जिसको हृदय में रखकर हम ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ का नारा ऊंचा करते हैं।’

इन्कलाब जिन्दाबाद महज विदेशी शासकों को देश से भगाना ही नहीं हो सकता। गदर पार्टी के क्रांतिकारी लाला रामसरन दास की किताब ‘ड्रीमलैंड’ की भूमिका भगत सिंह ने 15 जनवरी 1931 को फांसी की कोठरी में लिखी। इससे एक टिप्पणी उद्धृत करना चाहूँगा— ‘एक गदर पार्टी को छोड़कर, जिसने अमरीकी ढंग की सरकार से प्रेरित  होकर स्पष्ट कहा था कि वह भारत की मौजूदा सरकार को हटाकर उसके स्थान पर प्रजातान्त्रिक प्रकार की सरकार स्थापित करना चाहती है, अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद मुझे ऐसी एक भी क्रांतिकारी पार्टी नहीं मिली जिसे इस बात का स्पष्ट ज्ञान हो कि वह किस बात के लिए लड़ रही है। अन्य सभी पार्टियों में जो लोग थे वे मात्र इतना जानते थे कि उन्हें विदेशी शासकों से लडऩा है। वह विचार अपने में बहुत सराहनीय है लेकिन उसे क्रांतिकारी विचार नहीं कहा जा सकता। हमें स्पष्ट कर देना चाहिए कि क्रांति का मतलब मात्र उथल-पुथल या एक खूनी संघर्ष नहीं है। जब हम क्रांति की बात करते हैं तो उसमें मौजूदा हालात को पूरी तरह ध्वंस करने के बाद समाज के व्यवस्थित पुनर्गठन के कार्यक्रम की बात निहित है।’

भविष्य की पीढिय़ों के लिए जेल में भगत सिंह और उनके साथियों ने ‘क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा’ नामक दस्तावेज तैयार किया। इसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि क्रांति से उनका आशय क्या है— ‘इस शताब्दी में इसका सिर्फ एक ही  अर्थ हो सकता है— जनता के लिए जनता की राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रांति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं। किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल को पहचानते हैं। भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को— भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगारों को हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं— आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयां, एक स्वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्थान लेने के लिए तैयार हैं।’

इन्कलाब जिन्दाबाद का ही दूसरा पहलू हुआ साम्राज्यवाद मुर्दाबाद। भगत सिंह के लिए साम्राज्यवाद मुर्दाबाद से मतलब ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभुत्व का मिटना ही नहीं, बल्कि उन परिस्थितियों की समाप्ति हुयी जो गैरबराबरी पैदा करती हैं और शोषण को सम्भव करती हैं। एसेम्बली बम कांड (8 अप्रैल 1929) के बाद मुकदमें में दिल्ली की सेशन अदालत में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के बयान के इस अंश से साम्राज्यवाद मुर्दाबाद पर रोशनी पड़ती है—

‘क्रांति में घातक संघर्षों का अनिवार्य स्थान नहीं है, न उसमें व्यक्तिगत रूप  से प्रतिशोध लेने की ही गुंजाइश है। क्रांति बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा प्रयोजन यह है कि अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन होना चाहिए। उत्पादक या श्रमिक, समाज के अत्यन्त आवश्यक तत्त्व हैं तथापि शोषक लोग उन्हें श्रम के फलों और मौलिक अधिकारों से वंचित कर देते हैं। एक ओर सबके लिए अन्न उगाने वाले कृषक सपरिवार  भूखों मर रहे हैं, सारी दुनिया के बाजारों में कपड़े की पूर्ति करने वाले बुनकर अपने और अपने बच्चों के शरीर को ढांपने के लिए पूरे वस्त्र प्राप्त नहीं कर पाते, भवन-निर्माण, लोहारी और बढ़ईगिरी के कामों में लगे लोग शानदार महलों का निर्माण करके भी गन्दी बस्तियों में रहते और मर जाते हैं, दूसरी ओर पूँजीपति, शोषक और समाज पर घुन की तरह जीने वाले लोग अपनी सनक पूरी करने के लिए करोड़ों रुपया पानी की तरह बहा रहे हैं। यह भयंकर विषमताएं और विकास के अवसरों की कृत्रिम समानताएं समाज को अराजकता की ओर ले जा रही हैं।

यह परिस्थिति सदा के लिए नहीं रह सकती, तथा यह स्पष्ट है कि वर्तमान समाज-व्यवस्था एक ज्वालामुखी के मुख पर बैठी हुई आनन्द मना रही है और शोषकों के अबोध बच्चों की भाँति हम एक खतरनाक दरार के कगार पर खड़े हैं।   सभ्यता का यह प्रासाद यदि समय रहते संभाला न गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जाएगा। देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है कि समाजवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात है, समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असम्भव है, और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व शान्ति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।’

गांधी-इर्विन समझौते (5 मार्च 1931) ने फाँसी की कोठरी में कैद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु से साम्राज्यवाद मुर्दाबाद को और घनीभूत रूप से व्यक्त कराया। 20 मार्च 1931 के गवर्नर पंजाब को पत्र में अपनी बहादुराना अपील कि हम युद्धबंदियों को ‘फाँसी के बदले गोली से उड़ा दिया जाए’ में इन क्रांतिकारियों ने स्पष्ट किया— ‘हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है— चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति और दूसरे अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि आपकी सरकार कुछ नेताओं या भारतीय समाज के मुखियों पर असर डालने में सफल हो जाए, कुछ सुविधायें मिल जाएं, अथवा समझौते हो जाएं, इससे भी स्थिति बदल नहीं सकती, तथा जनता पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ता है।’

भारतीय जनता ने भगत सिंह के इन्कलाब जिंदाबाद को बड़ी ही शिद्दत से स्वीकारा। भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी विजय कुमार सिन्हा के शब्दों में— ‘1905 से असेम्बली बम-काण्ड तक ‘बन्दे मातरम्’ ही हमारा प्रिय राष्ट्रीय नारा था। भगत सिंह के इस नारे (इन्कलाब जिन्दाबाद) ने जनता का ध्यान आकृष्ट कर लिया, क्योंकि इसमें बिना समझौता किये लड़ते रहने का दृढ़ संकल्प तथा दरिद्रता एवं कष्ट को सदा के लिए दूर करने वाली एक नवीन सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने की आशा समुचित व्यक्त होती थी।’

एसेम्बली बम कांड की लाहौर हाईकोर्ट में अपील में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने कहा— ‘पिस्तौल और बम इन्कलाब नहीं लाते, बल्कि इन्कलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।’ क्रांति की यही प्रक्रिया हमें क्रांति के उद्देश्यों तक ले जाती है— ‘हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्ज्वल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का उपभोग करेगा। हम मानव रक्त बहाने के लिए अपनी विवशता पर दु:खी हैं, परन्तु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतन्त्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ व्यक्तियों का बलिदान अनिवार्य है।’ (बम कांड के बाद एसेम्बली में फेंके पर्चे से)

भगत सिंह के बहाने हम अपनी ही बात करते हैं। अन्तत: इन्कलाब जिन्दाबाद का अर्थ है समाज में बराबरी के हर रूप की जय और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद का अर्थ है शोषण के तमाम रूपों की पराजय। आज के  अपने समाज पर नजर डालें तो गैरबराबरी तीन तीखे रूपों में हमारे जीवन को आतंकित किए हुई है— स्त्री-मर्द के बीच का भेदभाव, जाति और धर्म के नाम पर आक्रामकता, अमीर-गरीब के बीच की खाई। बराबरी की इन्हीं मंजिलों को पाना ही इन्कलाब जिन्दाबाद हुआ। हम चाहें तो रोज अपने जीवन में इन्कलाब जिन्दाबाद कर सकते हैं! इसी तरह आज मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की तीन सर्वाधिक प्रचलित जानलेवा प्रणालियां हैं— सर्वव्यापी भ्रष्टाचार , मुनाफाखोर बाजार , राष्ट्रवादी युद्ध। इन्हें अपने, अपने समाज और अपनी दुनिया से निकाल बाहर करना ही साम्राज्यवाद मुर्दाबाद हुआ। इस कवायद में नियमित रूप से अपनी भूमिका अदा कर हम रोजाना साम्राज्यवाद मुर्दाबाद कर सकते हैं!

(विकास नारायण राय हैदराबाद पुलिस एकैडमी के निदेशक रह चुके हैं।)

विकास नारायण राय
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विकास नारायण राय