‘करगिल के खलनायक’ ने क्या सचमुच भारत-पाक शत्रुता को खत्म करना चाहा था?

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और अपने दौर के ‘सर्व-शक्तिमान’ परवेज मुशर्रफ का इंतकाल पाकिस्तान से बहुत दूर दुबई के एक अस्पताल में गत 5 फरवरी को हुआ। अच्छी बात है कि मौजूदा पाकिस्तानी हुकूमत ने मुशर्ऱफ के परिवार वालों को मरहूम नेता के शव को पाकिस्तान के कराची में लाकर दफनाने की इजाजत दे दी। हालांकि पाकिस्तानी हुकूमत की नज़र में वह एक भगोड़ा थे।

पाकिस्तानी कोर्ट ने उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो सहित कई लोगों की नृशंस हत्याओं का गुनहगार घोषित किया था। बेनजीर भुट्टो की हत्या के मामले में वह भगोड़ा घोषित हुए थे जबकि कई अन्य हत्याओं और संविधान की अवहेलना जैसे मामलों में उन्हें विशेष अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी। विदेश में रहने और अपने ‘अंतर्राष्ट्रीय संपर्कों’ के कारण वह सजा से बचते रहे और लंबे समय तक दुबई में रहे।

एक दौर में वह अमेरिका के बहुत करीबी माने जाने वाले पाकिस्तानी नेता के तौर पर जाने जाते थे। ‘आतंक के खिलाफ अमेरिका के वैश्विक अभियान’, खासकर अफगानिस्तान और अल-कायदा आदि के मामले में उन दिनों पाकिस्तान एक ‘महत्वपूर्ण पार्टनर’ बनकर उभरा था। 

बीते रविवार उनके इंतकाल की खबर मिलने के बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और कई शीर्ष सैन्य उच्चाधिकारियों ने शोक जताया। परवेज मुशर्रफ 79 वर्ष के थे और पिछले कुछ वर्षों से बीमार चल रहे थे। मुशर्रफ सन् 1943 में अविभाजित भारत में पैदा हुए थे। पुरानी दिल्ली इलाके में उनके खानदान की हवेली थी। वह हवेली आज भी है पर अब वह कई स्वामित्व वाले हिस्सों में बंट गई है और उसमें अलग-अलग परिवार रहते हैं।

राष्ट्रपति के रूप में जब मुशर्रफ दिल्ली आये थे तो वह इस हवेली भी आये और यहां चाय भी पी। दिल्ली की पैदाइश और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते पाकिस्तानी समाज के एक हिस्से ने उन्हें ‘मुहाजिर राष्ट्रपति’ तक कहा। परवेज मुशर्रफ पाकिस्तानियों के बड़े हिस्से की नजर में अगर एक सैन्य-तानाशाह और बेहद ताकतवर राष्ट्रपति रहे तो भारतीयों के लिए वह सन् 1999 के ‘करगिल कन्फ्लिक्ट’ के खलनायक और मुख्य योजनाकार थे।

मुशर्रफ ने 1999 में सैन्य बल से नवाज शरीफ की सरकार पलट दी और अपने आपको पाकिस्तान का ‘मुख्य कार्यकारी’ घोषित किया था। फिर वह राष्ट्रपति घोषित हो गये। 2004 में वह चुनाव के जरिये राष्ट्रपति बने। लेकिन यूनिफार्म नहीं छोड़ी। सेना की सर्वोच्च कमान अपने पास रखी। 2008 में उनके खिलाफ पाकिस्तान में बगावत की आंधी बहने लगी। अंततः इतने ताकतवर नेता को 18 अगस्त 2008 को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।

जहां तक भारत के साथ उनके रिश्तों का सवाल है, उसमें हमेशा करगिल की कटुता बनी रही। माना जाता है कि उन्होंने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भरोसा में लिये बगैर सेना-प्रमुख के तौर पर करगिल में घुसपैठ कराई और इस अभियान में पाक-सैनिकों को गैर-सैन्य आतंकी घुसपैठिये के रूप में इस्तेमाल किया। हालांकि रणनीतिक मामलों के कुछ जानकार मानते हैं कि योजना भले ही मुशर्रफ की थी पर नवाज शरीफ को इसकी जानकारी दी गई थी। 

जुलाई 2001 में वह तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निमंत्रण पर आगरा शिखर वार्ता के लिए भारत आये। वाजपेयी का उन्हें आगरा शिखर वार्ता के लिए भारत दौरे का निमंत्रण देना उपमहाद्वीप के लिए बहुत बड़ी घटना थी। महज दो साल पहले करगिल में युद्ध जैसी स्थिति थी। उस कन्फ्लिक्ट में भारत के 520 से अधिक जवान मारे गये थे। लेकिन मुशर्रफ ‘करगिल कन्फ्लिक्ट’ के उलझाव से दोनों देशों के रिश्तों को बाहर लाना चाहते थे।

कम से कम उन्होंने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक में ऐसा ही लिखा है। उन्होंने इस बारे में जो कुछ लिखा है, उसका लब्बोलुवाब हैः “हमारी (भारत-पाकिस्तान) समस्य़ाओं का कोई सैन्य-समाधान नहीं है। मुझे लगता है, भारत ने भी इस वस्तुस्थिति का एहसास कर लिया है। हमारे दो-पक्षीय मसलों के समाधान का एक ही रास्ता है-राजनयिक संवाद।”

मुशर्रफ ने आगे लिखा कि “2001 में गुजरात के भूकम्प से हुई तबाही की सूचना आने के तत्काल बाद मैंने प्रधानमंत्री वाजपेयी को एक दिन फोन किया और अपनी तरफ से संवेदना प्रकट की। पाकिस्तान की तरफ से हमने राहत-सामग्री भी भिजवाई। इससे दोनों देशो के जमे हुए रिश्ते सचमुच पिघले और वाजपेयी ने मुझे भारत आने का निमंत्रण दिया। इस तरह मैं 14 जुलाई, 2001 को दिल्ली पहुंचा।”

उन्होंने आगे लिखा कि “16 जुलाई को ऐतिहासिक शहर आगरा में हम दोनों की बैठक हुई। एक साझा घोषणापत्र तैयार किया गया, जिसका प्रारूप बहुत अच्छा और संतुलित था। लेकिन लंच के बाद पता चला कि भारत ने उस पर ‘साइन’ करने से मना कर दिया। पता लगाने की कोशिश की- ऐसा क्यों हुआ? हमें बताया गया कि भारत की कैबिनेट ने उसे खारिज कर दिया है। मैने इस सूचना पर अपने अफसरों से पूछा कि आगरा में कैबिनेट कहां थी?” (पृष्ठ-298)।

अच्छी शुरुआत के बावजूद आगरा शिखर वार्ता विफल रही थी। इसके लिए मुशर्रफ ने बाद के दिनों में वाजपेयी सरकार के कुछ ताकतवर मंत्रियों को जिम्मेदार ठहराया था। उनका इशारा लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज की तरफ था। एक पत्रकार के रूप में हमने मुशर्रफ साहब के भारत दौरे के एक हिस्से को ‘कवर’ भी किया था।

मुशर्रफ साहब की शख्सियत, नजरिये और उनके ‘अवदान’ को समझने के लिए उनके कार्यकाल के घटनाक्रम के अलावा उनकी अपनी संस्मरणात्मक किताब In The Line Of Fire (2006) और उनके दौर के बारे में लिखे अन्य दस्तावेज महत्वपूर्ण स्रोत हो सकते हैं।

2004 में भारत में सरकार बदल गयी और वाजपेयी की जगह यूपीए जैसे कांग्रेस-नीत गठबंधन के प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने पद संभाला। उधर, मुशर्रफ भी दोनों देशों के रिश्तों में सुधार के लिए फिर से नयी पहल का इंतजार कर रहे थे। दोनों देशों के नेताओं की मुलाकात से कुछ बेहतर नतीजे आने की संभावना बनी।

यह बात सही है कि दोनों देशों के रिश्तों में निर्णायक सुधार के लिए 2004 से 2007 का समय बहुत अनुकूल था। इसी दौर में, खासतौर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में एक ऐसा समय आया, जब लगा कि भारत-पाकिस्तान में कोई बड़ा समझौता हो जायेगा और सरहद पर शांति स्थायी हो जायेगी।

वह महज एक भाषण नहीं था, जब मनमोहन सिंह ने फिक्की के एक समारोह में कहा थाः “मैं ऐसे दिन का सपना देख रहा हूं जब कोई व्यक्ति अमृतसर में नाश्ता, लाहौर में लंच और काबुल में डिनर करेगा। हम चाहते हैं कि हमारे पौत्र ऐसे ही माहौल मे रहें”। (The Accidental Prime Minister by Sanjay Baru, page-178).

मुशर्रफ और सिंह की पहली मुलाकात सितम्बर, 2004 में अमेरिका में हुई, जब दोनों नेता संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन में शामिल होने न्यूयार्क गये। दोनों नेता न्यूयार्क के रूजवेल्ट होटल में 24 सितम्बर को मिले। बहुत अच्छी बातचीत रही।

लेकिन पाकिस्तान में मुशर्रफ पर कई तरफ से दबाव भी पड़ रहे थे कि नियंत्रण रेखा को लेकर कोई भी समझौता हड़बड़ी में नहीं किया जाना चाहिए। न्यूयार्क से इस्लामाबाद जाने पर परवेज मुशर्ऱफ की तरफ से आये कुछ बयानों से इस बात का साफ संकेत मिला था। 

उपलब्ध तथ्यों की रोशनी में मुझे लगता है, ‘करगिल कन्फ्लिक्ट’ के इस योजनाकार ने राष्ट्रपति बनने के बाद भारत-पाकिस्तान रिश्तों को बेहतर बनाने के भारतीय़ प्रयासों को गंभीरता और उत्साह से लेना शुरू किया था। आगरा शिखर वार्ता की विफलता उनके लिए बड़ा धक्का थी। लेकिन उन्होंने आस नहीं खोई। भारत में सत्ता-परिवर्तन हुआ और मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री बने तो दोनों तरफ से गर्मजोशी दिखाई गयी।

न्यूयार्क मुलाकात के बाद दोनों नेताओं की एक और बहुत महत्वपूर्ण मुलाकात हवाना में आयोजित गुट निरपेक्ष देशों के शिखर सम्मेलन में हुई। वहां बहुत सार्थक बातचीत हुई। उसी के आसपास दोनों देशों के मसलों के समाधान के लिए ‘चार सूत्री फार्मूले’ की चर्चा ने जोर पकड़ा। दोनों पक्षों की तरफ से इस पर सहमति बनती नजर आई। चार-सूत्री फार्मूले में समस्या-समाधान की संभावना जरूर थी। पर विडम्बना ये रही कि पाकिस्तान में उसके लिए बहुत अनुकूल माहौल नहीं था।

मुशर्रफ में उसे लेकर उत्साह तो था लेकिन वह लोकतांत्रिक-मिज़ाज के शासक नहीं थे। दूसरी तरफ, भारत में भी सत्ता-संरचना के अंदर एक ऐसी ‘लाबी’ हमेशा सक्रिय रहती है जो किसी कीमत पर दोनों देशों के रिश्तों में सुधार नहीं होने देती। जहां तक उन दिनों की बात है, पाकिस्तान के हालात भी धीरे-धीरे और खराब हो रहे थे।

आर्थिक संकट बढ़ रहा था। इसलिए मुशर्रफ के सामने घरेलू स्तर पर मुश्किलें खड़ी हो गईं। उन्हें वह सही ढंग से संबोधित नहीं कर सके। अवाम में मुशर्रफ का विरोध लगातार बढ़ता रहा, जिसे दबाने के लिए उन्होंने निरंकुश कदमों और तरह-तरह के षड्यंत्रों का सहारा लिया। ऐसे में भारत-पाकिस्तान के रिश्तों के सामान्यीकरण के सिलसिले को बढाना उनके लिए असंभव होता गया।

मुशर्रफ निजी और सियासी जीवन में ‘साहसी’ तो थे पर उनका ‘साहस’ कब दुस्साहस में तब्दील होकर उनको और दूसरों की बर्बादी का कारण बन जायेगा; शायद इसका आत्मालोचक-विवेक उनमें नहीं था। क्योंकि वह मिजाज, प्रशिक्षण और अनुभव के स्तर पर एक सैन्य अफसर थे, जिसकी पृष्ठभूमि एक प्रशिक्षित कमांडो की थी। समाज और राजनीति का उनके पास जमीनी अनुभव नहीं था। वह ‘विजन’ नहीं था, जो किसी मुल्क के राष्ट्राध्यक्ष के लिए जरूरी होता है।

शायद, मुशर्रफ अपनी इन्हीं कुछ सीमाओं के कारण राजनीति में कामयाब नहीं हुए। अंतत: वह अपने दुस्साहस के ही शिकार हुए और पाकिस्तान की सियासत के वह एक बंद अध्याय बन गये। पर अपने अच्छे-बुरे कदमों के चलते वह पाकिस्तान और भारत के लोगों की यादों से गायब नहीं होंगे।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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