जोशीमठ पर रिपोर्ट तो आई, वह भी देर से; ऊपर से कर दी गई पूरी लीपापोती

देहरादून। भारी तबाही के बाद बरसात लगभग विदा हो चुकी है और इसी बीच वे आठ जांच रिपोर्ट भी सार्वजनिक हो चुकी हैं, जो विभिन्न संस्थानों की ओर से जोशीमठ में धंसाव के बाद करवाई गई थी।

इन सभी रिपोर्टों में एक खास बात यह है कि जिस एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगाड परियोजना को जोशीमठ के लोग और स्वतंत्र भूवैज्ञानिकों की टीम ने जोशीमठ धंसाव के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार माना था, उसे किसी भी रिपोर्ट में किसी भी स्तर पर इस धंसाव के लिए जिम्मेदार नहीं माना गया है।

कुछ रिपोर्ट में एनटीपीसी का जिक्र तो है लेकिन जोशीमठ शहर के ठीक नीचे से गुजर रही इस परियोजना की टनल का इस भूसांव से कोई संबंध हो सकता है, इस पर सभी रिपोर्ट मौन हैं। एक तरह से इन सभी वैज्ञानिक रिपोर्ट में एनटीपीसी को एक तरह से क्लीनचिट दे दी गई है।

यही कारण है कि एनटीपीसी के हौसले एक बार फिर से बुलंद हैं। और उसने नैनीताल हाईकोर्ट में अपना काम फिर से शुरू करने और इस काम को पूरा करने के लिए डायनामाइट विस्फोट करने की अनुमति मांगी है। नैनीताल ने इस तरह की अनुमति का देने या न देने का मामला ‘नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी’ (एनडीएमए) पर छोड़ दिया है।

जानकार मानते हैं कि एनडीएमए ने सभी वैज्ञानिक रिपोर्टों के आधार पर जोशीमठ भूधंसाव को लेकर जो निष्कर्ष रिपोर्ट बनाई है, उससे अनुमान लगाया जा रहा है कि एनडीएमए की ओर से एनटीपीसी को ब्लास्ट करने की अनुमति देने में किसी तरह की बाधा नहीं आने वाली है।

इस वर्ष जनवरी महीने के शुरुआत से ही जोशीमठ में भूधंसाव शुरू हो गया था। जमीन में चौड़ी दरारें आने के साथ ही कई मकान जमींदोज हो गये थे। और कई दूसरे मकानों में दरारें आने से वे रहने के लिए असुरक्षित हो गये थे। मीडिया में लगातार कवरेज होने के बाद कई वैज्ञानिकों के दल भी जोशीमठ गये थे।

जोशीमठ के लोगों का मानना है कि यह भूधंसाव एनटीपीसी की टनल के कारण हो रहा है। इस संभावना को सरकारी एजेंसियां शुरुआती दौर से ही नकारती रही। बाद में आठ वैज्ञानिक संस्थानों को अलग-अलग इस भूसांव के कारणों की जांच करने के लिए कहा गया।

जिन संस्थानों को जांच का काम सौंपा गया, उनमें ‘केन्द्रीय भवन अनुसंधान संस्थान रुड़की’ ‘केन्द्रीय भूजल बोर्ड’ ‘जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ ‘इसरो’ ‘आईआईटी रुड़की’ ‘नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट हैदराबाद’ ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी रुड़की’ और ‘वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी देहरादून’ शामिल थे।

इन सभी संस्थानों ने अपनी-अपनी रिपोर्ट अप्रैल 2023 में ही सरकार को सौंप दी थी। लेकिन अब तक सरकार इन रिपोर्टों को सार्वजनिक करने से बचती रही। अप्रैल के महीने में ही जोशीमठ संघर्ष समिति के प्रतिनिधि मंडल ने देहरादून में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से मुलाकात की थी और इन सभी रिपोर्टों को सार्वजनिक करने के लिए कहा था। उस समय मुख्यमंत्री ने रिपोर्ट जल्द से जल्द सार्वजनिक करने का आश्वासन भी दिया था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

आखिरकार हाईकोर्ट के आदेश के बाद ये सभी रिपोर्ट उत्तराखंड डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी की साइट पर ऑनलाइन की गई। हाई कोर्ट में जोशीमठ को लेकर एक्टिविस्ट पीसी तिवारी ने एक याचिका दायर की थी। इस याचिका में आठ संस्थानों की जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग भी की गई थी। उम्मीद की जा रही थी कि इन जांच रिपोर्टों में जोशीमठ भूधंसाव के लिए अन्य कारणों के अलावा एनटीपीसी को भी जिम्मेदार माना जाएगा।

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जोशीमठ के लोगों के साथ ही भूधंसाव शुरू होने के बाद जोशीमठ का दौरा करने वाली स्वतंत्र भूवैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की टीम ने साफतौर पर जोशीमठ भूधंसाव के लिए जोशीमठ और उसके आसपास हो रहे एनटीपीसी के निर्माण कार्यों को मुख्य रूप से जिम्मेदार ठहराया था। लेकिन वैज्ञानिक संस्थानों की किसी भी रिपोर्ट में ऐसा कोई संकेत नहीं दिया गया है।

जोशीमठ के ठीक नीचे जेपी कॉलोनी के पास जनवरी के महीने में करीब 15 दिन तक लगातार गंदला पानी निकलता रहा था। लोगों का मानना था कि ऋषिगंगा में 7 फरवरी, 2021 की आई बाढ़ का पानी और मलबा तपोवन के पास से एनटीपीसी की निर्माणधीन टनल में घुस गया था। इस घटना में टनल में मौजूद सैकड़ों मजदूरों की मौत हो गई थी। जोशीमठ के लोगों का कहना था कि यह पानी उसी टनल में भरा था, जो भूधंसाव की घटना के बाद रिसने लगा था। लेकिन इन जांच रिपोर्ट में इन संभावनाओं को पूरी तरह से खारिज कर दिया गया है और कहा गया है कि यह भूमिगत पानी था, न कि टनल में जमा हुआ पानी।

जनचौक ने इन जांच रिपोर्ट का अध्ययन करने का प्रयास किया। जिनमें कुछ प्रमुख बातें निकलकर सामने आई हैं। ‘केन्द्रीय भवन अनुसंधान संस्थान’ ने जोशीमठ में घरों में आई दरारों को तीन हिस्सों में बांटा है। छतों और बीम पर आई दरारें जो शुरू में चौड़ी और आगे पतली होती गई हैं। दरवाजे या खिड़कियों से शुरू हुई दरारें जो पहले पतली हैं और आगे चलकर इनकी भी चौड़ाई बढ़ गई है। तीसरी तरह की दरारें फर्श या स्लैब की दरारें हैं, जो शुरुआत में चौड़ी और आगे कम चौड़ी हैं।

चौथी तरह की दरारें चिनाई की जोड़ों पर क्षैतिज दरारें हैं और पांचवीं तरह की दरारें उन दीवारों पर चिन्हित की गई जो भार वहन करती हैं। भूधंसाव और दरारें आने के कारण क्षतिग्रस्त हुए मकानों को ‘केन्द्रीय भवन अनुसंधान संस्थान’ ने चार हिस्सों में बांटा है।

रिपोर्ट कहती है कि जोशीमठ के भूधंसाव प्रभावित क्षेत्र में सिर्फ एक प्रतिशत मकान ऐसे हैं जो पूरी तरह ध्वस्त हो चुके हैं या उन्हें पूरी तरह से ध्वस्त करने की जरूरत है। 20 प्रतिशत मकानों में बड़ी दरारें हैं और ये मकान लोगों के रहने के लिए असुरक्षित हैं। रिपोर्ट में 42 प्रतिशत मकानों के मूल्यांकन की जरूरत बताई गई है। यानी कि ये घर लोगों के रहने के लिए सुरक्षित हैं या नहीं इसकी जांच की जानी है। 37 प्रतिशत मकानों को रहने के लिए पूरी तरह सुरक्षित बताया गया है। रिपोर्ट कहती है कि जोशीमठ में 99 प्रतिशत निर्माण नियमों का उल्लंघन कर किये गये हैं।

केन्द्रीय भूजल बोर्ड ने नालों और झरनों के प्रवाह के बंद हो जाने को जोशीमठ भूधंसाव का प्रमुख कारण माना है। 65 से 80 मीटर बोरिंग करके लगाये गये हैंडपंपों को भी इस भूधंसाव का कारण माना गया है। रिपोर्ट कहती है कि जोशीमठ में बड़ी संख्या में होटल और होमस्टे स्प्रिंग जोन में बनाये गये हैं, याने कि ऐसी जगहों पर बनाये गये हैं, जहां पहले झरने और जल प्रवाह तंत्र था।

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‘केन्द्रीय भूजल बोर्ड’ की रिपोर्ट बताती है कि 8 ऐसे झरनों को चिन्हित किया गया है, जिनका प्रवाह अब बंद हो गया है। ‘जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ की रिपोर्ट में जोशीमठ की दरारों को लोकल फेनॉमिनन करार दिया गया है कहा गया है। इसके साथ ही जोशीमठ की ढलानों पर बनाये गये बहुमंजिला इमारतों को भी इस घटना का कारण माना गया है और कहा गया है कि ढलानों पर बहुत ज्यादा वर्टिकल लोड इस धंसाव का कारण हो सकता है। इस रिपोर्ट में भी एनटीपीसी या जोशीमठ के नीचे से गुजर रही टनल का कोई जिक्र नहीं है।

‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग’ (इसरो) की रिपोर्ट में तिथिवार बताया गया है कि जोशीमठ में कब किस तरह की हलचल देखी गई। रिपोर्ट कहती है कि यह भूधंसाव अक्टूबर 2022 से शुरू हुआ। जबकि वास्तव में जोशीमठ के छावनी बाजार इलाके में मई 2022 में ही दरारें देखी जाने लगी थी, और कई लोग अपने घर छोड़कर दूसरी जगहों पर चले गये थे।

रिपोर्ट के अनुसार 9 नवंबर 2022 को अचानक दरारों में बढ़ोत्तरी हुई और 21 नवंबर 2022 से 19 जनवरी 2023 तक लगातार हलचल होती रही। आईआईटी रुड़की के जांच दल ने जोशीमठ में भूसंरचना को इस भूधंसाव के लिए जिम्मेदार माना है। रिपोर्ट कहती है कि बजरी, मिट्टी और बोल्डर के मिश्रण वाली यह जमीन कमजोर है। यहां बड़े-बड़े बोल्डर हैं, जो काफी ढीले हैं यानी कभी भी छिटक सकते हैं।

होटलों और घरों के अपशिष्ट को भी आईआईटी रुड़की ने जोशीमठ भूधंसाव के लिए जिम्मेदार ठहराया है। रिपोर्ट में पूरे जोशीमठ क्षेत्र को उच्च जोखिम जोन, मध्यम जोखिम जोन और निम्म जोखिम जोन में बांटा गया है।

‘नेशनल जियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट हैदराबाद’ और ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी रुड़की’ की रिपोर्ट में भी इस भूधंसाव के लिए नाले और झरने गायब होने, जल निकासी के प्राकृतिक प्रवाह के साथ छेड़छाड़, अनियोजित निर्माण आदि को जिम्मेदार माना गया है। ‘वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी’ की रिपोर्ट में साफ तौर पर यह भी कहा गया है कि राज्य के अन्य स्थानों पर भी इस तरह की घटनाएं हो सकती हैं, इसलिए इस तरह की संभावना वाली सभी जगहों पर नजर रखी जानी चाहिए।

इन जगहों के डेटा को नियमित रूप से अपडेट करने की भी सलाह दी गई है। रिपोर्ट में इस तरह के भूधंसाव को बेहद गंभीर तो माना गया है, लेकिन इस रिपोर्ट में भी एनटीपीसी और उसकी टनल को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की गई है।

जोशीमठ संघर्ष समिति के संयोजक अतुल सती ने जनचौक के साथ बातचीत में बताया कि इन रिपोर्टों में कुछ भी नया नहीं है। सभी वही बातें कही गई हैं, जो सरकारी एजेंसियां पहले से कह रही थीं। नया सिर्फ यह है कि पुरानी मौखिक बातों को साइंटिफिक एंगल में एडजस्ट कर दिया गया है।

उनका कहना है कि ‘जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया 2005’ की अपनी रिपोर्ट में तपोवन-विष्णुगाड परियोजना को बंद करने की बात कह चुकी है, लेकिन अब अपनी पिछली रिपोर्ट से उलट रिपोर्ट दी गई है। इससे आशंका है कि इन वैज्ञानिक संस्थानों पर कहीं कोई दबाव बनाया गया है।

इस बीच देहरादून स्थित दून लाइब्रेरी में जोशीमठ और उत्तराखंड के अन्य हिस्सों में हो रहे भूधंसाव और भूस्खलन के आलोक में ‘पारिस्थितिकी, संस्कृति और सतत विकास’ विषय पर आयोजित एक सेमीनार में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् डॉ. रवि चोपड़ा ने स्पष्ट रूप से कहा कि अन्य क्षेत्रों की तुलना में पर्वतीय क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं।

उत्तराखंड में जल्दबाजी में बुनियादी ढांचे के विकास और पर्यटन पर जोर देने से राज्य में जोखिम बढ़ गया है।

(त्रिलोचन भट्ट वरिष्ठ पत्रकार हैं और उत्तराखंड में रहते हैं।)

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