चुनावजीवी बनाम आंदोलकारी किसानः लोकतंत्र के इस नए स्तंभ को पहचानें

आंदोलकारी किसानों ने केंद्र की मजबूत और अधिनायकवादी मोदी सरकार से कृषि के तीन काले कानूनों को वापस कराकर यह साबित कर दिया है कि वास्तविक और वाजिब मुद्दों पर खड़े हुए आंदोलन को लोकतंत्र में कुचलना आसान नहीं है। समय भले लगे लेकिन उस आंदोलन की जीत होती ही है। यह सत्य की जीत है। यह भगत सिंह के अनुयायियों की जीत है, गांधीवादी रास्ते से। यह मंदिरों में स्थापित की जाने वाली अन्नपूर्णा और दूसरे देवी देवताओं की नहीं खेतों खलिहानों और फैक्टरियों में काम करने वाले किसान और मजदूर रूपी देवी देवताओं की जीत है। कवि ने कहा भी है कि देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में।

हरे और पीले गमछों और पटुकों में दिल्ली की सीमा पर आए यह लोग वास्तव में भारत की एकता और लोकतंत्र के नए देवता हैं जिन्हें समझे बिना न तो हम कृषि कानूनों के कहर और उनकी वापसी के वास्तविक असर को समझ सकते हैं और न ही आगे की रणनीति बना सकते हैं। किसान भारतीय लोकतंत्र के नए स्तंभ के रूप में उभरे हैं और उन्होंने बता दिया है कि विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया पर एक खास तबके और संगठन ने कब्जा करके लोकतंत्र को विफल करने का जो बीड़ा उठा रखा था उसे वे सफल नहीं होने देंगे। इसलिए कृषक तबके के रूप में उभरे लोकतंत्र के इस पांचवें स्तंभ को पहचानना होगा और उसे सतर्क, सचेत और जागृत बनाए रखने के लंबे प्रयास करते रहने होंगे।

किसान आंदोलन ऐसे समय में खड़ा हुआ जब भारत की संसदीय राजनीति के केंद्र में विपक्ष शून्य हो चला था। उसकी हैसियत या तो ट्विटर पर दिए जाने वाले तीखे बयानों या पार्टी दफ्तरों के गरमागरम प्रेस कांफ्रेंसों तक रह गई थी। विपक्ष या तो मुख्य भारत से दूर परिधि पर खड़ा नजर आता था या तो सोशल मीडिया की टिप्पणियों और कमेडियन के कार्यक्रमों में दिखाई पड़ता था। न्यायपालिका या तो मौन हो चली थी या अधिनायकवाद और बहुसंख्यकवाद को सींचने वाले फैसलों की बारिश करने वाली बन गई थी। कार्यपालिका सचमुच नागरिक समाज और नागरिकता की अवधारणा से युद्ध करने में लग गई थी। हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने हैदराबाद की सरदार पटेल पुलिस अकादमी में नागरिक समाज से युद्ध को चौथी पीढ़ी के युद्ध की घोषणा तो बाद में की, वे उसे पिछले सात सालों से चला रहे थे। चीफ आफ आर्मी स्टाफ बिपिन रावत ने कश्मीर में मॉब लिंचिंग को मान्यता देने वाला बयान तो बाद में दिया, कई बहुसंख्यकवादी संगठन `सामाजिक न्याय’ के रूप में इस पद्धति का आविष्कार बहुत पहले कर चुके थे और उसे मुख्यभारत में आजमा रहे थे।

मीडिया को प्रोफेशनल बनाते बनाते कारपोरेट बनाया गया और फिर गोदी बनाते बनाते गुलाम बना दिया गया था। उसके सुदर्शन चेहरे जहर भरे वाक्यों से लोकतंत्र की छाती छेद रहे थे। ऐसे ही लोगों के लिए कहा गया है कि विष रस भरा कनक घट जैसे। ऐसे समय में पहले नागरिकता कानूनों के विरोध में अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज और उनके साथ खड़े नागरिक समाज ने आंदोलन करके समाज को जगाना चाहा लेकिन उन्हें कुचल दिया गया। उसके लिए दिल्ली के दंगों का सहारा लिया गया और बाद में कोरोना जैसी महामारी का बहाना बना कर उसकी सारी हवा निकाल दी गई। एक बात ध्यान देने की है वह इंडिया का आंदोलन था। चूंकि इंडिया यानी शहरों में रहने वाला मध्य वर्ग बहुसंख्यकवाद और धर्म आधारित राज्य को जीने लगा है इसलिए उसने उसे नापसंद भी किया और उसे हट जाने दिया।

कोरोना काल के इसी संकट में राम मंदिर का शिलान्यास करके, मध्य प्रदेश की सरकार गिराकर और दिल्ली में दंगा कराकर मोदी सरकार ने समझ लिया था कि उसने भारत को भी जीत लिया है। उसके भक्त ऐलान करने लगे थे कि अब देश गाय, गंगा और गीता से ही चलेगा। इसी अंधेरे में मोदी सरकार ने कृषि के तीन कानूनों को बेदर्दी से पास करके यह विश्वास जताया कि अब वे इस देश पर कोई भी कानून लागू कर सकते हैं और इसे किसी भी दिशा में हांक सकते हैं। कोई भी कंपनी बेंच सकते हैं कोई भी रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डा चहेते कॉरपोरेट के हवाले कर सकते हैं।

एक ओर कोरोना की पहली लहर में लोग मर रहे थे तो दूसरी ओर संसद में बायकाट और अफरातफरी में कृषि को भीतर तक प्रभावित करने वाले कानून पारित किए जा रहे थे। कहा जा रहा था कि इससे खेती में नई प्रौद्योगिकी आएगी, किसानों को अपने उत्पाद कहीं बेचने की आजादी मिलेगी और भारतीय कृषि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित होगी। आढ़तियों का शिकंजा टूटेगा और किसान अमीर बन जाएगा। लेकिन संयोग से इसमें वाणिज्य के बहाने व्यापारियों और अनुबंध के बहाने कंपनियों और आवश्यक वस्तु अधिनियम के बहाने पूंजीपतियों के गोदामों की तरफदारी थी।

इसी बीच में संसद और कांस्टीट्यूशन क्लब से कोसों दूर रहने वाला भारत इस साजिश को भांप गया। वह निरंतर बढ़ते धार्मिक राष्ट्रवाद से अलग थलग महसूस कर रहा था और जब उसने कृषि पर कारपोरेट का सीधा हमला करने वाले कानूनों का महिमामंडन देखा तो भड़क उठा। वह एक ओर बुल और बुलडोजर से परेशान था तो दूसरी ओर बेरोजगारी और बढ़ती महंगाई उसका जीना दुश्वार किए हुए थी। 2017 में मध्य प्रदेश को मंदसौर गोलीकांड के बाद बनी अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति को केंद्र की मोदी सरकार ने थाली में सजा कर मुद्दा दे दिया। किसान समझ गया कि धर्म आधारित भगवा राजनीति पर सवार होकर कारपोरेट भारत की चौतरफा लूट के साथ खेती को भी अजगर की तरह अपनी गिरफ्त में लेने को आतुर है।

ऐसा नहीं है कि किसान इन तीन काले कानूनों से पहले किसी प्रकार की परेशानी में नहीं थे या आंदोलन नहीं करते थे। कृषि का संकट हरित क्रांति के साथ ही शुरू हो गया था। हरित क्रांति में किसानों ने देश को आत्मनिर्भर बनाया और बदले में उन्हें नसीब हुआ कर्ज का जाल, खेती की अनुउर्वरता और खुदकुशी। 1991 के उदारीकरण ने किसानों की सब्सिडी छीननी शुरू की और उन्हें बाजार की ओर धलेकना शुरू किया। 1991 से अब तक चार लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। फिर भी किसानों का एक तबका दिखावटी एमएसपी और एपीएमसी की मंडियों के बहाने किसी हद तक अपने को चला रहा था। लेकिन जब एपीएमसी को गुलामी का प्रतीक और एमएसपी को प्रतिस्पर्धा रोकने वाली बाधा बताते हुए यह तीन कानून लाए गए तो उसका माथा ठनका। आजादी का मुक्त आकाश बताकर लाए गए य़ह कानून किसानों को अडानी अंबानी की गुलामी थोपने वाले काले बादल लगे।

इससे पहले किसान कभी टिकैत के आंदोलन, तो कभी शरद जोशी के आंदोलन, तो कभी नंजुदास्वामी के आंदोलन के माध्यम से समय समय पर अपना असंतोष व्यक्त करते रहते थे। लेकिन वे एक नहीं हो पाए और न तो उदारीकरण की प्रक्रिया पर लगाम लगा पाए और न ही खेती के संकट का समुचित समाधान ढूंढ पाए। वे एकजुट होते थे और फिर टूट जाते थे। शायद तब तक भारतीय राष्ट्र राज्य इतना अनुदार और दमनकारी भी नहीं हुआ था।

पहली बार देश के 400 किसान संगठन संविधान दिवस यानी 26 नवंबर 2020 को तीन काले कृषि कानूनों को वापस लेने और देश के छीजते लोकतंत्र को बचाने के लिए देश की राजधानी दिल्ली की ओर चले। वे अटके भी, वे भटके भी, वे भिड़े भी, वे लड़े भी। लेकिन आखिरकार वे संभल गए और उन्होंने पहचान लिया कि उनकी लड़ाई किससे है। राकेश टिकैत जैसे ढुलमुल किसान नेता भी रोए और फिर साथ जुटते किसानों को देखकर डट कर खड़े हो गए। फिर उनकी सभाएं ऐसी सफल होने लगीं कि वे किसान जागरण के मजबूत स्तंभ होते गए। वे कहने लगे कि यह लड़ाई तो मोदी सरकार से है ही नहीं यह तो कारपोरेट से लड़ाई है। पंजाब के किसानों ने अपने पूरे समाज के साथ इस आंदोलन में भागीदारी की।

इसलिए उनके साथ अगर सिख समाज का सेवा भाव और दानशीलता आई तो उसके  साथ उग्रवाद और अलगाववाद भी आया। उसकी एक झलक 26 जनवरी को लाल किले पर दिखी भी जब सरकार के फैलाए हुए जाल में आंदोलन फंसता दिखा। उस झटके से आंदोलन बिखरता हुआ दिखा और उसकी छवि को गहरा धक्का लगा। लेकिन सूझ बूझ वाले नेताओं ने उसे संभाल लिया। आंदोलन की चूक और गलतियां उतनी बड़ी नहीं थीं जितनी सरकार की दमनकारी साजिशें थीं। इसे किसानों ने पहचाना और उन्होंने न तो संगठनों को बिखरने दिया और न ही हार मानी। इस बीच लखीमपुर में एक ब्राह्मण मंत्री के बेटे ने सिख किसानों पर अपनी गाड़ी चढ़ाकर मामले को हिंदू बनाम सिख बनाना चाहा लेकिन इससे किसान आंदोलन को नई संजीवनी मिल गई।

इस आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि उसने न सिर्फ मोदी जैसी मजबूत और संवेदनहीन सरकार को हराया बल्कि कोरोना जैसी महामारी को भी हराया। लेकिन उसके भीतर न तो किसी तरह का दर्प है और न ही बड़बोलापन। यह सब ऐसे ही नहीं हुआ। इसके पीछे सिंघु बार्डर, टिकरी बार्डर, गाजीपुर बार्डर और दूसरे मोर्चों पर लंबे समय तक चला समुद्र मंथन था। सात सौ किसान शहीद हुए। 11 दौर की विफल वार्ताएं चलीं। फिर लंबा इंतजार हुआ और तब जाकर सरकार पसीजी जब उसे लगा कि आने वाले पांच विधानसभा चुनावों में उसे झटका लग सकता है। विशेषकर उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल एक्सप्रेस वे पर 15 घंटों तक 340 किलोमीटर तक चली अखिलेश यादव की रात भर की रैली ने मौजूदा सरकार की नींद हराम कर दी।

उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धार्मिक प्रतीकवाद से बुना हुआ अपना मायाजाल फेंका और तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर डाली। प्रकाश पर्व, देव दीवाली और कार्तिक पूर्णिमा के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों से माफी मांगते हुए पिछले साल कोरोना काल के अंधेरे में और संसदीय मर्यादा के विपरीत पारित किए गए तीन कृषि कानून को वापस लेते हुए किसानों के संघर्ष के आगे भारत की राजसत्ता के झुकने का आभास दिया है। लेकिन किसानों की इस बड़ी जीत और केंद्र सरकार और नरेंद्र मोदी जैसे ताकतवर प्रधानमंत्री की जिद और हार को स्थायी उपलब्धि के रूप में देखने से पहले सतर्क हो जाने की जरूरत है। प्रधानमंत्री ने काले कानूनों की वापसी के लिए गुरु नानक देव की जयंती और कार्तिक पूर्णिमा के दिन को चुन कर सिख और हिंदू दोनों समुदायों को एक धार्मिक संदेश भी देना चाहा है। वे निरंतर धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करके भोली भाली जनता को ठगते रहे हैं और इस बार भी अपने महापाप और कानून निर्माण की कालिमा को धोने के लिए कार्तिक पूर्णिमा और प्रकाश पर्व का दिन चुना है।

लेकिन यही मौका है किसान आंदोलन और भारत के सचेत होने का। यह सरकार हर चीज का श्रेय लेने में माहिर है। वह शिलान्यास का शिलान्यास करती है और उद्घाटन का उद्घाटन करती है। वह असहमति के आयोजनों को आंदोलनजीवी कहती है और उन्हें देशद्रोही और आतंकवादी कहने से भी नहीं चूकती। वह पहले कोरोना के टीके चंद लोगों के लिए लगाने की बात करती है लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट का हथौड़ा चलता है तो सभी को देने पर सहमत होती है और धन्यवाद मोदी जी का करती है। वह एक ओर आजादी का अमृत महोत्सव मनाती है तो दूसरी ओर आजादी को 2014 में आई बताने वाली को पद्मश्री देती है। वह आजादी को भीख में मिली हुई बताती है फिर भगत सिंह बनाम गांधी की बहस चलाती है।

इस सरकार ने इंडिया के आधुनिक(प्रौद्योगिकी) संसाधनों का दुरुपयोग करते हुए भारत को भ्रमित किया है और इंडिया को डरा धमका और फुसला कर अपने साथ ले लिया है। इंडिया का अर्थ है विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया और उसको चलाने वाले कारोबारी। इसी के इर्द गिर्द खड़ा हुआ मध्य वर्ग कभी बहुसंख्यकवाद से खुश हो जाता है तो कभी अपने धार्मिक प्रतीकों में मगन हो जाता है। वह संविधान के मूल्यों को भूल जाता है और उसके मौलिक अधिकारों को तिलांजलि दे देता है। वह उन सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री पर भी खामोश हो जाता है जिसे जनता के संसाधनों से लंबी और कड़ी मेहनत के बाद रचा गया था।

भारत जाग रहा है। वही भारत जिसे जातिवादी और जाहिल कहा जाता है। वही भारत जिसे अंधविश्वासी और दकियानूस कहा जाता है। वही भारत जिसे अनपढ़ और गंवार कहा जाता है। उसी भारत के लोगों ने देशभक्ति के भाव से भर कर 2020 और 2021 के इस महान आंदोलन से इस देश के लोकतंत्र को बचाने की उम्मीद दिखाई है और खेती किसानी के संकट के प्रति पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है। उसकी खाप पंचायतें, उसकी सिख जत्थेबंदियां उसके तमाम नागरिक संगठन खड़े होकर आए हैं तब इतना बड़ा और लंबा आंदोलन चला है। इस आंदोलन में उन वामपंथी संगठनों ने भी मदद की है जो किसान और मजदूर के अंतर्विरोध को उठा रहा था। जो कुलक किसान और भूमिहीन किसान की बहस कर रहे थे और जिसने सिंगूर और नंदीग्राम में बड़ी गलती कर पश्चिम बंगाल में तीन दशक पुरानी अपनी सरकार गंवा दी थी। इस आंदोलन में गांधीवादियों और समाजवादियों ने भी मदद की है और इस आंदोलन में संघ परिवार से निकले शिवकुमार कक्का जी जैसे लोग भी जुटे रहे हैं। एक तरह से यह किसान तबके का सर्वांगीण आंदोलन बन गया है।

आज जरूरत इस बात की है कि किसान आंदोलन संघ परिवार के धार्मिक राष्ट्रवाद की जड़ी बूटी सूंघने से इनकार करे। वह भाजपा के सबका साथ और सबका विकास और सबका विश्वास के नारे के झांसे में न आए। वह धार्मिक राष्ट्रवाद के झुनझुने से दूर रहे। वह छद्म मुद्दों की बजाय वास्तविक मुद्दों को जगाए। वह राजनीतिक विचारों का एक पावर हाउस बनाए जिससे नए विमर्श खड़े हों। किसान चाहे पंजाब का हो या तमिलनाडु का हो, उसमें एक मूलभूत एकता है। वह इस एकता को पहचाने और उसके भीतर एकता का सूत्र स्थापित करे।

देश संघ परिवार के मकड़जाल से निकलना चाहता है। किसान संगठन उससे निकाल सकता है। लेकिन यह काम तभी हो सकता है जब किसानों के इतने सारे संगठन चुनावी राजनीति के प्रति उदासीन न हों, वे अराजनीतिक होने का दावा न करें और उन लोगों को पहचानें जो किसान और लोकतंत्र के हितैषी नहीं हैं, उन्हें हाशिए पर ठेलें और देश में ऐसी सरकारें लाएं जो धर्म के आधार पर नहीं किसान और मजदूर की एकता के आधार पर बन रही देश की एकता को स्वीकार करें। किसानों ने फिर से यह यकीन दिलाया है कि आंदोलन जीतते हैं, देश आंदोलन से बनता है, देश का जनमत आंदोलन से बनता है। क्योंकि हमारी राष्ट्रीय एकता, हमारा संविधान और हमारे लोकतांत्रिक मूल्य आंदोलन ने बनाए हैं। इसलिए चुनावजीवियों को कोई हक नहीं बनता कि वे आंदोलनकारियों को आंदोलनजीवी कहें और देश को जाति और धर्म के तबके में बांटें। 

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)     

अरुण कुमार त्रिपाठी
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अरुण कुमार त्रिपाठी