दिल्ली ने बदल दिया देश का नरेटिव, सांप्रदायिकता पर भारी पड़ रहे हैं जन सरोकार के मुद्दे

दिल्ली विधानसभा चुनाव में सामने आए सभी एग्जिट पोल के नतीजे आम आदमी पार्टी को जिताते दिख रहे हैं। और 70 सीटों में यह आंकड़ा 42 से लेकर 68 तक जाता है। बहरहाल इससे तो एक बात बिल्कुल साफ दिख रही है कि नतीजे आप के पक्ष में आने जा रहे हैं। और एक बार फिर अरविंद केजरीवाल सरकार बनाने जा रहे हैं। कल पोलिंग के दौरान शुरुआत में वोटिंग की रफ्तार थोड़ी कम थी। दोपहर 1 बजे तक केवल 31.69 फीसदी मत ही पड़ पाए थे। लेकिन उसके बाद अचानक उसमें तेजी आ गयी। 

और बताया जा रहा है कि जगह-जगह पोलिंग बूथों पर लंबी-लंबी कतारें दिखने लगी। और इस तरह से आखिरी मतदान का आंकड़ा 61.70 फीसदी रहा। जिसे रात में 11 बजे चुनाव आयोग ने घोषित किया। लिहाजा आखिरी मत प्रतिशत में आधा या फिर एक फीसदी के आस-पास का अंतर हो सकता है। हालांकि यह आंकड़ा 2015 के मतदान से कम है जब दिल्ली में 67.12 फीसदी लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया था। वैसे मौजूदा मतदान का आंकड़ा लोकसभा में होने वाले मतदान से ज्यादा है। जब तकरीबन 60 फीसदी लोगों ने ही वोट डाले थे।

आप के जीतने की स्थिति में उसके कारकों के पीछे नजर दौड़ाएं तो चीजें बिल्कुल स्पष्ट हो जाएंगी। एक बात पूर दावे के साथ कही जा सकती है कि चुनाव जनता के बुनियादी मुद्दों सड़क, बिजली और पानी समेत दूसरे अन्य सवालों पर हुआ है। इसे सांप्रदायिक रंग देने की बीजेपी की कोशिश पूरी तरह से नाकाम रही है। गरीबों ने एकमुश्त आप के पक्ष में वोट किया है। इसी का नतीजा है कि देवली, अंबेडकरनगर, सीमापुरी, संगम विहार जैसे तुलनात्मक रूप से गरीब रिहाइश वाले इलाकों में मतदान प्रतिशत औसत से ज्यादा रहा है। छतरपुर और देवली में यह 63 और 63.43 फीसदी रहा तो सीमापुरी में यह आंकड़ा 68 फीसदी के पार चला गया। छतरपुर तो आप का गढ़ रहा है। 2015 में यहां इसकी जीत की मार्जिन 47 फीसदी थी।

इसके साथ ही महिलाओं का भी रुझान पूरी तरह से आप के पक्ष में रहा। कहा जा रहा है कि दिल्ली की 75 फीसदी महिलाओं ने आप के पक्ष में वोट किया है। इसके पीछे वजह आप सरकार द्वारा दी गयीं सुविधाओं को बताया जा रहा है। जिनका सीधा संबंध घर चलाने वाली महिलाओं से जुड़ता है। क्योंकि अंत में घर का बजट वही बनाती हैं। इसके अलावा केजरीवाल सरकार द्वारा बसों में महिलाओं को दी गयी छूट ने इस संभावना को और दुगुना कर दिया। इसके साथ ही बसों में महिलाओं की सुरक्षा के लिए गार्डों की तैनाती से उनके आत्मविश्वास को नई ऊंचाई मिली। इस बात को शायद केजरीवाल जानते थे। यही वजह है कि कल उन्होंने अलग से महिलाओं से वोट देने जाने की अपील की। साथ ही उन्हें यह भी सलाह दी कि अपने पुरुष परिजनों से वोट को मसले पर राय-मशविरा कर लें। लिहाजा कहा जा सकता है कि बिहार के बाद अब दिल्ली में भी महिलाओं ने खुद को स्वतंत्र राजनीतिक कांस्टिट्यूएंसी के तौर पर पेश कर दिया है।

तीसरा हिस्सा जिसने बड़े पैमाने पर वोट किया है वह बुजुर्गों का है। बताया जा रहा है कि राजधानी दिल्ली के 75 फीसदी बुजुर्गों ने आप के पक्ष में मतदान किया है। इसके पीछे केजरीवाल की बुजुर्ग तीर्थ यात्रा योजना प्रमुख वजह बतायी जा रही है। जिसके चलते दिल्ली के बुजुर्ग केजरीवाल को अपने बड़े बेटे के तौर पर देखने लगे हैं। और इसको इस रूप में पेश किया जा रहा है कि जो काम सगा बेटा नहीं कर पाया उसे केजरीवाल कर रहे हैं।

साथ ही सिविल सोसाइटी और वर्ग के तौर पर उच्च वर्ग से ताल्लुक रखने वाला हिस्सा भी आप के साथ मजबूती से खड़ा रहा। क्योंकि बीजेपी के आने से वह न केवल सेकुलरिज्म पर खतरा मान रहा है बल्कि एक नागरिक समाज के तौर पर उसके समाज के छिन्न-भिन्न होने की आशंका भी बनी हुई है।

अल्पसंख्यकों को लेकर इस बात का अंदेशा जाहिर किया जा रहा था कि कहीं उसका वोट कांग्रेस और आप के बीच न बंट जाए। लेकिन कांग्रेस के उस तरह से मैदान में नहीं उतरने से यह खतरा टल गया और बताया जा रहा है कि समुदाय ने एकजुट तरीके से आप के पक्ष में मतदान किया है।

एग्जिट पोल के नतीजे बताते हैं कि दिल्ली में सत्ता हासिल करने के बीजेपी के मंसूबों पर पानी फिर गया है। अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। कैबिनेट मंत्रियों से लेकर सूबे के मुख्यमंत्रियों तक और सांसदों से लेकर विधायकों तक सैकड़ों की संख्या में लोगों को राजधानी की सड़कों पर उतार दिया गया था। शायद ही दिल्ली की कोई गली बची हो जिसमें बीजेपी का कोई एक बड़ा नेता न मौजूद रहा हो। लेकिन उसका भी जनता की जेहन पर कोई असर नहीं पड़ा। मुद्दे के नाम पर बीजेपी के पास केवल शाहीन बाग था। लेकिन जिस नजरिये से शाह शाहीन बाग को पेश करना चाहते थे वह न तो उस तरह से खड़ा हुआ और न ही उसका कोई फायदा मिल सका। दरअसल शाहीन बाग अब एक ऐसा बाग बन चुका है जिसमें हर तरह के फूल खिल रहे हैं। इसमें किसी तरह की धार्मिक कट्टरता, नफरत या फिर सांप्रदायिकता के लिए कोई स्थान नहीं बचा है। 

पूरा आंदोलन महिलाओं के नेतृत्व में चल रहा है। और मंच पर भी पूरी तकरीर सेकुलर दायरे में होती है। मौलवी और कठमुल्ला तत्व मंच के नजदीक तक नहीं फटकने दिए जा रहे हैं। ऐसे में अमित शाह शाहीन बाग के जरिये जो संदेश पूरी दिल्ली को देना चाहते थे वह जा ही नहीं पाया। ऐसे में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की उनकी सभी कोशिशें बेकार रहीं। इस तरह से बीजेपी का यह हथियार पूरी तरह से नाकाम साबित हुआ। और आखिर में यह बात साबित हुई कि लोगों के रोजी-रोटी के सवाल सांप्रदायिकता पर भारी पड़ गए हैं। 

इसके साथ ही यह चुनाव केवल दिल्ली को ही नहीं बल्कि देश को भी एक संदेश देने जा रहा है। वह यह कि सांप्रदायिकता से ज्यादा अब लोगों के लिए जन सरोकार से जुड़े मुद्दे अहम हो गए हैं। ऐसे में केंद्र सरकार और खास कर बीजेपी के लिए यह किसी बड़े खतरे की घंटी से कम नहीं है। 2011 से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की आड़ में राजधानी से शुरू हुए बीजेपी-आरएसएस के इस सांप्रदायिक घोड़े की लगाम को दिल्ली के लोगों ने खींच ली है। और आखिर में यह बात समझनी जरूरी है कि अगर एक छोटी राजधानी में अपनी पूरी ताकत झोंकने के बाद भी अगर बीजेपी चुनाव नहीं जीत सकती है तो बड़े राज्यों में उसके हस्र को समझना किसी के लिए मुश्किल नहीं है।     

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