कर्नाटक फ्लोर टेस्ट पर कांग्रेस ने पूछे पांच सवाल

नई दिल्ली। कर्नाटक में आज मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने विश्वास मत हासिल करने के लिए विधानसभा में अपना प्रस्ताव पेश किया। शाम तक उस पर बहस के बाद सदन कल तक के लिए स्थगित हो गया। उधर राज्य के राज्यपाल बाजूभाई वाला ने कुमारस्वामी को कल 1.30 बजे तक विश्वास मत हासिल करने का निर्देश दिया है। इस बीच, कांग्रेस ने पूरे फ्लोर टेस्ट पर ही सवाल उठाया है। जिसमें उसका कहना है कि सब कुछ तमाम संवैधानिक प्रक्रियाओं को दरकिनार करके हो रहा है जिससे देश के संवैधानिक इतिहास में एक गलत परंपरा पड़ रही है। उसका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद कई तरह का भ्रम पैदा हो गया है। जिसको दूर किए बगैर चीजों को हल नहीं किया जा सकता है।

इसी संदर्भ में पार्टी के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने आज अपने नियमित संवाददाता सम्मेलन में पांच सवाल उठाए।

1. जब व्हिप समाप्त कर दी गई, तो क्या फ्लोर टेस्ट हो सकता है?

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कल अपने फैसले में कहा कि ‘असेंबली के 15 सदस्यों को विधानसभा के जारी सत्र की कार्यवाही में हिस्सा लेने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए और उन्हें यह विकल्प मिलना चाहिए कि वो इस कार्यवाही में भाग लें या फिर इससे बाहर रहें।’

परिणामस्वरूप, व्हिप जारी करने या उसे लागू करने का कांग्रेस पार्टी का अधिकार स्वतः निरस्त हो गया। यह बात आज तब सामने आई जब बागी विधायकों ने माननीय कोर्ट के आदेश का फायदा उठाकर फ्लोर टेस्ट में हिस्सा नहीं लिया। 

यदि सदस्यों को संविधान में निर्दिष्ट व्हिप का अनुपालन करने से छूट दे दी जाए, तो कांग्रेस पार्टी संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत व्हिप जारी करने के अपने अधिकार का उपयोग कैसे कर सकती है?   

2. क्या भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक ऐसे अदालती फैसले से बाध्य किया जा सकता है, जिसमें वह पार्टी ही नहीं: सुप्रीम कोर्ट का आदेश कांग्रेस पार्टी को संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत व्हिप जारी करने के अपने अधिकार का उपयोग करने से रोकता है। यह बिल्कुल अनुचित है क्योंकि न तो कांग्रेस और न ही असेंबली में पार्टी लीडर सुप्रीम कोर्ट के सामने सुने जा रहे इस मामले में कोई पक्षकार थे। तो कांग्रेस पार्टी को एक ऐसे निर्णय से कैसे बांधा जा सकता है, जिसमें वह पक्षकार ही नहीं थी?

3. जब दसवीं अनुसूची अप्रभावी कर दी गई, तो क्या विश्वास मत हो सकता है: व्हिप जारी करने में असमर्थ होने के बाद संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत दण्ड लगाने और अयोग्य घोषित करने का अधिकार निरर्थक हो जाता है। दसवीं अनुसूची उन विधायकों को दण्डित करती है, जो जनादेश के साथ विश्वासघात करते हैं और इसके दण्डस्वरूप बागी विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। संविधान की दसवीं अनुसूची के प्रावधानों को लागू करने में असमर्थ होकर संविधान द्वारा दी गई गारंटी एवं संसदीय प्रक्रियाओं के अभाव में क्या निष्पक्ष एवं स्वतंत्र विश्वासमत हो सकता है?

4. शक्ति के पृथकीकरण के सिद्धांत में क्या हमने अपवाद की अनुमति नहीं दे डाली: यह सिद्धांत न्यायपालिका, कार्यपालिका एवं विधायिका को पृथक कर उनके द्वारा एक दूसरे के काम में हस्तक्षेप करने को प्रतिबंधित करता है। शक्ति का पृथकीकरण मौलिक संरचना (केशवानंद भारती बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 1973) का हिस्सा है और इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र के एक अंग द्वारा दूसरे अंग के अधिकारक्षेत्र में हस्तक्षेप को रोकने के लिए यह एक आवश्यक चेक एण्ड बैलेंस है। क्या न्यायपालिका इस संबंध में अपने नियम व शर्तें लागू कर सकती है कि एक फ्लोर टेस्ट कैसे होना चाहिए और क्या वह विधायिका की कार्यवाही को नियंत्रित कर सकती है?

5. क्या सुप्रीम कोर्ट ने अपना आदेश जारी करने से पहले विधानसभा भंग करने के सोचे समझे और षड्यंत्रकारी प्रयासों के संदर्भ व इतिहास पर विचार किया: यह पहली बार नहीं कि भाजपा ने पैसे और बाहुबल के बूते जनादेश को पलटने का प्रयास किया है। 

गोवा, मणिपुर, त्रिपुरा, उत्तराखंड, मेघालय, बिहार और जम्मू-कश्मीर के बाद, कर्नाटक इस श्रेणी में सबसे ताजा उदाहरण है, जो भाजपा की सेल्फ-सर्विंग फिलॉसफी का शिकार हुआ है। ये राज्य (उत्तराखंड को छोड़कर, जहां सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा का पर्दाफाश कर दिया), जहां जनादेश ने भाजपा को खारिज कर दिया था, लेकिन दुर्भाग्यवश उनकी इच्छा के विरुद्ध उन पर भाजपा का शासन थोप दिया गया। ये सब सत्ता हथियाने के प्रयास हैं, फिर चाहे जनादेश और संविधान कुछ भी क्यों न कहे। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विरुद्ध है। 

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय प्रतिद्वंदी विचारों को संतुलित करने और ‘संवैधानिक संतुलन बनाए रखने’ के लिए दिया। लेकिन संवैधानिक नियमों को खारिज कर किसी भी कीमत पर सत्ता हथियाने के भाजपा के उतावलेपन के कारण इसका बिल्कुल विपरीत परिणाम निकल सकता है।

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