चंडीगढ़ हिंसा: केंद्र और पंजाब सरकार खामोश क्यों?

बंदियों की रिहाई के लिए गठित कौमी इंसाफ मोर्चा और चंडीगढ़ पुलिस के बीच हुई खूनी झड़प के निशान न केवल दो दिन बीतने के बावजूद कायम हैं बल्कि और ज्यादा पुख्ता हो रहे हैं। इस झड़प में चंडीगढ़ पुलिस को कौमी इंसाफ मोर्चा के आंदोलनकारियों के हाथों करारी मात खानी पड़ी और मौके से भाग कर उन्होंने अपनी जान बचाई। फिर भी कुछ अधिकारी और 60 से ज्यादा पुलिसकर्मी गंभीर जख्मी हुए।

यह एक ‘अभूतपूर्व’ हिंसा थी; जिस पर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और पंजाब की भगवंत मान सरकार फिलवक्त खामोश है। कोई इस पर कुछ नहीं बोला। क्यों? यह यक्ष प्रश्न है जो चंडीगढ़ से लेकर सुदूर विदेशों तक पूछा जा रहा है। पंजाब में तो खैर इस बाबत बेशुमार सरगोशियां हैं ही। 

गौरतलब है कि दो दिन पहले कौमी इंसाफ मोर्चा के आंदोलनकारी पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान की कोठी का घेराव करने की मंशा से चंडीगढ़ सीमा तक पहुंच गए थे। जबकि उन्हें रोकने के लिए हथियारबंद पुलिस दस्ते आला पुलिस अधिकारियों की निगरानी में तैनात थे और धारा 144 लगी हुई थी।

कौमी इंसाफ मोर्चा के लोग बंदियों की रिहाई तथा अन्य कुछ मुद्दों को लेकर सूबे के मुख्यमंत्री भगवंत मान के सरकारी आवास का घेराव करना चाहते थे। जिला मोहाली में भी धारा 144 लागू थी और यह जानते हुए भी कि आंदोलनकारी चंडीगढ़ में कुछ कर रहे हैं, पंजाब पुलिस उन्हें रोकने में नाकाम रही अथवा रोका ही नहीं। चंडीगढ़-मोहाली सीमा पर यूटी पुलिस ने उन्हें रोका तो बखेड़ा खड़ा हो गया।

चंडीगढ़ पुलिस ने बैरिकेट्स लगाए हुए थे और उसके अधिकारी आंदोलनकारियों को समझा रहे थे कि वे शहर में प्रवेश नहीं कर सकते। बातचीत जारी थी कि अचानक पुलिस पर पहले पथराव हुआ और फिर घोड़ों पर सवार कुछ लोगों ने बाकायदा हमला कर दिया। हमलावर नंगी तलवारों, गंडासों और लाठियों से लैस थे।

चंडीगढ़ हिंसा

आकस्मिक हमले से हक्का-बक्का चंडीगढ़ पुलिस ने जवाब में ‘वाटर गनों’ का इस्तेमाल किया, लेकिन घुड़सवार और पैदल हमलावर बेपरवाह होकर आगे बढ़ते गए। नौबत पुलिस को घोड़ों से रोकने की भी आई। पुलिस के पास लाठीचार्ज के सिवा कोई विकल्प नहीं था लेकिन लाठीचार्ज भी नाकाम साबित हुआ तो पुलिसकर्मी वहां से भाग खड़े हुए।

भागते चंडीगढ़ पुलिस कर्मचारियों को पकड़-पकड़ कर मारा पीटा गया। पुलिस हथियारबंद थी लेकिन शूट फायरिंग के आदेश नहीं थे। चंद मिनटों की अराजकता ने तमाम पुलिसिया बंदोबस्त ढहा दिए।              

बाद में आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हुआ। चंडीगढ़ पुलिस महानिदेशक प्रवीर रंजन ने यूटी पुलिस के खिलाफ हुई हिंसा के लिए पंजाब पुलिस को दोषी ठहराया तो पंजाब पुलिस ने जवाब में कहा कि आंदोलनकारियों की एक-एक गतिविधि की जानकारी चंडीगढ़ पुलिस से शेयर की जा रही थी।

अब दर्ज एफआईआर बताती है कि बाकायदा साजिश रचकर पुलिसकर्मियों पर जानलेवा हमला किया गया और उनके हथियार लूटे गए। इस मामले में कौमी इंसाफ मोर्चा के सात लोगों को चंडीगढ़ पुलिस ने नामजद किया है। चंडीगढ़ पुलिस के एक अधिकारी कहते हैं, “घोड़ों पर सवार होकर आने और हमला करने वाले अतिवादी खालिस्तानी थे।” पंजाब पुलिस इस पर कुछ कहने से बच रही है। 

10 फरवरी को इस रिपोर्ट को फाइल करने तक चंडीगढ़-मोहाली सीमा पर तनाव बरकरार है और चंडीगढ़ में अर्ध सैनिक बल तैनात कर दिए गए हैं। वहां से हासिल जानकारी के मुताबिक तनाव बरकरार है और शुक्रवार को भी आंदोलनकारी पंजाब के मुख्यमंत्री के सरकारी आवास का घेराव करने के लिए बाजिद हैं। ये आंदोलनकारी अलगाववादी तथा फिरकापरस्त नारेबाजी कर रहे हैं। 

चंडीगढ़ हिंसा

चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा की संयुक्त राजधानी है और यहां पुलिस को आए दिन आंदोलनकारियों तथा धरना-प्रदर्शनों से निपटना पड़ता है। लेकिन ऐसा मंजर पहली बार दरपेश हुआ है। पूरे प्रकरण पर पंजाब सरकार की खामोशी हैरान करने वाली है। मुख्यमंत्री या उनके किसी भी मंत्री का बयान इस प्रकरण पर नहीं आया है।

चंडीगढ़ केंद्र शासित प्रदेश है और केंद्र द्वारा नियुक्त पंजाब के राज्यपाल इसके मुख्य प्रशासक हैं। उनकी तरफ से भी कुछ नहीं कहा गया। जबकि पिछले दिनों राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित और राज्य सरकार के मंत्रियों के बीच खूब जुबानतल्खी हुई थी। राज्यपाल ने सूबे के सरहदी जिलों का तीसरा दौरा किया था और दोहराया था कि पंजाब में कानून-व्यवस्था की हालत लचर है और नशों के सौदागर तस्कर बेखौफ घूमते फिर रहे हैं।

पंजाब सरकार के कद्दावर मंत्री अमन अरोड़ा ने जवाब में कहा था कि राज्यपाल के दौरे और बयान सरासर सियासी है। लेकिन चंडीगढ़ में हुई संगीन हिंसा पर दोनों पक्ष मौन हैं तो क्यों? 

दरअसल, कौमी इंसाफ मोर्चा जो अब ‘पक्के मोर्चे’ में तब्दील हो गया है, की मुख्य मांग यह है कि सजा पूरी करने के बावजूद जेलों में बंद सिखों को रिहा किया जाए।

वैसे, यह मामला मानवाधिकारों से भी वाबस्ता है। लंबे अरसे से इस मामले की संवेदनशीलता में इजाफा होता आ रहा है। लेकिन केंद्र ने कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया। न नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने और न मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने।

राज्य के मुख्यमंत्रियों प्रकाश सिंह बादल, कैप्टन अमरिंदर सिंह, चरणजीत सिंह चन्नी और मौजूदा मुख्यमंत्री भगवंत मान ने भी कभी इसे अतिरिक्त गंभीरता से नहीं लिया। अलबत्ता भाजपा के सिवा सबको चुनावों के वक्त सजा पूरी करने के बावजूद सलाखों में बंद कैदियों की याद जरूर आती है और वादे भी किए जाते हैं लेकिन शासन-व्यवस्था की बागडोर संभालते ही वादे हवा हो जाते हैं।

विपक्ष में बैठे लोग भी खामोशी अख्तियार कर लेते हैं। इसलिए भी कि इस संवेदनशील मामले में कोई बड़ा सियासतदान रत्ती भर भी ‘नुकसान’ की सियासत नहीं करना चाहता। अलबत्ता अब खुद को सिख हितों का अभिभावक और प्रवक्ता बताते रहे शिरोमणि अकाली दल ने जरूर कुछ सक्रियता दिखाई है।

चंडीगढ़ हिंसा

सुखबीर सिंह बादल और हरसिमरत कौर बादल लोकसभा में अकाली सांसद हैं लेकिन चंडीगढ़ हिंसा पर वे भी सदन में खामोश रहे। पंजाब के शेष सांसद भी। आम आदमी पार्टी के सांसदों ने भी यह मसला नहीं उठाया। 

बंदी सिखों की रिहाई का अंतिम फैसला केंद्रीय गृह मंत्रालय को लेना है। राज्य सरकार सिर्फ अनुशंसा कर सकती है। टिप्पणीकार और वामपंथी नेता मंगतराम पासला कहते हैं, “पंजाब में फिर आग लग रही है लेकिन केंद्र और राज्य सरकार अपने-अपने हितों के मद्देनजर इसे अनदेखा कर रही है।” लोक मोर्चा पंजाब के संयोजक अमोलक सिंह के मुताबिक चंडीगढ़ हिंसा ने केंद्र और राज्य सरकारों को बेनकाब कर दिया है।                          

जिक्रेखास है कि फौरी तौर पर पंजाब के मुख्यमंत्री और अन्य गैरभाजपाई राजनेता इसलिए खामोश हैं कि यह प्रकरण केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ में हुआ। हालांकि जड़ें पंजाब में हैं। केंद्र इसीलिए खामोश है कि इससे बदनामी पंजाब को मिल रही है। यानी तटस्थता की भी अपनी राजनीति है। माहौल बिगड़ने दिया जा रहा है। यह सोचे बगैर कि आने वाले दिनों में यह आग समूचे पंजाब को अपनी जद में ले सकती है।

केंद्र शायद यही चाहता है। भगवंत मान सरकार और आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल नहीं समझना चाहते कि पंजाब में ऐसे हालात बकायदा बनाए जा रहे हैं कि इस सरहदी राज्य की चुनी हुई सरकार को गिरा कर पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाए। अवाम तो यही कह रही है और धीरे-धीरे यह दीवारों पर लिखा भी नजर आने लगेगा। तब तक देर हो चुकी होगी।

(पंजाब से वरिष्ठ पत्रकार अमरीक की रिपोर्ट)

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