लखनऊ पुलिस पर है देश भर की नज़र

लखनऊ पुलिस पर वैसे भी सबकी नजर रहती है, पर अब और रहेगी। एक तो राजधानी की पुलिस होने के कारण दूसरे नए-नए कमिश्नर सिस्टम के अंतर्गत पुलिस कमिश्नर का पद सृजित होने के कारण। लखनऊ पुलिस में नियुक्त कुछ अधिकारियों को यह गुमान रहता है कि वे मुख्यमंत्री और पंचम तल के नज़दीक रहते हैं। पंचम तल मुख्यमंत्री सचिवालय का कार्यालय होता था, अब बिल्डिंग बदल गयी है पर तल क्या है मुझे नहीं मालूम। पंचम तल के कृपा पात्र कुछ अधिकारी 1, तिलक मार्ग को भी कभी-कभी नजरअंदाज कर देते थे पर जब उन्माद उतरता था तो वहीं आकर गिरते थे।

अब यह भी बिल्डिंग बदल गयी है। अब कहीं गोमतीनगर में है पर मैं अब तक वहां नहीं जा पाया हूं। कमिश्नर सिस्टम, जहां पुलिस को अधिक शक्ति, अधिकार और जिम्मेदारी देता है, वहीं वह यह भी अपेक्षा करता है कि पुलिस कानून को कानूनी रूप से लागू करने के लिए दृढ़ता से कानूनी तंत्र के प्रति समर्पित रहे न कि बात-बात पर बेवजह दखल देने वाले राजनीतिक आकाओं के डिक्टेशन पर।

कमिश्नर सिस्टम लाने वाले पैरोकारों का मुख्य तर्क यह है कि इससे पुलिस को कानून व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिये अतिरिक्त अधिकार मिल जाएंगे और पुलिसिंग बदलते वक्त के अनुसार, सरल और सुगम हो जाएगी। कुछ शक्तियां जो मजिस्ट्रेट साहबान को मिलती थीं वह अब पुलिस अफसरों को मिलने लगेंगी, जिससे किसी भी तरह का त्वरित निर्णय लेने में सुविधा होगी। यह तर्क उचित है। शहरों में बदलते समय के अनुसार पुलिस को कानून व्यवस्था से जुड़ी एक एक्सपर्ट एजेंसी के रूप में, सीआरपीसी में प्रशासनिक मजिस्ट्रेसी को दी गयी कुछ शक्तियां मिलनी चाहिये, और वह अब मिली भी हैं। अब यह जिम्मेदारी पुलिस की है कि वह कैसे बिना किसी पक्षपात के आरोपों के उन शक्तियों का उपयोग कर पाती है।

कमिश्नर सिस्टम, देश में नयी प्रथा नहीं है, बल्कि देश के तीन ब्रिटिश प्रेसिडेंसी शहरों, कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में यह पुलिस व्यवस्था के प्रारंभ से ही है। दक्षिण के राज्यों में यह लग्भग सभी बड़े शहरों में है। 1978 से यह व्यवस्था दिल्ली पुलिस में भी है। दिल्ली से सटे, गुड़गांव और फरीदाबाद में भी अब यह व्यवस्था लागू है। 1978 में उत्तर प्रदेश के कानपुर में भी पुलिस कमिश्नर व्यवस्था लागू हो गयी थी और वासुदेव पंजानी को वहां नियुक्त भी कर दिया गया था, पर दो दिन के ही अंतर्गत यह व्यवस्था और यह नियुक्ति रद्द कर दी गयी थी।

मैंने तब नौकरी की है जब हमसफ़र एक मजिस्ट्रेट चाहे वे एसडीएम हों या एडीएम या डीएम रहा करते थे। अगर व्यक्तिगत अनुभव कहूँ तो मुझे अपने हमसफ़र मजिस्ट्रेट साथियों से कभी कोई दिक्कत नहीं हुयी और हमने समस्याओं का सामना भी मिलजुलकर भली प्रकार किया। पुलिसिंग की मुख्य समस्या अधिकारों का अभाव नहीं बल्कि उन अधिकारों का बिना दुरुपयोग हुये कैसे क्रियान्वयन किया जाय, यह है।

पर बात यहां कमिश्नर सिस्टम के पक्ष और विपक्ष की नहीं है, बात है कि अब जब सीएए एनआरसी विरोध में उत्पन्न जन आंदोलन की एक गम्भीर समस्या से लखनऊ जूझ रहा है, तो कमिश्नर सिस्टम से यह समस्या कैसे निपटी जाती है, यह देखना है। लखनऊ पुलिस को हाल ही में 19 दिसंबर के सीएए एनआरसी विरोधी आंदोलन में उसकी भूमिका को लेकर बहुत से असहज सवालों का सामना करना पड़ा है और अब भी रोज़ अदालतों से लेकर जनता में आरोप, आक्षेप लग ही रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में लखनऊ पुलिस कितनी शांति से कानूनों को लागू करते हुए कानून व्यवस्था की समस्याओं से पार पाती है। यह एक प्रकार से उसका इम्तहान है।

कमिश्नर पुलिस, और अन्य डीसीपी तो नियुक्त हो गए हैं पर मुख्य रूप से थाना चौकी आदि का स्टाफ उतना ही है या बढ़ा है यह अभी नहीं कहा जा सकता है। यूपी पुलिस की एक विसंगति और है कि आईपीएस और उसमें भी आईजी, और ऊपर के अधिकारी तो अधिक हो जाते हैं पर उनकी तुलना में अधीनस्थ अधिकारी जो पुलिस में मुख्य रूप से कार्यकारी होते हैं, विशेषकर सब इंस्पेक्टर और कांस्टेबलरी वे कम ही रहते हैं। उनकी रिक्तियां बनी रहती हैं। नियमित नियुक्तियां नहीँ हो पाती हैं। इसका एक कारण होता है, लंबे समय तक निरापद रूप से भर्तियों का न होना।

पिछले दस सालों में कम ही ऐसी भर्ती हुयी होगी जो अदालतों में नहीं गयी होगी। कमिश्नर सिस्टम को प्रभावी करने के लिये जरूरी है कि, थानों चौकियों पर अधिक नियुक्ति की जाय, उनका एलोकेशन बढ़ाया जाय और अपराधों की विवेचना और कानून व्यवस्था को अलग किया जाय। ऐसा करने के लिये, नेशनल पुलिस कमीशन की संस्तुति और सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी है।

कमिश्नर सिस्टम में सबसे ज़रूरी बात पुलिस को यह ध्यान में रखना होगा कि भीड़ नियंत्रण करते समय धैर्य बनाये रखना और स्थापित कानूनों को खुद भी मानते हुए लागू करना ज़रूरी है। दबाव तो भीड़ को हटाने का ऊपर से, मतलब सरकार से तो पड़ेगा ही, अगर वह भीड़ सरकार के विपरीत राजनीतिक दृष्टिकोण से है तो और भी पड़ेगा। आधुनिक संचार साधनों के संजाल युग मे दबंगई और बरजोरी से भीड़ हटाने का प्रयास अक्सर पुलिस को ही कठघरे में खड़ा कर देगा। भीड़ भीड़ में भी अंतर होता है।

शांतिपूर्ण तरीके से सड़कों पर जब भीड़ बैठी हो तो उसे दबंगई से हटाना उल्टा पड़ सकता है। मेरा अनुभव है कि जब ऐसे मामलों में पुलिस घिरती थी तो बचाव में कोई नेता नहीं आता था, हां हमसफ़र मजिस्ट्रेसी और कुछ मित्र पत्रकार और मॉनिंद लोग ज़रूर साथ होते थे। यह हमें मान के चलना होगा कि सिंघम और दबंग टाइप की पुलिसिंग केवल फिल्मों में ही ताली बजवाती है, असल धरातल पर नहीं। असल धरातल पर तो वह निलंबन और तबादला आदेश ले के आती है।

कमिश्नर सिस्टम का जो रूप इधर हाल में दिल्ली पुलिस के कुछ फैसलों पर देखने को मिला है उससे दिल्ली पुलिस की छवि एक स्वतंत्र और विधिपूर्वक विधिनुरूप विधिस्थापक के बजाय सरकार और सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक एजेंडे के लागू करने वाली एजेंसी के रूप में अधिक बनी है। तीसहजारी कोर्ट के मामले में गाली और लात घूंसा खाकर भी अपने ही डीसीपी पर हुये हमले में कोई कार्रवाई न करना, और जामिया यूनिवर्सिटी और जेएनयू में अलग-अलग मानदंडों के आधार पर कार्रवाई करना, जो घटनाएं हुयीं उनकी एक बेवकूफी भरी जांच का विवरण प्रेस वार्ता में रखना, एक प्रोफेशनल पुलिसिंग तो नहीं ही है, बल्कि वह पुलिसिंग का जी जहांपनाह मोड है।

तीसहजारी मामले में शर्मनाक तरह से रक्षात्मक और छात्र आंदोलन के मामलों में प्रतिशोधात्मक रूप से आक्रामक हो जाना, यह और चाहे जो कुछ भी हो, पर कानून को लागू करने वाली एजेंसी का विधिसम्मत चेहरा तो नहीं ही है। पुलिस को एक सीमा रेखा तो तय ही करनी पड़ेगी कि वह किस स्तर तक राजनीतिक आकाओं के आगे, उनके नियमविरुद्ध आदेशों और निर्देशों के संदर्भ में झुकेगी और वह कब तन कर कह देगी कि जी नहीँ। अब बस। यह स्तर पुलिस कमिश्नर को तय करना होगा, क्योंकि वह पुलिस का नेतृत्व करते हैं। यह नेतृत्व का अंग पुलिस और फौज जिनका आधार ही रेजिमेंटेशन पर टिका है, पुलिस को ट्रेनिंग में पढ़ाया जाता है।

अब बात फिर लखनऊ की। अभी बहुत चुनौतियां विशेषकर आधारभूत ढांचे से जुड़ी, कमिश्नर पुलिस के समक्ष होंगी जो रातोंरात दूर नहीं हो सकती हैं। मजिस्ट्रेसी के साथ काम करते रहने और बहुत सी चीज़ें आपसी मंत्रणा से निपटाने की आदत के बाद थोड़ी बदलती कार्य संस्कृति में भी पुलिस को तालमेल बिठाना पड़ेगा और सरकार का दबाव इस आंदोलन के संदर्भ में तो अभी और अधिक पड़ेगा, जैसा कि मेरा अनुमान है।

नयी-नयी कमिश्नर व्यवस्था के अंतर्गत आयी हुयी लखनऊ पुलिस और सचिवालय के तंत्र, इन दोनों के माइंडसेट को भी बदलना होगा। पर लखनऊ के नए पुलिस कमिश्नर एक सुलझे हुए अधिकारी हैं, आशा है वे इस देशव्यापी आंदोलन जनित चुनौतियों से निपटने में सक्षम होंगे। सीएए, एनआरसी के विरोध का कारण राज्य सरकार से जुड़े या स्थानीय मुद्दे बिल्कुल नहीं है, बल्कि यह आंदोलन तो केंद्रीय कानून के खिलाफ है और जैसी खबरें आ रहीं हैं यह देश के प्रमुख शहरों में चल रहा है और दिल्ली में तो इसका एक व्यापक रूप है ही। और अंत मे पुलिस कानून को कानूनी रूप से लागू करने के लिये बनी है, न कि किसी के अहं की तुष्टि और बदला लेने के लिये।

(लेखक विजय शंकर सिंह यूपी पुलिस के विभिन्न वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं।)

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