मोदी के 9 साल के शासनकाल में बैंकों के 25 लाख करोड़ रु के लोन बट्टे खाते में डाल दिए गये

ये हैरतअंगेज खबर गुजरात के सूरत शहर के सामाजिक कार्यकर्ता संजय एझावा द्वारा सूचना के अधिकार (आरटीआई)  के माध्यम से भारतीय रिजर्व बैंक से हासिल की गई है। इस बारे में 17-18 अक्टूबर को दो मीडिया समूह द फ्री प्रेस जर्नल और द ब्लंट टाइम्स ने खबर ब्रेक कर बताया है कि एनडीए सरकार के दो कार्यकाल के दौरान (2014-2023) उनके द्वारा भारत में सार्वजनिक बैंकों के माध्यम से 10.41 लाख करोड़ रुपये एवं शेड्यूल वाणिज्यिक बैंकों के माध्यम से 14.53 लाख करोड़ रुपये के अतिरिक्त ऋणों को राइट-ऑफ करने की अनुमति दी गई। इन दोनों बट्टे खाते में डाल दिए गये कर्जों का कुल योग आश्चर्यजनक रूप से 24.95 लाख करोड़ रुपये बैठता है। सबसे हैरत की बात यह है कि इस बारे में स्थापित राष्ट्रीय मीडिया घरानों अथवा फाइनेंशियल न्यूज़ आउटलेट्स की ओर से कोई जानकारी नहीं आ रही है।

आरटीआई एक्टिविस्ट संजय एझावा द्वारा दायर सूचना के अधिकार (आरटीआई) आवेदन के तहत हासिल इस जानकारी से बड़े पैमाने पर वित्तीय फेरबदल का खुलासा हुआ है। अभी तक सार्वजनिक आलोक में 10 से लेकर 14 लाख करोड़ रुपयों के राइट ऑफ की बात संज्ञान में थी, लेकिन इस खुलासे से स्पष्ट होता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछले नौ वर्षों के दौरान भाजपा सरकार ने करीब 25 लाख करोड़ रुपये के चौंका देने वाले ऋण माफ कर दिए हैं। यह जानकारी बेहद हैरान करने वाली है और इसको लेकर बहस और चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है।

इतनी विशाल रकम को राइट ऑफ करने की खबर ने भारतीय आर्थिक परिदृश्य को हिलाकर रख दिया है, जिससे महत्वपूर्ण प्रश्न और चिंताएं खड़ी होती हैं। यहां पर इस बात को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण होगा कि आरबीआई के खुलासे में सिर्फ सांख्यिकीय जानकारी को ही शामिल किया गया है, जबकि इसके डिफॉल्टरों के नामों का खुलासा नहीं किया गया है। इसके बावजूद इसे भारत के वित्तीय इतिहास में अब तक सबसे बड़ा कर्ज माफ़ी धनराशि बताया जा रहा है।

एनडीए बनाम यूपीए काल 

मई 2014 से लेकर अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए के दो कार्यकाल में जितनी रकम बट्टे खाते में डाली जा चुकी है, वह पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के यूपीए-1 एवं यूपीए-2 के (2004-2014) के संयुक्त कार्यकाल के दौरान बट्टे खाते में डाली गई राशि से करीब 810% अधिक है।

एनडीए के 9 वर्षों की तुलना में यूपीए सरकार के दौरान माफ किए गए कर्ज का ब्यौरा इस प्रकार से है- 2004 से 2014 तक 10 वर्षों के अपने शासनकाल के दौरान यूपीए सरकार के दौरान उसके द्वारा सार्वजनिक बैंकों के माध्यम से 1.58 लाख करोड़ रुपये एवं शेड्यूल वाणिज्यिक बैंकों के माध्यम से 2.17 लाख करोड़ रुपये, अर्थात कुल 3.76 लाख करोड़ रुपये को राइट-ऑफ करने की मंजूरी दी गई थी।

जो बात इस तुलनात्मक अध्ययन को और ज्यादा हैरतअंगेज बनाती है वह है सालाना ऋण बट्टे खाते में डाली जाने वाली धनराशि। यूपीए सरकार ने अपने 10 वर्षों के कार्यकाल के दौरान सालाना औसतन 37,600 करोड़ रुपये माफ किए थे, वहीं एनडीए सरकार-1 एवं एनडीए सरकार-2 ने सालाना औसतन 2.77 लाख करोड़ रुपये तक की कर्ज माफ़ी की है। यह बताता है कि कितनी तेजी से भारतीय अर्थव्यवस्था और बैंकिंग प्रणाली ध्वस्तीकरण की ओर बढ़ चुकी है।

बट्टे खाते में डाले गए 25 लाख करोड़ रुपये का बोझ बड़े पैमाने पर आम नागरिकों और किसानों पर पड़ना स्वाभाविक है, क्योंकि कॉर्पोरेट जगत की तुलना में उनके द्वारा कम ऋण लिया जाता है। अधिकांश मध्य वर्ग और ग्रामीण आबादी तो बैंकों से कर्ज ही नहीं लेती, बल्कि अपनी बचत की अधिकांश जमापूंजी बैंकों में ही निवेश करती है। इस राइट-ऑफ के प्रमुख लाभार्थी वे पूंजीपति और कॉर्पोरेट घराने हैं, जिन्होंने बड़ी मात्रा में बैंकों से उधार लेकर पैसे का गबन किया, और ऑफ-शोर खातों में रकम डालकर बाद में देश छोड़ सेफ-हेवेन की ओर पलायन कर लिया है।

भारतीय रिज़र्व बैंक ने ऋणदाताओं के आंकड़ों को इकट्ठा करने, संग्रहीत करने और प्रसारित करने के लिए सेंट्रल रिपॉजिटरी ऑफ़ इनफार्मेशन ऑन लार्ज क्रेडिट्स (सीआरआईएलसी) की स्थापना की है। जून 2023 तक, सीआरआईएलसी ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि शेड्यूल वाणिज्यिक बैंकों द्वारा 5 करोड़ रुपये से अधिक के ऋण वाले 3,973 खातों को बट्टे खाते में डाल दिया है। इतनी बड़ी संख्या में इतनी बड़ी रकम वाले खातों को बट्टे खाते में डाले जाने से मुद्दे की भयावहता का संकेत मिलता है।

एनडीए शासनकाल के नौ वर्षों की अवधि में कुछ वसूली भी हुई है। शेड्यूल वाणिज्यिक बैंकों द्वारा बट्टे खाते में डाले गए 25 लाख करोड़ रुपये में से मात्र 2.5 लाख करोड़ रुपये (कुल रकम का 10%) वसूला जा सका है। ऐसे में महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि आखिर भारत सरकार अभी तक सिर्फ 10% कर्ज को ही वसूल कर पाने में क्यों कामयाब रह सकी है? अपने दोनों कार्यकाल में भाजपा को पूर्ण बहुमत हासिल रहा है, ऐसे में उसके पास क्षेत्रीय दलों के माध्यम से कॉर्पोरेट घरानों का कोई दबाव भी नहीं था, फिर भी उसके प्रयास प्रभावी क्यों साबित नहीं रहे हैं?

ये आंकड़े एक चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं- कि उद्योगपतियों द्वारा बड़े पैमाने पर धन को विदेशों में हस्तांतरित किया जा चुका है, और इन ऋणों की वसूली के लिए किये गये सरकारी प्रयास कहीं न कहीं सफल नहीं रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या देश को सरकार के समर्थन के चलते इतने बड़े नुकसान को झेलना होगा? जब तक देश में सभी लोग पूरी तरह से जागरूक और सक्रिय नहीं होंगे, भारत को इस प्रकार के वित्तीय झटकों को एक के बाद एक झेलते रहने की विवशता के बीच जीना होगा।

सोशल मीडिया प्लेटफार्म X पर द फ्री प्रेस जर्नल की खबर को जारी करते हुए संदीप मनुधाने कहते हैं:

“मोदी सरकार ने कुल कितने कर्ज को राईट ऑफ किया?

250,00,00,00,00,000 रुपये (25 लाख करोड़ रुपये)

द फ्री प्रेस जर्नल ने आज अपनी रिपोर्ट में कहा:

1) 2014 से आज तक सार्वजनिक बैंकों और अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों द्वारा कुल 25 ट्रिलियन रुपये बट्टे खाते में डाले गए।

2) यह राशि संयुक्त यूपीए 1+2 से 810% अधिक है।

3) बट्टे खाते में डाले गए अधिकांश ऋण बड़ी राशि के हैं।

4) लगभग 4000 खातों में 5 करोड़ रुपये से अधिक का ऋण माफ किया गया।

5) रिकवरी क्या थी? सिर्फ 10 फीसदी यानी 2.5 ट्रिलियन रुपये।

इसलिए न्यूनतम शेष शुल्क का भुगतान करते रहें, क्योंकि बड़ी मछलियां लूट कर भाग जाती हैं और भारत सरकार और आरबीआई चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं। आख़िरकार, चुनाव अब काफ़ी महंगे हो चले हैं।)

*सभी आंकड़े पूर्णांकित। 1 लाख करोड़ = 1 ट्रिलियन”

बट्टा खाता (राइट-ऑफ) क्या है?

यहां पर राइट ऑफ के बारे में थोड़ी जानकारी ले लेते हैं। राइट ऑफ (बट्टे खाते) वाले ऋण उसे कहते हैं जिसे देनदार से वसूला नहीं जा सकता है को बेड डेब्ट कहा जाता है। एकाउंटिंग (लेखांकन) के प्रावधान के तहत, व्यवसाय अप्राप्य ऋण वाली राशि को बैलेंस शीट में “प्राप्य खाते” वाली श्रेणी में डाल देते हैं। फिर बैलेंस शीट को संतुलित करने के लिए उतनी ही राशि की डेबिट प्रविष्टि “संदिग्ध खातों के लिए भत्ता” कॉलम में दर्ज कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को अशोध्य ऋण (bad debts) को बट्टे खाते में डालना कहा जाता है।

बैंकों द्वारा कभी भी बेड डेब्ट को बट्टे खाते में डालने को प्राथमिकता नहीं दी जाती है, क्योंकि उनके ऋण पोर्टफोलियो ही तो उनके प्राथमिक एसेट एवं भविष्य के राजस्व के मुख्य स्रोत होते हैं। हालांकि, ऐसे कर्ज, जिन्हें वसूलना संभव नहीं है या जिन्हें एकत्र करना पूरी तरह से नामुमकिन है- ऐसे ऋण बैंकों के वित्तीय विवरणों पर बेहद बुरा प्रभाव डालते हैं और ऐसे में संसाधनों को ज्यादा उत्पादक गतिविधि से हटा सकते हैं।

बैंकों द्वारा राइट-ऑफ का इस्तेमाल, अपनी बैलेंस शीट से ऋण हटाने एवं अपनी समग्र कर देयता (tax liability) को कम करने के लिए उपयोग में लाया जाता है।

इस प्रकार निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि बैंकों में इतने बड़े पैमाने पर राइट-ऑफ, एनपीए कर भारतीय बैंकों की बाहरी छवि को दुरुस्त कर दिया गया है। केंद्र सरकार द्वारा हाल के वर्षों में 2 लाख करोड़ रुपये के पूंजी संचार एवं बैंकों के विलय के माध्यम से साख को बचाने की कोशिश की गई है, और अब एक बार फिर से बैंकों की बैलेंस शीट में लाभार्जन को अंकित किया जा रहा है, जिससे लग सकता है कि बैंकों की माली हालत पहले की तुलना में काफी बेहतर हो गई है।

लेकिन इसी के साथ कई आर्थिक विशेषज्ञ आगाह कर रहे हैं कि, कहीं इसके पीछे एक बार फिर बड़े पैमाने पर कॉर्पोरेट घरानों को फिर से कर्ज बांटने और कुछ वर्षों बाद कर्ज अदायगी से मुकर जाने की स्थिति में और भी बड़े पैमाने पर बेड डेब्ट (bad debts) के शिकार बैंकों के लिए पानी सिर से ऊपर निकल सकता है। 

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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