राजस्थान का सियासी संकट: ‘माइनस’ की ‘प्लस’ में तब्दीली

राजस्थान का सियासी गणित बदल गया। 32 दिन तो खपे लेकिन ‘बाकी’ की कवायद करते-करते अचानक ‘जोड़’ हो गया। अब कांग्रेस में ‘जोड़’ (गठजोड़) होने के बाद कुछ भी ‘बाकी’ नहीं रहा। हिसाब ‘चुकता’ करने के चक्कर में बेचारा हिसाब खुद ही ‘बराबर’ हो गया। अब ना ऊधो का लेना, ना माधो का देना। ‘हाथ’ से ‘हाथ’ मिल गया। न तो अब ‘प्लस’ को ‘माइनस’ से शिकायत है और न ही ‘माइनस’ को ‘प्लस’ से। दोनों फिलवक्त ‘राजस्थान में गहराए सियासी कोरोना’ से डरे हुए तो हैं लेकिन नकाब के भीतर खुश हैं। ‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’ कहावत की तर्ज पर ‘अंदर’ की बात ‘बाहर’ का कोई दर्शक नहीं जानता। 

चुम्बक के दो विपरीत ध्रुव अब एक हो गए हैं। राजनीति का ज्ञान ही नहीं, विज्ञान भी इस अजूबे से अचम्भित है। दांतों तले अंगुली दबाकर अपनी सीधी अंगुली को लहू की बलि देने वाले हतप्रभ सारे वैज्ञानिक दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव के इस ‘बेमेल’ मिलन के ‘सूत्र’ को खोज रहे हैं। उन्होंने अपनी ज्ञानार्जन की सारी पुस्तक के पन्ने खंगाल लिए लेकिन किसी को भी ‘असली सूत्र’ नहीं मिला। राजनीति के पारखी पंडित भी शायद ऐसा ही सोच रहे हैं। उनका आकलन है कि एक माह पूर्व ‘कमलाकर्षण’ की पुरवाई के दुष्प्रभाव से थोड़ा ‘माइनस’ की ओर चला गया कांग्रेस का ‘टेंपरेचर’ आलाकमान की गुरुग्राम से आरम्भ हुई पछौंही हवा के चलने के बाद प्लस में आ गया।

पश्चिम से प्रवाहित इस हवा ने राजस्थान की राजनीति के तापमान को माइनस की ओर धकेल रहे संकटकारक ‘कमलासनी’ बादलों को खदेड़ते हुए आसमां को इस मंशा से साफ कर दिया कि सत्ता को शोकरहित यानि ‘(अ)शोक’ करने के लिए ‘पायलट’ के भटके हुए विमान की जयपुर में सही लैंडिंग हो सके। कुछ दिनों पहले दो-दो ‘हाथ’ करने पर उतारू हमदर्दों के विमान की इस आपात लैंडिंग के बाद जयपुर की अशोक वाटिका में हाथ से हाथ भी मिले और तस्वीरें भी खिंचीं। परन्तु खिंची या खींची गई इन तमाम तस्वीरों में इस साक्ष्य का सर्वथा अभाव दिखा कि हाथों के बीच आपसी खींचतान पर पूर्ण विराम लग चुका है। हाथ तो कुश्ती के दंगल और खेल के मैदान में भी मिलाए जाते हैं। इसका अर्थ यह थोड़े ही है कि प्रतिद्वंद्वी आपस में मिल चुके हैं या उनमें हार-जीत के बारे में ‘गठजोड़’ हो चुका है।

मेरा मानना है कि जो कुछ अंदर या बाहर घटित हुआ, वह तूफान से पहले की वह शांति है, जिसमें कांग्रेस की सत्ता के विनाश के अनगिनत ‘बीज’ छुपे पड़े हैं। कालांतर में इन बीजों के अंकुरण का सीधा अर्थ होगा-‘भीषण विस्फोट’। लक्ष्मी जी का आसन ‘कमल’ इतनी आसानी से मुरझा गया, इसमें घुसे ‘संदेह’ में एक बड़ा ‘संदेश’ छुपा हुआ है और वह है-‘लौट कर फिर आऊंगा’। 

गहलोत यदि यह सोच रहे हैं कि बागियों के लौट आने के बाद वह सत्ता पर संकट के मामले में ‘शोकरहित’ हो गए हैं तो यह उनके जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल होगी। कर्नाटक और मध्यप्रदेश के तख्तापलट दंगल में कांग्रेस को चारों खाने चित्त करने वाले भाजपाई रणनीतिकार भले ही कांग्रेस के नौसिखिए नेताओं के चलते राजस्थान के दंगल की सियासी कुश्ती में ‘ सही’ दांव नहीं लगा सके और उन्होंने ‘कोरोना’ के दुष्प्रभाव से ‘माइनस’ को ‘प्लस’ समझने की भूल कर दी लेकिन उन्होंने पराजय भी कब स्वीकार की है? वह तो इसे कांग्रेस का अंदरूनी झगड़ा बताते हुए सुलगती आग पर अपनी रोटियां सेंकना चाहते थे, आज भी चाहते हैं और जब तक लोकतंत्र जिन्दा है, चाहते ही रहेंगे। 

अपने चूल्हे पर विरोधी के अंगा नहीं सिंके, यह उस कांग्रेस को सोचना है जो सर्व सत्ता गंवाने के बावजूद सोच रहित वातावरण में जी रही है। सभी जानते हैं कि राज्य सभा चुनाव से आरम्भ हुए ‘घर’ के भितरघात को गहलोत ने बिना किसी बाहरी मदद खुद की काबिलियत से झेला। बाद में तो सारी स्थिति ही ठीक वैसे ही स्पष्ट हो गई जैसे बादलों के बरसने के बाद आसमां स्वच्छ और नीलवर्ण दिखाई देता है। इस गृहयुध्द में शस्त्रागार के सारे शस्त्र और अस्त्र चले। दोनों पक्षों ने चलाए। कांग्रेस ने पहले ‘फेयर माउंट’ और बाद में धौरा-री-धरती’ के ‘सूर्यगढ़’ को बाड़ेबंदी का सुरक्षा कवच बनाया तो ‘कमल’ पोषित कांग्रेस के विद्रोही हरियाणा सरकार की ‘मानेसर’ वाली उस गोदी में जा बैठे, जहां उन्हें दुलार और प्यार सब मिला। 

 बतौर ढाल बागियों ने भाजपा के पक्षधर उन वकीलों से वकालत कराई, जिनकी एक दिन की फीस सुनकर रूह कांप जाती है। पचास लाख प्रति पेशी! फिर भी ‘कमलासनी’ नेता कहते हैं कि कांग्रेस की ‘अशोकी-अग्नि लीला’ के वे सिर्फ़ ‘मूकदर्शक’ हैं। 

बहरहाल जो भी हो। पर एक बात जरूर है कि नाकारा, निकम्मा, धोखेबाज, षड्यंत्रकारी और पीठ में छुरा घोंपने जैसे गम्भीर और ह्रदय विदारक खुले आरोपों के बावजूद भी यदि विद्रोही कांग्रेसी खेमे में लौटे हैं तो यह वही शांति है जो विनाशकारी तूफान से पहले दिखाई देती है। 

जो व्यक्ति घर से बाहर रहकर क्षति नहीं पहुंचा पाता, वह येन-केन-प्रकारेण घर के भीतर घुस आए तो घर की व्यवस्था को दीमक की तरह खोखला कर सकता है। यदि समर्थन पड़ोसी प्रतिद्वंद्वी का हो तो यह काम और भी सहज और सुलभ हो जाता है।

(मदन कोथुनियां स्वतंत्र पत्रकार हैं और आजकल जयपुर में रहते हैं।)

मदन कोथुनियां
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