पत्थर खदानों में सिलिकोसिस के बीच टूटते सपने

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से 100 किमी दूरी पर बसे गंजबासौदा क्षेत्र मे पत्थर खदानों की बड़ी संख्या है। अनुसूचित जाति, जनजातीय बाहुल्य बुनियादी सुविधाओं से वंचित यहां के गांवों मे लोगों के लिए टीबी और सिलिकोसिस जैसी जानलेवा बीमारी के बावजूद पत्थर खदान ही जीने का प्रमुख जरिया हैं। मनरेगा की कम मजदूरी और नियमित काम न मिलने की दिक्कतों ने यहां की तंगी को अधिक बढ़ाया है। पत्थर खदान से पैदा हुई बीमारियों के कारण मजदूर जहां कर्ज से घिरते जा रहे हैं वहीं उनकी नई युवा पीढ़ी के भविष्य और सपने भी इन्हीं पत्थर खदानों के बीच टूट रहे हैं।

गंजबसौदा तहसील अंतर्गत ग्राम आबुपुर कुचौली के रहने वाले गोलू अहिरवार 20 वर्ष के युवा हैं।  परिवार की आर्थिक तंगी के बाद भी इन्होंने स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की। वे शिक्षक बनना चाहते हैं लेकिन बीएड करने के लिए समय और पैसे की तंगी बनी हुई है। वे परिवार में 5 भाई बहनों के बीच सबसे बड़े हैं इसलिए कोई और रोजगार न मिलता देख खुद भी पत्थर खदान मे मजदूरी करने लगे हैं। उनके अनुसार “जब से होश संभाला है पढ़ाई के साथ पत्थर खदान में काम कर रहे हैं। इससे बस गुजारा ही होता है, मजदूरी के 200 रु तो घर के राशन पानी मे ही खर्च हो जाते हैं ऐसे मे अपने सपने कहाँ से पूरा करें अब तो सोचता हूँ बस पथरा के काम छोड़कर कोई भी दूसरा काम मिल जाए।

कुछ यही बेबसी भगवान सिंह जाटव की भी है। 18 वर्ष  के भगवान ने 9 तक पढाई के बाद पत्थर खदान की मजदूरी पकड़ ली। पिता है नहीं सो बड़े भाई ही घर का खर्चा चलाते हैं। उनके गाँव कुचौली में 5 सिलकोसिस पीड़ित मजदूर हैं जिन्हें देखकर पत्थर खदान मे काम करने से डर तो लगता है लेकिन करें भी क्या गाँव में और न दूजा काम है न ही खेती-किसानी। भविष्य मे कुछ बनने के सपने के बारे में क्या सोचें, ओपन स्कूल से 10 वीं का फार्म भरने जा रहा हूँ शायद उतना पढ़ने से कोई और अच्छा काम ही मिल जाए।

विदिशा जिला पत्थर खदान मजदूर संघ के अध्यक्ष संतोष चढ़ार बताते हैं कि उनके जिले में पत्थर खदान मजदूरों की आर्थिक स्थिति अत्यंत खराब है साथ ही उनमे से बड़ी संख्या मे भूमिहीन होने से खेती का भी कोई विकल्प नहीं है। गाँव में मनरेगा का काम न के बराबर है जिससे मजदूर टीबी और सिलिकोसिस रोग के बीच जान गँवाने को मजबूर हैं। यहाँ बेरोजगारी के कारण किशोर उम्र के बच्चे भी मजदूरी को विवश हो रहे हैं बावजूद इन सबके मप्र सरकार सिलिकोसिस पुर्नवास नीति घोषित नहीं कर रही है।

यह दुनिया भर में जाहिर है कि “सिलिकोसिस” फेफड़ों की एक गंभीर और खतरनाक बीमारी हैं जिसमें सिलिका के बिलकुल महीन कण साँस के सहारे फेफड़ों में जाते हैं और फेफड़ों को अत्यधिक नुकसान पहुँचाते हैं| सिलिकोसिस की यह बीमारी पत्थर के खनन, रेत-बालू के खनन, पत्थर तोड़ने के क्रेशर, कांच-उद्योग, मिट्टी के बर्तन बनाने के उद्योग, स्लेट-पेंसिल बनाने वाले उद्योग, पत्थर को काटने और रगड़ने जैसे उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों तथा इस प्रदूषित वातावरण के संपर्क में रहने वाले परिवारों को होती है। मध्यप्रदेश के मंदसौर, धार, झाबुआ, अलीराजपुर, पन्ना, विदिशा, छतरपुर, बैतूल, मंदसौर, भिंड, शिवपुरी आदि जिलों में सिलिकोसिस का प्रभाव अधिक देखने को मिलता है।

पत्थर खदान मजदूरों के बीच कार्यरत संस्था प्रसून ने अपने हालिया अध्ययन मे पाया कि गंजबसौदा क्षेत्र मे बड़ी संख्या मे सहरिया और अनुसूचित जाति वर्ग के मजदूर पत्थर खदानों मे कार्यरत हैं। इन मजदूरों मे सिलिकोसिस के लक्षण भी हैं किन्तु विदिशा जिले मे यह बीमारी नोटिफ़ाइ नहीं होने के कारण जांच मे इन्हें टीबी रोग से ग्रसित ही बताया जाता रहा है। यहां अधिकतर खनन स्थल पंजीकृत नहीं हैं जिसकी वजह से सिलिकोसिस पीड़ितों को चिन्हित और उनमें सिलिकोसिस बीमारी की पुष्टि करने में दिक्कत होती है।

वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त जांच समिति की रिपोर्ट के अनुसार यहां लगभग 100 खनन स्थल हैं और इन स्थलों पर प्रति गांव औसतन 150 मजदूर काम कर रहे हैं जिनमें बच्चे भी शामिल हैं जो पत्थरों के ब्लास्टिंग, कटिंग और आकार देने का काम करते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार यहां सिलिकोसिस पीड़ितों का स्थानीय स्वास्थ्य विभाग द्वारा टीबी रोगियों के रूप में इलाज किया जाता है। इस प्रकार सही बीमारी के इलाज न मिलने के परिणामस्वरूप गरीबी से घिरे मजदूर परिवार कर्ज के कुचक्र मे भी फँसते जा रहे हैं। प्रसून के अध्ययन मे शामिल 82 प्रतिशत मजदूर परिवारों ने बताया कि उन्हें सिलिकोसिस से पीड़ित होने के कारण 50 हजार से अधिक रुपए का कर्ज लेना पड़ा है जिसमे से 90 प्रतिशत परिवार अभी भी किसी कदर मज़दूरी करके कर्ज चुका रहे हैं। इस तरह परिवार के कमाने वाले सदस्यों की बीमारी के साथ ही परिवार पर बढ़ते इस आर्थिक भार का सर्वाधिक खामियाजा नई पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है जहां वे अपनी पढ़ाई और सपने खोने को मजबूर हैं।

(रामकुमार विद्यार्थी पर्यावरण व युवा मुद्दों से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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