हिमाचल में जल आपदा: विकास के नाम पर पहाड़ों का सीना छलनी करने की चुकानी पड़ रही है कीमत

करीब एक महीने के भीतर हिमाचल प्रदेश पर मौसम ने दो बार बड़ी मार की है। 2013 में केदारनाथ आपदा के समय उत्तराखंड के साथ-साथ हिमाचल के भी कई इलाकों में भारी बारिश के बाद बाढ़ आई थी। उसके बाद से इस तरह की आपदा राज्य को पहली बार झेलनी पड़ी है, करीब दस साल बाद। यही हाल उत्तराखंड का भी है। हालांकि वहां उस तरह का विनाश तो नहीं हुआ लेकिन रह-रहकर भूस्खलन का सिलसिला डेढ़ महीने से चल रहा है। अभी पिछले सप्ताह जब ऋषिकेश में भारी बारिश हुई थी, तो गंगा का जलस्तर वहां जिस तरह से बढ़ा, तो कई लोगों ने कहा कि वह 2013 में पहुंचे जलस्तर के बराबर हो गया है।

इस जल आपदा के दो पहलू हैं- एक तो अचानक होने वाली बारिश का जोर व बारंबारता, दोनों बढ़े हैं। दूसरा, इस तरह की बारिश से होने वाली जान-माल की हानि में खासा इजाफा हुआ है। इन दोनों पहलुओं की वजहें अलग-अलग हैं, जिनका शिकार केवल हिमाचल प्रदेश ही नहीं बल्कि हिमालय की तलहटी में मौजूद तमाम पर्वतीय प्रदेश हो रहे हैं।

बारिश जब अचानक और बहुत जोर के साथ हो रही है तो इसके पीछे की बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन है। अब यकीनन, इसमें भी इंसानी योगदान तो है ही। लेकिन जब बारिश या नदियों का प्रवाह खतरनाक रूप से जान-माल की हानि कर रहा है तो इसमें निश्चित रूप से इंसानी बेवकूफियों व लापरवाहियों का योगदान ज्यादा है।

अब इस बार की आपदा की कुछ तस्वीरों का आकलन हम करते हैं। ऋषिकेश में जिस दिन बारिश आई, उस दिन ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक बन रही रेलवे लाइन की शिवपुरी के पास निर्माणाधीन सुरंग में पानी भर गया, जिसमें सौ से ज्यादा इंजीनियर व कर्मचारी फंस गए। उन्हें मुश्किल से सुरक्षित बाहर निकाला गया।

हिमाचल में राजधानी शिमला में एक मंदिर भूस्खलन की चपेट में आया जिसमें कई जानें गईं और दरअसल, घटना के कई दिन बाद तक सारे लोगों को मलबे से बाहर नहीं निकाला जा सका था। कालका से शिमला के बीच की सड़क और मंडी से मनाली के बीच की सड़कों के धंसने, बह जाने या भूस्खलन के कारण उन पर मलबा आ जाने, शहरों में पानी घुस जाने की बीसियों घटनाएं हुईं।

ये सारी घटनाएं हमारी नीतियों पर सवाल करती हैं। लेकिन कहीं न कहीं हम सब इसके लिए जिम्मेदार हैं। चौड़ी, समतल सड़कें आज के दौर में विकास का इतना बड़ा पैमाना हो गई हैं कि हर जगह की बेहतरी को उसकी सड़कों की स्थिति से मापा जाने लगा है।

जाहिर है कि हाल के सालों में जो लोग कालका से सड़क के रास्ते शिमला जाते होंगे, वे चौड़ी, चमकदार चार लेन की सड़क पाकर बहुत आनंद महसूस करते होंगे क्योंकि उनके लिए उस सफर में लगने वाला वक्त तकरीबन आधा हो गया है। लेकिन उस रास्ते पर सरपट दौड़ती गाड़ियों के लिए पर्यावरण को क्या कीमत चुकानी पड़ रही है, इसका अंदाजा तभी लगता है जब इस तरह की आपदाएं सामने आती हैं।

इस बार की बारिश में कालका-शिमला राष्ट्रीय राजमार्ग पर परवाणु से सोलन तक के 40 किलोमीटर के रास्ते में कई जगह भूस्खलन हुआ, कई जगह सड़क धंस गई। जैसा कि हमेशा होता है, जब आपदाएं आती हैं और नुकसान होता है तो सवाल खड़े होने लगते हैं जबकि उससे पहले जब आशंकाएं जाहिर की जाती हैं तो उन्हें हमेशा दरकिनार कर दिया जाता है। कई भूवैज्ञानिक कह रहे हैं कि जिस तरह से यह राजमार्ग बनाया गया, और उसके लिए पहाड़ को काटा गया तो यह होना ही था।

जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व निदेशक ओम भार्गव के हवाले से इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में कहा गया कि जिस तरह से पहाड़ों को खड़ा काटा गया है, उसमें पहाड़ का ढलान देर-सबेर अपना आकार फिर बनाएगा ही, और जब भी वह ऐसा करेगा तो भूस्खलन होगा।

हाल यह है कि हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में कई सड़कें ऐसी हैं तो टूटने-धंसने के लिए अभिशप्त हैं। वे बनती हैं, बारिश में फिर बह जाती हैं, उन्हें बनाने के लिए फिर से पहाड़ काटे जाते हैं और यह चक्र अनवरत तौर पर चल रहा है।

लेकिन इस बात का ध्यान रखे बगैर पहाड़ में ज्यादातर सड़कों का निर्माण हो रहा है। इसमें भी गौर करने वाली बात यह है कि परवाणु से सोलन का हिस्सा तो निचले पहाड़ का है, अब जरा अंदाजा लगाइए कि ऊपरी पहाड़ में क्या हाल होगा। चाहे वह हिमाचल में कालका-शिमला रास्ता हो या फिर उत्तराखंड में चारधाम प्रोजेक्ट, सभी के बारे में पर्यावरणविदों ने योजना बनने के दौर से ही आपत्तियां जताई हैं।

ओम भार्गव ने अपनी टिप्पणी में परवाणु-सोलन परियोजना के बारे में कहा था कि अगर सड़क को चौड़ी करना इतना ही जरूरी था तो सुरंग आदि बनाई जा सकती थी। सुरंगें कई हलकों में भूस्खलन से बचाव के रूप में सोची जाती हैं। यही वजह है कि चार धाम सड़क प्रोजेक्ट और ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन में सुरंगों का खूब निर्माण हो रहा है। मंडी-मनाली सड़क और कश्मीर में कारगिल रास्ते पर भी इस तरीके का खूब इस्तेमाल हो रहा है।

यह ठीक है कि सुरंगें हर मौसम में संपर्क बनाए रखती हैं और उन पर मौसमी आपदाओं का असर कम होता है लेकिन विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि सुरंगें बनने की प्रक्रिया में पहले ही पहाड़ों का काफी नुकसान कर देती हैं, खास तौर पर यदि स्थानीय इकोसिस्टम और पहाड़ों की संरचना का ध्यान न रखा जाए, जैसा कि उत्तराखंड में हो रहा है। और, उत्तराखंड में तो सुरंगों की भरमार है, सड़कों के लिए, रेलों के लिए और सबसे ज्यादा तो पनबिजली परियोजनाओं के लिए।

सुरंगें पहाड़ों को खोखला कर देती हैं, और पहाड़ यदि गढ़वाल हिमालय जैसे नए व कमजोर हों तो नुकसान हीं ज्यादा होता है। चारधाम हाइवे प्रोजेक्ट के पर्यावरण प्रभाव के अध्ययन के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित उच्चाधिकार समिति के सदस्य रहे डॉ. हेमंत ध्यानी ने पिछले साल कहा था कि सुरंगें चाहे जिस चीज के लिए बनें, वे पहाड़ों में पानी के प्राकृतिक स्रोतों को सुखा देती हैं।

ध्यानी बताते हैं कि साल 2009-10 में जोशीमठ बिजली परियोजना के लिए सुरंग बनाते समय अचानक कहीं से पानी का कोई सोता फूट पड़ा। पहाड़ ऐसे कई स्रोत बारिश के दिनों में अपने में समेट लेते हैं जो बाद में गर्मियों में लोगों को जलस्रोत उपलब्ध कराते हैं। लेकिन सुरंगें पहाड़ की पारिस्थितिकी के इसी नाजुक संतुलन को गड़बड़ा देती हैं। सुरंगों के लिए किए जाने वाले विस्फोट व उनसे निकलने वाले मलबे के नुकसान हैं, वो अलग।

इस तरह की परियोजनाएं पानी को सोखने व सहेजने की पहाड़ों की क्षमता पर असर डालती हैं। जोशीमठ का धंसना प्रकृति को हो रहे नुकसान का सबसे बड़ा उदाहरण है। जोशीमठ के बाद पिछले दो दिन से हम ऋषिकेश से थोड़ा ऊपर यमकेश्वर ब्लॉक के गांवों में मकानों में दरारें आने की खबरें सुन रहे हैं।

रानीचौरी में कॉलेज ऑफ फॉरेस्ट्री में पर्यावरण विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. एसपी सती कहते हैं कि सुरंगें बनाने के लिए किसी इको-फ्रेंडली तरीके का इस्तेमाल किया जाए तो भी पहाड़ों की अंदरूनी जल-निकासी संरचना पर तो असर पड़ता ही है। चारधाम प्रोजेक्ट के बारे में शुरू में ही कह दिया गया था कि वह करीब 529 भूस्खलन-प्रभावित इलाकों से गुजरता है।

पहाड़ों पर मैदान सरीखे एक्सप्रेसवे बनाने का लोभ ऐसा है जिससे न तो सरकारें बच पाती हैं और न ही स्थानीय लोगों का एक हिस्सा। इसे देश की सुरक्षा से लेकर पर्यटन तक, हर नाम से बेचा जाता है। इसके कई सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक पहलू होते हैं जिनका फायदा उठाने को सब आतुर रहते हैं, प्रकृति को होने वाले हर नुकसान की कीमत पर। यही कारण है कि अक्सर तमाम बड़ी परियोजनाएं बगैर पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (एनवायरमेंटल इंपैक्ट एसेसमेंट यानी ईआईए) के ही शुरू हो जाती हैं। पर्यावरण क्लीयरेंस बाद में आता है या लोगों की आपत्तियों को दरकिनार करके उसका जुगाड़ कर लिया जाता है।

पर्यावरण क्लीयरेंस या वन संरक्षण नियमों की अनिवार्यता को धता बताने के लिए सरकारें एक ही प्रोजेक्ट को कागजों पर छोटे-छोटे प्रोजेक्ट में बांट देती हैं ताकि क्लीयरेंस की अनिवार्यता लागू ही न हो। अक्सर आपत्तियां या सवाल खड़े होने के वक्त तक इन प्रोजेक्ट के काम को इतना बढ़ा लिया जाता है कि साफ दिख रहे नुकसानों के बावजूद परियोजनाओं को रोकने से अदालतें भी हाथ खींच लेती हैं। तब बात केवल मुआवजों या मिटिगेशन (भरपाई) करने पर सिमट जाती है। जाहिर है, कि जब सरकारों का इरादा ही पर्यावरण को बचाने का कतई न हो तो और कोई भी क्या कर लेगा।

सड़कें चौड़ी करने, पहाड़ों को काटने, भूस्खलन होने, उसे फिर से साफ करने की समूची दुष्चक्री प्रक्रिया का एक और पहलू है। हम में से कई लोगों ने पहाड़ों में अपने सफर के दौरान अचानक भूस्खलन होने का सामना किया होगा, कई लोग इसकी वजह से अटके होंगे और उन्होंने अपने सामने बुलडोजर से सड़कों को साफ करके समतल बना वाहनों के आवागमन को चालू करते भी देखा होगा। लेकिन हम में से कितने लोगों ने इस बात पर ग़ौर किया होगा कि बुलडोजर जो मलबा सड़क से हटाया जा रहा है, वह जा कहां रहा है।

हकीकत यह है कि यह सारा मलबा पहाड़ की तरफ से उठाकर बुलडोजर ढलान की तरफ गिरा देते हैं। यह मलबा अक्सर नीचे नदी की धारा में जाकर समा जाता है। अचानक बारिश के बाद जब पहाड़ी नदियों में उफान आता है और वे रौद्र रूप धारण करके विनाश करती चलती हैं तो ज्यादा नुकसान पानी के साथ बह रहा इसी तरह का मलबा करता है। 2013 की जल प्रलय में हम यह देख भी चुके हैं।

डॉ. सती कहते हैं कि इस तरह के मलबे के लिए बनने वाली तमाम डंपिंग साइट महज छलावा हैं, क्योंकि ज्यादातर मलबा नदी में ही समा जाता है। मलबे का इस्तेमाल करके सड़कों पर पहाड़ों की तरफ सुरक्षा दीवार बनाने की कवायद होती है लेकिन बारिश आते ही ये दीवारें भी ढह जाती हैं।

पर्यावरण मामलों पर सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय पारीख ने कुछ साल पहले कहा था कि पहाड़ी इलाके में एक किलोमीटर की सड़क के निर्माण में करीब 60 हजार घन मीटर मलबा निकलता है। तमाम सरकारें यह नहीं बता पातीं कि सैकड़ों किलोमीटर बन रही सड़कों या फिर रेल परियोजना या जल परियोजनाओं की सुरंगों का मलबा आखिर जा कहां रहा है। इस तरह का निर्माण दोहरी चोट करता है- पहले तो पहाड़ काटे जाते हैं और फिर उसका मलबा नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता है। यानी पहाड़ व नदियां, दोनों तहस-नहस हो जाते हैं।

एक ताजा आंकड़े के अनुसार उत्तराखंड में 1988 से लेकर 2022 तक 34 सालों में भूस्खलन की 11,219 घटनाएं दर्ज की गई थीं, जबकि इस साल पहले ही अभी तक 1,123 इस तरह की घटनाएं दर्ज की जा चुकी हैं जबकि मानसून अभी चल ही रहा है।

हिमाचल प्रदेश हो या उत्तराखंड, दोनों ही प्रदेशों ने बेलगाम पर्यटन की भी भारी कीमत चुकाई है और चुका रहे हैं। ब्यास व पार्वती घाटियों ने इसकी मार सबसे ज्यादा झेली है और इसी का असर हर बारिश में नीचे मंडी व सुंदरनगर तक होने वाले विनाश के रूप में नजर आता है। उत्तराखंड में तो कुछ साल पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने ऋषिकेश के आसपास गंगा के किनारे लगने वाली कैंपिंग साइट पर रोक लगा दी थी लेकिन कोई ज्यादा फर्क उससे आया नहीं हैं।

तमाम सुदूर जगहों पर नई-नई कैंपिंग साइट बन रही हैं। पार्वती घाटी में पहले मणिकर्ण साहिब तक आखिरी सड़क थी जो अब बीसियों किलोमीटर आगे पहुंच चुकी है। खीरगंगा जैसे शांत व मनोरम स्थल अब हजारों टेंटों की कैंपिंग साइट में तब्दील हो चुके हैं। कसोल व मलाणा तक अब पिकनिक स्पॉट में तब्दील हो चुके हैं। यही हाल मनाली और ऊपर सोलंग घाटी तक है। ऐसा ही हाल धर्मशाला की तरफ है जहां 10 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित त्रिउंड चोटी पर कैंपिंग साइट का आकार हर साल बेलगाम बढ़ता जा रहा है।

अब इस इलाके को एक तो हर सीजन में बड़ी संख्या में आने वाले सैलानियों के आवागमन का दबाव झेलना पड़ता है, फिर उनके जाने के बाद यहां की प्रकृति को पीछे छूट गए कचरे को बरदाश्त करना होता है।

नदियों के किनारे रिज़ॉर्ट व कैंपिंग साइटों ने हथिया लिए हैं और नदी के पाट पार्किंग में तब्दील हो गए हैं। हिमाचल में पिछले दिनों नदी में बहते वाहनों की तस्वीरें इसका अहसास कराने के लिए काफी हैं। इन्हीं सैलानियों की सहूलियत के नाम पर चौड़ी, और चौड़ी सड़कें तैयार की जा रही हैं। चार धाम प्रोजेक्ट भी यही तो है।

पहाड़ की विडंबना यह है कि वह एक साथ मूल निवासियों के पलायन और बढ़ते शहरीकरण, दोनों का सामना कर रहा है। शिमला से लेकर, मसूरी व नैनीताल तक तमाम शहरों के पांव अपनी-अपनी चादरों से काफी बाहर निकल चुके हैं। पिछले कुछ सालों में नैनी झील हर बार माल रोड को अपने में समेट लेती है। गर्मियों के हर वीकेंड में मसूरी यातनाघर बन जाता है। तमाम पहाड़ी शहर भीतर से खोखले हो रहे हैं और उनके आसपास के इलाके जहां-तहां दरक रहे हैं।

ऐसे में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री भले ही किसी राज्य-विशेष के कारीगरों को अपने शहरों की डिजाइन के लिए दोष देकर अपनी भड़ास निकाल लें, लेकिन उन्हें व उनके जैसे तमाम नीति-नियंताओं को यह समझ में नहीं आ रहा है कि वे किस हद तक पहाड़ों की कुदरत के साथ खिलवाड़ कर चुके हैं और उसे रोकने का कोई इरादा उनका नजर नहीं आ रहा है।

(उपेंद्र स्वामी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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